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जीत-हार के घूंघट से झांकता मुस्तक़बिल

Byपंकज शर्मा,
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जीत-हार के घूंघट से झांकता मुस्तक़बिल
जिन्हें नहीं मानना, न मानें, मगर कांग्रेस की सियासत का एक नया दौर तो शुरू हो गया है। इस दौर में कांग्रेस एक नई संरचना के सांचे में ढलेगी। भारत जोड़ो यात्रा कांग्रेस की धमनियों में नई ऊर्जा उंडेल रही है। राहुल की यात्रा ने महीने भर में तीन काम कर डाले हैं। एक, सियासी आसमान में छाया खौफ़ बहुत कम कर दिया है। दो, आमजन को सवाल उठाने के लिए सशक्त बनाया है। तीन, नाउम्मीदी के तालाब में बदलाव की उम्मीद का दीया प्रवाहित कर दिया है। वरना अब से चंद महीने पहले तक पूरा मुल्क असहाय-भाव से टुकुर-टुकुर ताक रहा था। सोमवार को देश भर के प्रदेश-कांग्रेस कार्यालयों में कांग्रेस-अध्यक्ष पद के लिए होने वाले मतदान की पेटियां जब बुधवार को दिल्ली में खुलेंगी तो 66 साल के शशि थरूर 80 साल के मल्लिकार्जुन खड़गे से हार जाएंगे। हो सकता है कि वे बुरी तरह हार जाएं। लेकिन खड़गे की भारी-से-भारी जीत से भी देश भर के कांग्रेसजन सड़कों पर आ कर कमर मटका-मटका कर फुदकने वाले नहीं हैं। इसलिए कि 22 बरस बाद मतदान के ज़रिए हो रहे कांग्रेस-अध्यक्ष के चुनाव में न तो खड़गे की उम्मीदवारी ने कांग्रेसी हृदय के तारों को झंकृत करने जैसा काम किया है और न थरूर की उम्मीदवारी स कांग्रेसजने उनके प्रति किसी खलनायकी-भाव से भरे हुए हैं। खड़गे के माथे पर ‘अधिकृत प्रत्याशी’ की जो पगड़ी बंधी हुई है, अगर वह थरूर के माथे पर बंधी होती तो उनकी जीत पर भी कांग्रेसजन उतनी ही उत्साहहीन मुद्रा में पाए जाते, जितनी में वे खड़गे की जीत पर 19 अक्टूबर को पाए जाएंगे। कांग्रेस के लिए यह चुनाव एक शुष्क औपचारिकता है। कोई भी जीते-हारे, कांग्रेस की भावी सेहत से इस चुनाव-नतीजे का कोई लेनादेना ही नहीं होगा। कांग्रेसी-भाग्य के विधाता राहुल गांधी हैं और भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिए तेज़ी से परिष्कृत और उन्नत हो रही उनकी छवि ही आने वाले दिनों में कांग्रेस का नसीब पूरी तरह बदलेगी। मुझे लग रहा था कि थरूर अंततः दौड़ से हट जाएंगे। इसलिए कि वे वैश्विक-पटल की जिस गुदड़ी के लाल हैं, उस के सामने अपनी मुट्ठी बंद ही रखना चाहेंगे। आख़िर इतना इतिहास तो वे जानते ही हैं कि सन् 2000 में सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ कांग्रेस-अध्यक्ष का चुनाव लड़े जितेंद्र प्रसाद को 7542 में से महज़ 94 वोट ही मिले थे। थरूर इससे भी अनजान नहीं हैं कि सीताराम केसरी तक के ख़िलाफ़ हरफ़नमौला शरद पवार और जनप्रिय राजेश पायलट जैसे तत्कालीन