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भाजपा की इस जीत के क्या मायने?

Byबलबीर पुंज,
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भाजपा की इस जीत के क्या मायने?
 बिहार में अधिकांश एग्जिट/ओपीनियन पोल के अनुमानों को धता बताकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने बिहार में पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया। परिणाम से अधिक उसमें निहित तीन संदेश काफी महत्वपूर्ण है। पहला- राजग के मुख्य दल भारतीय जनता पार्टी का स्ट्राइक रेट- अर्थात् 110 सीटों पर उसने चुनाव लड़ा और 74 सीटों पर उसकी विजय हुई- वह 67.2 प्रतिशत है। स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सशक्त, राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण छवि और लोकप्रियता के साथ भाजपा की राष्ट्रीय नीतियों पर बिहार के मतदाताओं ने मुहर लगा दी। बिहार के अतिरिक्त 11 राज्यों की 59 विधानसभा सीटों पर हुए उप-चुनाव में भाजपा 40 सीटों पर विजयी हुई है- यहां उसका स्टाइक रेट 68 प्रतिशत का रहा। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार बनी रहेगी, क्योंकि यहां हुए उप-चुनाव में भाजपा 28 में से 19 सीटें जीतने में सफल हुई है। मणिपुर की 5 से 4 सीटों पर भाजपा ने विजय प्राप्त की है। इसके अतिरिक्त उत्तरप्रदेश, जहां गत दिनों हाथरस के दुर्भाग्यपूर्ण मामले को लेकर स्वघोषित सेकुलरवादियों और स्वयंभू उदारवादियों ने हिंदू समाज को जाति के नाम पर बांटने का प्रयास किया था- वहां 7 सीटों पर हुए उप-चुनाव में से 6 पर भाजपा ने परचम लहराया है। तेलंगाना में एक सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा 38.5 प्रतिशत मतों के साथ विजयी हुई है। भाजपा ने शतप्रतिशत नतीजों के साथ कर्नाटक उपचुनाव में 52 प्रतिशत वोट, तो गुजरात में 55 प्रतिशत वोट प्राप्त किया। वही ओडिशा, नागालैंड, झारखंड और हरियाणा के उप-चुनाव में भी दमदार प्रदर्शन किया है। इन राज्यों के जनादेश ने भी स्पष्ट कर दिया है कि जनता अब ढोंगी सेकुलरवाद के नाम पर टुकड़े-टुकड़े गैंग, देशविरोधियों और अलगाववादी शक्तियों को बिल्कुल भी सहन नहीं करेगी और उसे अपने मताधिकार से चुनौती देती रहेगी। स्पष्ट है कि इन चुनाव नतीजों पर मोदी सरकार की नीतियों और उनके कार्यकाल में लिए गए फैसलों की जनस्वीकार्यता है। इसमें सीमा पर साम्यवादी चीन की आक्रमकता का वर्तमान भारतीय नेतृत्व द्वारा उचित प्रतिकार और पिछले डेढ़ वर्ष में तीन तलाक विरोधी अधिनियम, धारा 370-35ए का संवैधानिक क्षरण, शीर्ष अदालत के निर्णय के बाद राम मंदिर निर्माण में तेजी, नागरिकता संशोधन कानून और कृषि सुधार संबंधित विधेयक आदि शामिल है- जिसने बिहार की मजहब और जाति आधारित राजनीति को ध्वस्त करके रख दिया। बिहार में भाजपा के विजयी स्ट्राइक-रेट का कारण उसकी जनकल्याणकारी राष्ट्रीय नीतियां भी है। कोरोनाकाल में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के अंतर्गत, मोदी सरकार देश के करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज उपलब्ध कराया है, जिसमें प्रति व्यक्ति 5 किलो गेहूं या 5 किलो चावल के अलावा प्रति परिवार 1 किलो चना मुफ्त