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आमदनी-खर्च का ब्यौरा भी आम भाषा में नहीं!

आमदनी-खर्च का ब्यौरा भी आम भाषा में नहीं!

आम जनता के लिए उसके आमदनी-खर्च का ब्यौरा क्यों आम भाषा में नहीं हो सकता है? क्या हमारे-आपके रोज़मर्रा का आमदनी-खर्च इसी भाषा में होता है? अर्थ के ज्ञानी कह सकते हैं कि दुनिया का बड़ा व्यापार क्योंकि इसी भाषा में चलता है इसलिए ग्लोबल होती दुनिया में हिंदुस्तान को भी वैश्विक होना होगा। आर्थिक भाषा और अर्थ की बोली का मतभेद बना ही रहने वाले है। लेकिन फिर वैश्विक होते इंडिया में हिंदुस्तान की आम जनता का क्या होगा?

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले दिनों अमृत काल को ध्यान में रखते हुए आम जनता के लिए बजट पेश किया। संसद के अपने बजट भाषण में आम आदमी के मन की बात निर्मला ने निर्भय निर्ममता से रख दी। वेहिकल रिप्लेसमेंट या पुरानी गाड़ियों को बदलने की नीति के तहत वो पॉल्यूटेड गाड़ियों को बदलने की बात कहना चाहती थीं। उनके मुंह से पॉल्यूटेड की जगह पोलिटिकल निकल गया। संसद के गंभीर बजट भाषण के बीच ठहाके की सहजता पसर गयी।

विपक्ष की ओर से जब हो-हल्ला मचा तो निर्मला सीतारमण ने कह भी दिया कि पोलिटिकल पर भी यह लागू हो सकता है। क्या यह देश की जनता की आवाज़ नहीं थी जो उसके ही सांसदों की संसद से निकली? क्या जनता को भी पॉल्यूटेड पोलिटिकल को रिप्लेस करने या बदलने का मन नहीं करता?

आप जानते ही हैं कि सरकार हर साल वित्तीय वर्ष के आमदनी-खर्च का ब्योरा जनता के लिए संसद में पेश करती है। और इसका जिम्मा सरकार के वित्त मंत्री पर ही आता है। अमृत काल की ओर अग्रसर देश में अभी भी आम जनता के आमदनी-खर्च का ब्योरा ऑक्सफर्डियन अंग्रेजी और किताबी हिंदी में ही दिया जाता है। सीतारमण के मनमुंख से इसीलिए पोलिटिकल का पॉल्यूटेड हुआ।

आम जनता का इससे लेना-देना उतना ही है जितना अपने लिए ऋषी सुनक का इंग्लैंड का प्रधानमंत्री होना। देश के मध्यवर्ग को ध्यान में रखने के लिए बनाया बजट देश के मध्यवर्ग को कितना समझ आया इसका कोई ब्योरा नहीं मिला। क्या अमृत काल की ओर अग्रसर अपने देश की आर्थिक भाषा भी यही होगी? सरकार के आमदनी-खर्च का हिसाब-किताब क्या इतना मुश्किल होता है?

आम जनता के लिए उसके आमदनी-खर्च का ब्योरा क्यों आम भाषा में नहीं हो सकता है? क्या हमारे-आपके रोज़मर्रा का आमदनी-खर्च इसी भाषा में होता है? अर्थ के ज्ञानी कह सकते हैं कि दुनिया का बड़ा व्यापार क्योंकि इसी भाषा में चलता है इसलिए ग्लोबल होती दुनिया में हिंदुस्तान को भी वैश्विक होना होगा। आर्थिक भाषा और अर्थ की बोली का मतभेद बना ही रहने वाले है। लेकिन फिर वैश्विक होते इंडिया में हिंदुस्तान की आम जनता का क्या होगा? क्या हिंदुस्तान की आम जनता विश्वगुरु बनने से वंचित रह जाएगी? पांच साल से निर्मला सीतारमण संसद में आमदनी-खर्च का ब्योरा देती आ रही हैं। इसी बार ही क्यों उनके मनमुंख से पोलिटिकल का पॉल्यूटेड निकला? क्या सीतारमण आम जनता को लगातार प्रदूषित होती राजनीति से आगाह करना चाहती है?

अमृत काल की प्रेरणा के लिए आम जनता के सामने सीतारमण ने सरकार द्वारा किए जाने वाले सात मुद्दे रखे। उन्हें सप्तश्रृषि नाम दिया। सुनने में प्रभावी लगने वाले प्रयोजन, करने में कितने सुगम रहेंगे यह तो आने वाला साल ही बताएगा। वित्त मंत्रालय के विदेश में आर्थिकी पढ़े सचिवालय के लोगों ने जो भाषा गढ़ी, या लिखी वही सीतारमण ने संसद में भाषित की। जिनका आम जनता से कोई नाता नहीं रहा है वे ही आम आदमी का आमदनी-खर्च बनाते आ रहे हैं। यही अमीर देश के गरीब लोगों का दुर्भाग्य रहा है।

जिस हिंदुस्तानी आर्थिकी को दुनिया की आर्थिकी का चमकता सितारा कहा जा रहा है उसमें क्या आम जनता के लिए ऐसी ही अमावस्या रहने वाली है? क्या यही पोलिटिकल का प्रदूशन है? या अमृत काल में आम जनता को अपनी सरकार के आमदनी-खर्च को समझने का अधिकार भी मिलेगा?

Published by संदीप जोशी

स्वतंत्र खेल लेखन। साथ ही राजनीति, समाज, समसामयिक विषयों पर भी नियमित लेखन। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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