
बोस अपने भाषणों में हिन्दू महासभा और अकालियों की कटु आलोचना करते थे, पर मुस्लिम लीग की नहीं। उन्होंने जिन्ना की आलोचना की, किन्तु उन्हें ‘पूँजीपतियों और जमींदारों के सहयोगी’ बताकर। जिन्ना के कट्टर इस्लामी, अलगाववादी विचारों की आलोचना बोस ने नहीं की।….1939 में जब सावरकर बंगाल आए और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिन्दू महासभा का काम बढ़ाना शुरू किया, तो सुभाष बाबू ने उन्हें ‘‘जरूरत हुई तो बल प्रयोग करके भी’’ हिन्दू महासभा को खत्म कर डालने की धमकी दी थी। यह श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपनी डायरी में लिखा है। Bose was anti Hindu
यह भी ध्यान रहे कि ‘आजाद हिन्द’ (1941) या इंडियन नेशनल आर्मी, ‘आई.एन.ए.’ (1942) की स्थापना बोस ने नहीं की थी। मूल ‘आजाद हिन्दुस्तान’ की स्थापना पंजाब के मुहम्मद इकबाल शैदाई (1888-1974) ने फासिस्ट मुसोलिनी के सहयोग से रोम में की थी। मुस्लिम इतिहास में उस की प्रतिष्ठा अल्लामा इकबाल जैसी थी, और उसे आदर से जूनियर इकबाल भी कहा जाता था। (बल्कि देश-विभाजन बाद भारत सरकार के प्रभावशाली मंत्री मौलाना आजाद ने शैदाई को भारत आ जाने और मंत्री बनने का निमंत्रण भी दिया था।) उसी शैदाई ने फासिस्टों की सहायता से ‘रेडियो हिमालय’ का शॉर्ट-वेभ प्रसारण शुरू किया था। शैदाई मुसोलिनी के काफी निकट था। उस ने रोम व मिलान में अपने कार्यालय बनाए और नाजियों से भी उस का हेल-मेल था। उस का सपूर्ण कार्यक्रम इस्लामी विस्तार था। उस के सारे पदाधिकारी, कार्यकर्ता मुस्लिम थे। उन में से अधिकांश कट्टर जिहादी थे। शैदाई की सहायता से ही बोस ने ‘आजाद हिन्द’ रेडियो शुरू किया जिस से सप्ताह में दो बार प्रसारण होता था।
शैदाई ने ही उन भारतीय युद्धबंदियों के बीच से अपने लिए दस्ते बनाने का काम शुरू किया था जिन्हें जर्मन और इटालियन फौजें अफ्रीका, तुर्की, आदि युद्ध-क्षेत्रों से बंदी बना कर लाती थीं। वे युद्धबंदी जर्मनी में जहाँ-तहाँ रखे जाते थे। शैदाई और ‘आजाद हिन्द’ के कार्यकर्ता ही उन्हें ब्रिटिश सेना छोड़ विद्रोही दस्ते में शामिल होने के लिए विविध प्रलोभन देकर फुसलाते थे। उन का उद्देश्य भारत में इस्लामी राज कायम करना था। ‘आजाद हिन्द’ के दस्तावेजों में भारत की आजादी से अधिक अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी प्रभुत्व की बातें मिलती हैं।
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Bose was anti Hindu
इस प्रकार, ‘आजाद हिन्द’ पहले से जिहादी तत्वों का जमा हुआ संगठन था। जब सुभाष बाबू जर्मनी पहुँचे भी नहीं थे। यह सही है कि भारत के हिसाब से सुभाष बाबू का व्यक्तित्व मशरिकी या शैदाई से बड़ा था। वे कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके थे। अतः उन के कारण अधिक युद्धबंदी विद्रोही सैनिक बनने के लिए राजी हुए। उन भारतीय युद्धबंदियों में मुसलमानों की संख्या ज्यादा थी। उन में पहले से ही इस्लाम के प्रति वफादारी की भावना अधिक थी। सुभाष बाबू ने भी उन से अपील करने में इस्लामी जज्बे का अधिक उपयोग किया। जैसे यह कहना, कि विद्रोही फौज में शामिल होकर वे इस्लाम की बेहतर सेवा करेंगे। उन में भारत की आजादी की बात गौण थी।
कम से कम एक रेडियो भाषण (7 अक्तूबर 1942) में सुभाष बाबू ने पाकिस्तान बनाने की प्रेरणा का भी उपयोग किया। उन्होंने कहा कि ‘‘जब तक भारत में अपनी सरकार नहीं होगी, तब तक पाकिस्तान नहीं बन सकता।’’ चाहे ऐसी बातें बोस ने जिस भी कारण कही हों, लेकिन इस से उन की स्थिति का पता तो चलता ही है। तब कौन किस का इस्तेमाल कर रहा, या हो रहा था? ठीक वैसी ही बातें बीस वर्ष पहले गाँधीजी ने खलीफत जिहाद का संमर्थन करते समय की थी।