दिया जा रहा है। ऐसा करते हुए ना ही किसी लाभार्थी का मजहब देखा गया और ना ही जाति। पिछले 6.5 वर्षों में बिना किसी बिचौलिए के वंचितों और गरीबों को सीधा लाभ मिलने लगा है। उज्जवला योजना के अंतर्गत, आठ करोड़ महिलाओं को मुफ्त एलपीजी रसौई गैस का कनेक्शन दिया गया है। जनधन योजना में 41 करोड़ लोगों का निशुल्क बैंक खाता खोलकर उसमें विभिन्न परियोजनाओं के लिए उनके खातों में सीधा कुल 1.32 लाख करोड़ रुपये जमा किया गया है। किसान सम्मान निधि योजना के तहत 8.5 करोड़ लाभार्थी किसानों के बैंक खातों में दो हजार रुपये की किश्त भेजी जा रही है। साथ ही ग्रामीण आवासीय योजना के अंतर्गत, 1.58 लाख करोड़ की लागत से 1.12 करोड़ घर बनाए गए है। बिहार में राजग के पक्ष में जैसे नतीजे आए है- क्या वह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जिस विचारधारा का वे प्रतिनिधित्व करते हैं- उसके कारण है? शायद ही कोई इसका उत्तर "हां" में दे पाए। बकौल नीतीश कुमार, यह उनका अंतिम चुनाव है। निसंदेह, नीतीश की छवि एक ईमानदार व्यक्ति की है। किंतु सत्ता-विरोधी लहर के बीच राजनीतिक अवसरवाद के लिए पहले छद्म-सेकुलरवाद के नाम पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध, फिर 2015 में अपने धुर-विरोधी "जंगलराज" के प्रतीक लालू से हाथ मिलाना और 2017 में भ्रष्टाचार को लेकर फिर से लालू की राजद से किनारा करना- इसने उनकी राजनीतिक-छवि को धूमिल अवश्य किया है। यही कारण है कि इस पूरे चुनाव में नीतीश की भूमिका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मात्र 12 रैलियों के समक्ष सीमित नजर आई। इस चुनाव में जदयू का 37 प्रतिशत का स्ट्राइक रेट- इसका प्रमाण है। दूसरा संदेश- बिहार, जहां सत्ता के लिए राष्ट्रीय जनता दल ने लालू के नेतृत्व में कभी यादव-मुस्लिम समीकरण पर काम किया, कभी "भूरा बाल साफ़ करो" (भूमिहार-ब्राह्मण-राजपूत-लाला) की जातिवादी राजनीति (हिंसा सहित) को पुष्ट किया- उसे भी बिहार के मतदाताओं ने खारिज करके विकास के नाम पर वोट दिया है। इसकी स्पष्ट झलक तेजस्वी यादव की हालिया राजनीति में भी दिखीं। उन्होंने अपने पिता लालू की इस दूषित राजनीतिक विरासत को मुखर होकर आगे नहीं बढ़ाया। इसके स्थान पर बतौर नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी ने बिहार में रोजगार, उद्योग और कोरोनाकाल में श्रमिकों के पलायन को अपना चुनावी मुद्दा बनाया। इस चुनाव में राजद का स्ट्राइक रेट 52 प्रतिशत का रहा, जबकि सहयोगी दलों में कांग्रेस का 27 प्रतिशत और वामपंथियों का यह आंकड़ा 55 प्रतिशत का रहा। राजद नीत यह महागठबंधन आखिर क्यों चूका? घोषणापत्र जारी करते हुए तेजस्वी ने वादा किया था कि यदि उनकी सरकार बनती है, तो कैबिनेट की पहली ही बैठक में दस लाख युवाओं को सरकारी रोजगार देने हेतु आदेश पर हस्ताक्षर किया जाएगा। महागठबंधन सहयोगी इसे मास्टरस्ट्रोक बताकर चुनाव में अपनी जीत का दंभ भी भरने लगे थे। किंतु बिहार के नतीजों ने इसे जुमला घोषित कर दिया। किसी भी क्षेत्र में रोजगार सृजन के लिए समाज में कानून-व्यवस्था का नियंत्रण में और सत्ता के शीर्ष क्रम का भ्रष्टाचार मुक्त होना आवश्यक है। इस मामले में राजद शासन का