दिग्गजों को क्रमशः साढ़े आठ सौ और साढ़े तीन सौ के आसपास ही वोट मिले थे। सो, मेरी समझ कहती थी कि थरूर अपनी मुट्ठी खोल कर उसे ख़ाक की क्यों साबित करना चाहेंगे? लेकिन थरूर मैदान से नहीं हटे। नेहरू-गांधी परिवार से कोई अध्यक्ष पद का नामांकन भरता तो, थरूर ही क्या, कोई भी, शायद खड़ा नहीं होता। लेकिन खड़गे की झोली में सुगम-जीत का तोहफ़ा भला कोई क्यों डाले? फिर अगर खड़गे भी कांग्रेस में निर्विरोध निर्वाचित हो सकते हैं तो सोनिया गांधी ने दो दशक तक बारंबार सर्वसम्मति से अध्यक्ष बन कर कौन-सा कमाल कर दिखाया? सो, जब यह तय हो गया कि सोनिया अब अध्यक्ष रहेंगी नहीं, राहुल अध्यक्ष का चुनाव लड़ेंगे नहीं और प्रियंका गांधी के मैदान में उतरने का कोई सवाल ही नहीं है तो उसी समय अप्रयास यह भी तय हो गया कि ‘अधिकृत प्रत्याशी’ कोई भी हो, चुनाव तो अब होगा। ‘अधिकृत’ को भी निर्विरोध तो अध्यक्ष बनने नहीं दिया जाएगा। अगर ख़ुद अपनी रेड़ न मार लेते और अशोक गहलोत भी ‘अधिकृत’ उम्मीदवार हो जाते तो वे भी अध्यक्ष की कुर्सी पर निर्विरोध नहीं बैठ पाते। दिग्विजय सिंह को अगर ‘अधिकृत’ का ख़िताब मिल जाता तो सर्वसम्मत पालकी पर चढ़ कर तो उनकी भी ताजपोशी होने वाली नहीं थी। सो, बतौर स्पर्धी थरूर से बेहतर खड़गे के लिए और कौन होता? ज़रा कल्पना कीजिए कि अगर खड़गे के ख़िलाफ़ गहलोत या दिग्विजय खड़े हो जाते तो ‘अनधिकृत’ तमगे के बावजूद कांग्रेस-अध्यक्ष के चुनाव का दृश्य कैसा बनता? इसलिए खड़गे क़िस्मत वाले हैं कि वे एक प्रतीकात्मक चुनाव में अध्यक्ष पद के उम्मीदवार हैं। सचमुच ताल ठुकने पर भी वे जीत तो शायद जाते, मगर पसीने से बेतरह लथपथ हो जाते। थरूर भी भाग्यशाली हैं कि उनका मुकाबला खड़गे से है। सोचिए कि अगर उनके सामने गहलोत या दिग्विजय का ‘अधिकृत’ चेहरा होता तो क्या होता? अभी तो उन्हें सिर्फ़ यह दुःख झेलना पड़ रहा है कि चुनाव अभियान में खड़गे की अगवानी के लिए तो हर प्रदेश में बड़े-बड़े नेता पहुंचते हैं, लेकिन उनका ख़ैरमकदम करने कोई कद्दवार नहीं आता। तब तो यह भी हो सकता था कि थरूर के आने की ख़बर पा कर प्रदेश-कांग्रेस के दफ़्तर का मुख्यद्वार बंद हो जाता। 22 साल पहले जब जितेंद्र प्रसाद चुनाव प्रचार करने लखनऊ पहंुचे थे तो अपने गृह-राज्य के प्रदेश कार्यालय पर ताला लगा कर देख कर उलटे पांव लौट आए थे। यह खुशकिस्मती भी थरूर के साथ है कि कुछ महीनों बाद जब खड़गे कांग्रेस अधिवेशन की सदारत करेंगे तो वहां थरूर को देख कर कोई तिरस्कार-सूचक हूटिंग नहीं होगी। 