बोस अपने भाषणों में हिन्दू महासभा और अकालियों की कटु आलोचना करते थे, पर मुस्लिम लीग की नहीं। उन्होंने जिन्ना की आलोचना की, किन्तु उन्हें ‘पूँजीपतियों और जमींदारों के सहयोगी’ बताकर। जिन्ना के कट्टर इस्लामी, अलगाववादी विचारों की आलोचना बोस ने नहीं की। बल्कि अंग्रेजों के साथ मेल रखने के कारण जिन्ना को ‘इस्लाम-विरोधी’ कहा। (बैंकाक रेडियो को एक इंटरव्यू में, 18 जुलाई 1943)। लेकिन यहाँ यह भी नोट करना चाहिए कि सुभाष बाबू में इस्लाम-परस्ती पहले से थी। कलकत्ता में अपनी राजनीति की शुरूआत में, 1925 से ही वे अपने बड़े-बड़े निर्णयों में, तथा फारवर्ड ब्लोक में अपने लेखों में इसे व्यक्त करते रहे थे। यहाँ तक कि 1939 में जब सावरकर बंगाल आए और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिन्दू महासभा का काम बढ़ाना शुरू किया, तो सुभाष बाबू ने उन्हें ‘‘जरूरत हुई तो बल प्रयोग करके भी’’ हिन्दू महासभा को खत्म कर डालने की धमकी दी थी। यह श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपनी डायरी में लिखा है।
बहरहाल, आगे बर्लिन में एक बार बोस ने 26 जनवरी 1943 को ‘भारतीय स्वतंत्रता दिवस’ मनाने का कार्यक्रम आयोजित किया। उस में उन्होंने मुख्य अतिथि के रूप में उसी कुख्यात ‘हिटलर के मुफ्ती’ अमीन अल-हुसैनी और ईराक में यहूदियों का संहार करने वाले रशीद अली अल-गिलानी को निमंत्रित किया। उस कार्यक्रम में सुभाष बाबू ने इस्लामी पोशाक में और उर्दू में भाषण दिया था। उस भाषण में मुसलमानों की दुरवस्था पर अधिक कहा गया था। जबकि तब वहाँ बोस के आजाद हिन्द दस्ते में लगभग 80-85 % प्रतिशत सैनिक हिन्दू-सिख थे। कुल युद्धबंदियों में चाहे मुस्लिम अधिक थे, किन्तु बोस से जुड़ने वाले अधिक सैनिक हिन्दू-सिख थे। मुस्लिम बमुश्किल 15 % ही थे। फिर भी बोस के भाषण अनुपातहीन रूप में मुस्लिम भावनाओं की अपील, उन का तुष्टिकरण करते थे।
बोस की अपनाई गई औपचारिक भाषा भी उसी का उदाहरण है। उन्होंने जिद पूर्वक उर्दू को अपनाया। अरबी या रोमन लिपि में लिखी गई उर्दू, जिसे वे (गाँधीजी की तरह) छद्म रूप से ‘हिन्दुस्तानी’ कहते थे। उन के आजाद हिन्द का नारा, गीत, पदवियाँ, विज्ञप्तियाँ, आदि सब कुछ उसी भाषा में था। सुभाष बाबू की पदवी थी ‘सिपह सालार’। अन्य पदवियाँ या पदक भी, उसी तरह ‘सरदार-ए-जंग’, ‘तमगा-ए-बहादुरी’, ‘शेरे-हिन्द’, आदि। उन की फौज का ध्येय-वाक्य (मोटो) था: ‘इत्तेफाक, ऐतमाद, कुर्बानी’।
बाद में, जब सिंगापुर में उन्होंने निर्वासित सरकार (1943) बनाई तो उस का नाम था ‘आरजी हुकुमते आजाद हिन्द’। उन्होंने राष्ट्रगान के रूप में भारत में दशकों से प्रसिद्ध ‘वन्दे मातरम्’ को ठुकरा दिया। यहाँ तक कि ‘जन-गण-मन…’ को भी, क्योंकि उन गीतों में संस्कृत शब्द भरे थे। इस के बदले उन्होंने ‘जन-गण-मन…’ को विकृत करके, उस में उर्दू शब्द और मजहबी शब्द जोड़ कर, उसे ‘कौमी तराना’ का नया नाम देकर अपना राष्ट्रगीत बनाया। जिसे राशिद अली ने लिखा था। हमें पढ़ाई जाती झूठी बातों में एक यह भी है कि बोस ने ही पहली बार जनवरी 1943 में ‘जन-गण-मन’ को राष्ट्रगान रूप में गवाया था। सच यह कि केवल उस की धुन बजाई गई थी, शब्द नहीं।
सिंगापुर में भी, आई.एन.ए. की स्थापना पहले से हो चकी थी, जिसे जापानियों की सहायता से रासबिहारी बोस (1886-1945) ने अप्रैल 1942 में बनाया था। रासबिहारी बोस उस से पहले तीन दशक से बड़े साहसी और सफल क्रांतिकारी रहे थे। वस्तुतः, जापानियों के सहयोग से बनी मूल आई.एन.ए. और उस के क्रियाकलाप बड़े प्रशंसनीय थे। वहाँ मलेशिया, बैंकाक, आदि स्थानों से भी भारतीय आकर्षित होकर आए और उन्होंने एक तरह की निर्वासित भारतीय सरकार बनाई जिस के प्रमुख रासबिहारी बोस थे। तुलनात्मक रूप से आई.एन.ए. की प्रशंसनीय गति का कारण जापानियों का भारत के प्रति विशेष आदर भाव भी था, जो हिटलर या मुसोलिनी में बिलकुल नहीं था।
बहरहाल, जब हिटलर की सलाह पर सुभाष बाबू सिंगापुर पहुँचे तो उन्होंने आई.एन.ए. का नेतृत्व ग्रहण किया। उन्होंने आई.एन.ए. को ‘आजाद हिन्द फौज’ का नया नाम दिया। उसी के साथ उस में उस सेक्यूलरिज्म का प्रवेश हुआ, जो बर्लिन में ‘आजाद हिन्द’ में चलता रहा था। बल्कि आई.एन.ए. में बाकायदा भीतरघात करने की चाह में भी जिहादी तत्व जुड़े।