ट्रैक-रिकॉर्ड गर्त में है। लालू-राबड़ी के शासनकाल में 1990-2005 के बीच बिहार अपहरण, हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती, रंगदारी और भ्रष्टाचार का प्रतीक बन गया था। अपराधियों की राजनेताओं, नौकरशाहों, भ्रष्ट पुलिसकर्मियों-अधिकारियों से सांठगांठ ऐसी थी कि प्रदेश की "आर्थिक-गतिविधि" को फिरौती-अपहरण जैसे "उद्योगों" से गति मिल रही थी। स्वाभाविक है कि तेजस्वी द्वारा 10 लाख सरकारी नौकरी देने का वादा बिहार के मतदाताओं को "जाल में फंसना" या "शेखचिल्ली" की बातों जैसा प्रतीत हुआ होगा। यह बात सही है कि तेजस्वी "जंगलराज"-वादी राजद शासन के लिए जनता से कई बार माफी मांगते नजर आए। किंतु अधिकांश बिहारवासी "जंगलराज" नहीं भूल पाए। लालू परिवार का भ्रष्टाचार-कदाचार के मामलों से भी गहरा नाता रहा है। 23 वर्ष पुराना और लगभग 950 करोड़ चारा घोटाला सर्विदित है, जिसमें पशुओं के चारे के नाम पर फर्जी बिल बनाए गए थे और लेन-देन दिखाया गया था- उसमें लालू अन्य दोषियों की भांति सजायाफ्ता है। रेलवे निविदा घोटाला मामले में लालू, राबड़ी देवी, तेजस्वी, मीसा, तेजप्रताप सहित अन्य आरोपित है। ये पूरा मामला वर्ष 2005-06 का है, जब लालू यादव कांग्रेस नीत संप्रग सरकार में रेल मंत्री थे। इसके अतिरिक्त, बेनामी लेने-देन कानून के अंतर्गत एक हजार करोड़ रुपये के जमीन सौदे और कर चोरी को लेकर लालू-राबड़ी और उनके परिवार के कई सदस्यों पर मामले दर्ज है। तेजस्वी जिस पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते है- वह भारतीय राजनीति में नेहरू-गांधी वंश के बाद दूषित परिवारवादी परंपरा का दूसरा बड़ा उदाहरण है। 1997 में घोटाले के कारण जब लालू को बिहार की कुर्सी छोड़नी पड़ी, तब उन्होंने- अनुभवहीन और घर-परिवार की जिम्मेदारी तक सीमित अपनी अशिक्षित पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का राजकाज सौंप दिया। यही नहीं, जब 2013 में लालू उसी घोटाले में दोषी ठहराए गए, तब भी राजद के भीतर सत्ता के केंद्र को अपने परिवार के इर्दगिर्द रखने हेतु उन्होंने अपने नौंवी पास छोटे पुत्र तेजस्वी को आगे कर दिया। तीसरा राजनीतिक संदेश- बिहार का विधानसभा चुनाव वैश्विक महामारी कोरोना के कालखंड में हुआ है। कोविड-19 संबंधित दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखते हुए न केवल कुल 7.29 करोड़ में से लगभग 4 करोड़ मतदाताओं ने चुनाव में हिस्सा लिया, साथ ही उन्होंने ईवीएम पर अपना विश्वास भी जताया। यह रेखांकित करता है कि भारत में लोकतंत्र की जड़े कितनी मजबूत और गहरी है। बिहार के परिणाम दोहरी मानसिकता रखने वालों के मुंह पर जोरदार तमाचा है, जो प्रतिकूल नतीजें आने पर ईवीएम हैक का रोना रोते है या चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर उठाते है। विपक्ष को समझना होगा कि राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, अखंडता, हिंदू अस्मिता, सार्वजनिक जीवन में शुचिता और सबका साथ सबका विकास- वह मापदंड बन चुके है, जिससे सत्ता का मार्ग प्रशस्त होता है, ना कि ईवीएम या किसी भी संवैधानिक संस्था पर पराजय का ठीकरा फोड़कर।
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