2001 में बंगलूर के कांग्रेस अधिवेशन में तो पूरा परिसर जितेंद्र प्रसाद को देख कर ऐसे नफ़रती नारे लगाने लगा था कि ख़ुद सोनिया गांधी को माइक पर आ कर लोगों को फटकारना पड़ा था। जितेंद्र प्रसाद के साथ किसी कांग्रेसजन की सहानुभूति नहीं थी, मगर कुछ लोगों को मेरी यह बात नाग़वार गुज़रेगी कि कांग्रेस-अध्यक्ष के इस चुनाव में थरूर ने ख़ुद के लिए कांग्रेसजन की सहानुभूति अर्जित की है। वे भी, जो थरूर को कांग्रेस-अध्यक्ष बनाने के अन्यथा पक्षधर नहीं हैं, खुसपुस-धर्मसंकट का झूला झूल रहे हैं कि खड़गे की तुलना में थरूर को कबाड़ कैसे कहें? 2024 के आम चुनाव में राहुल और प्रियंका की केंद्रीय भूमिका पर कोई सवालिया निशान इसलिए नहीं है कि नरेंद्र भाई मोदी के झंझावात का सामना खड़गे कर लेंगे - यह बात कौन मान सकता है? तो क्या कांग्रेस का पार्टी-संगठन अब अगले पांच साल खड़गेमय रहेगा, क्योंकि राहुल-प्रियंका में से तो कोई शिखर-कमान कमान अब 2029 के लोकसभा चुनावों के दो साल पहले ही संभाल पाएगा? सो, आने वाला समय कांग्रेस में सामूहिक नेतृत्व की ठोस पहलक़दमी का है। कार्यसमिति के चुनाव इसकी शक़्ल तय करेंगे। मतदान से चुन कर आने वाले 12 सदस्यों में कई ऐसे नाम होंगे, जिन पर अभी किसी की नज़र नहीं जा रही है। 12 मनोनीत सदस्य भी अजब संतुलन के खेल की गज़ब गाथा लिखने के खा़तिर नामजद होंगे। जिन्हें नहीं मानना, न मानें, मगर कांग्रेस की सियासत का एक नया दौर तो शुरू हो गया है। इस दौर में कांग्रेस एक नई संरचना के सांचे में ढलेगी। भारत जोड़ो यात्रा कांग्रेस की धमनियों में नई ऊर्जा उंडेल रही है। उस से नई सामाजिक जागरूकता और सांस्कृतिक चेतना का विस्तार होने के गहरे संकेत मिल रहे हैं। इनका राजनीतिक अनुवाद 2024 के चुनाव नतीजों का मुखड़ा तय करेगा। राहुल की यात्रा ने महीने भर में तीन काम कर डाले हैं। एक, सियासी आसमान में छाया खौफ़ बहुत कम कर दिया है। दो, आमजन को सवाल उठाने के लिए सशक्त बनाया है। तीन, नाउम्मीदी के तालाब में बदलाव की उम्मीद का दीया प्रवाहित कर दिया है। वरना अब से चंद महीने पहले तक पूरा मुल्क असहाय-भाव से टुकुर-टुकुर ताक रहा था। यह अच्छा हुआ कि राहुल गांधी चल पड़े। इस चल पड़ने से उन के बंधनों की एक-एक गांठ ढीली होने लगी है। हर तरह के बंधन की। वे संचित पूर्वाग्रहों के बंधन से, प्रतीकात्मक सोच के बंधन से, असहज कार्य-व्यवहार के बंधन से और ठलुआ चंडाल-चौकड़ी के बंधन से मुक्त होते दिखाई दे रहे हैं। यह मुक्ति ही उन्हें सियासत का शक्तिपुंज बनाएगी। अगले फागुन में आप कांग्रेसी टेसू के पेड़ की डालों को नए फूल-पत्तों से लदाफदा पाएंगे। राहुल चयन-परीक्षण की नई कूव्वत से लबरेज़ होते दिखाई दे रहे हैं। अध्यक्ष कोई भी बन जाए, राहुल में इसी सामर्थ्य के अभ्युदय पर कांग्रेस के भविष्य की आस टिकी है। लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।
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