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चन्द्रमा के स्वामी सोमनाथ

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ऐतिहासिक विवरणियों के अनुसार ईसा पूर्व में यहाँ एक भव्य मन्दिर में अस्तित्व में था, जिसे सातवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में ही इस्लामी आक्रमण के समय विधर्मियों ने क्षतिग्रस्त कर दिया, तो उसी स्थान पर दूसरी बार मन्दिर का पुनर्निर्माण सातवीं शताब्दी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया।सौराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उच्छंगराय नवलशंकर ढेबर ने 19 अप्रैल 1940 को यहाँ उत्खनन कराया था। इसके बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन द्वारा प्राप्त ब्रह्मशिला पर शिव का ज्योतिर्लिग स्थापित किया है। सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने 8 मई 1950 को मन्दिर की आधारशिला रखी। इन सबके प्रयासों से 11 मई 1951 को मन्दिर में ज्योतिर्लिग स्थापित कर प्राण प्रतिष्ठा की गई।

25 अप्रैल- सोमनाथ प्रतिष्ठा दिवस

भारत के महत्वपूर्ण मन्दिरों में से एक सोमनाथ मन्दिर गुजरात प्रदेश के सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल बन्दरगाह में स्थित अत्यन्त प्राचीन व ऐतिहासिक शिव मन्दिर है। सोमनाथ मन्दिर भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में मान्य व पूज्य है। भारत के इस अत्यंत प्राचीन मन्दिर का सम्बन्ध चन्द्रदेव से है। ऐसी मान्यता है कि समुद्र किनारे स्थित सोमनाथ मन्दिर का निर्माण चार चरणों में किया गया। सर्वप्रथम मन्दिर की प्रारम्भिक संरचना सोने से स्वयं चन्द्रदेव द्वारा बनवाई गई थी। बाद में चाँदी से रावण, चन्दन लकड़ी से भगवान श्रीकृष्ण और पत्थर से राजा भीमदेव द्वारा किया गया था। कुछ पुराणों में चाँदी से मन्दिर निर्माण सूर्यदेव के द्वारा किये जाने की बात कही गई है। सोमनाथ दो शब्दों के योग से बना है, जिसमें सोम का अर्थ है- चंद्रमा और नाथ का अर्थ है – स्वामी। अर्थात चंद्रमा के स्वामी। चंद्रमा के आराध्य। सोमनाथ चंद्रमा के स्वामी हैं, ऐसे स्वामी जिन्होंने अपने सेवक चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर रखा है।

स्कन्द पुराण, श्रीमद भागवत पुराण और शिव पुराण आदि पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार सोमनाथ भारत के प्राचीनतम तीर्थों में से एक है। द्वादश ज्योतिर्लिग में प्रथम सोमनाथ का निर्माण स्वयं चन्द्रदेव ने किया था। इस स्थान पर चंद्रमा को भगवान सोमनाथ की आराधना के बाद उनके ससुर दक्ष प्रजापति के शाप से मुक्ति मिली है। इस स्थान से संबंधित चंद्रमा के देवता सोम के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सोम अर्थात चन्द्र ने  राजा दक्ष प्रजापति की सताईस कन्याओं से विवाह किया था, लेकिन उनमें से रोहिणी नामक अपनी पत्नी को अधिक प्यार व सम्मान दिया करता था। इसे अपनी शेष पुत्रियों के साथ अन्याय समझकर दक्ष ने क्रोध में आकर चन्द्रदेव को शाप दे दिया कि अब से हर दिन तुम्हारा तेज अर्थात कान्ति (चमक) क्षीण होता रहेगा। शाप के फलस्वरूप हर दूसरे दिन चन्द्र का तेज घटने लगा। शाप से विचलित और दु:खी सोम ने भगवान शिव की आराधना शुरू कर दी।

अन्ततः शिव प्रसन्न हुए और सोम अर्थात चन्द्र के शाप का निवारण कर दिया। सोम के कष्ट को दूर करने वाले प्रभु शिव का स्थापन यहाँ किया गया और उनका नामकरण सोमनाथ हुआ। कुछ पुराणों में चन्द्रदेव के शाप का निवारण इस स्थल पर उस समय प्रवाहित सरस्वती नदी में स्नान करने से होने की कथांकित है। कथानुसार चंद्रमा के देवता सोम को किसी के द्वारा शाप दिया गया था। जिसके कारण चंद्रमा के देवता ने अपना तेज खो दिया। जिसके बाद उन्हें बताया गया कि यदि वे सरस्वती नदी में स्नान करेंगे, तो उन्हें अपनी चमक वापस मिल जाएगी। फिर उन्होंने सरस्वती नदी में स्नान किया और अपनी चमक को पुनः प्राप्त किया। इसलिए सरस्वती तट पर चन्द्रदेव ने सोमनाथ का मन्दिर का निर्माण कराया।

ऐसी मान्यता है कि प्रसिद्ध स्यमंतक मणि शिवलिंग के खोखलेपन के भीतर सोमनाथ मन्दिर  में सुरक्षित रूप से छिपा हुआ है। यह मणि भगवान श्रीकृष्ण और सत्यभामा से जुड़ा है। इस पत्थर में सोना पैदा करने की क्षमता है, और इसमें कीमिया और रेडियोधर्मी गुण हैं, जो इसके जमीन के ऊपर तैरने का कारण है। एक अन्य पौराणिक कथानुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इसी स्थल पर अपनी लीला समाप्त कर स्वर्ग गमन किया। श्रीकृष्ण भालुका तीर्थ पर विश्राम कर रहे थे। तब एक शिकारी ने उनके पैर के तलुए में पद्मचिह्न को हिरण की आँख जानकर अनजाने में तीर मार दिया। तब इसी स्थान पर श्रीकृष्ण ने देह त्याग कर यहीं से वैकुण्ठ गमन किया। इस स्थान पर वर्तमान में एक श्रीकृष्ण मन्दिर बना हुआ है। इसे देहोत्सर्ग तीर्थ कहा जाता है, और यह हिरण्या नदी के तट पर स्थित तथा सोमनाथ मंदिर से 1.5 किमी दूर है। वर्तमान में यह स्थान भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य जीवन यात्रा के अंतिम दर्शन के कारण तीर्थ बन गया है।

शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव ने कहा है- मैं भले ही हमेशा हर स्थल पर मौजूद रहता हूँ,  लेकिन बारह स्थानों पर ज्योतिर्लिग के रूप में विशेष रूप से रहूँगा, जिनमें से सोमनाथ एक स्थल होगा और वह इन बारह ज्योतिर्लिगों में सर्वप्रथम होगा। स्कंद पुराण के अनुसार इस संसार के प्रलय होने के बाद प्रत्येक पुनर्सृष्टि होने के समय सोमनाथ मन्दिर का नाम परिवर्तित हो जायेगा। ऐसी मान्यता है कि वर्तमान सृष्टि के प्रलय के बाद ब्रह्मा के नई सृष्टि करने के बाद इस मन्दिर का नाम प्राण नाथ संज्ञा प्राप्त होगा। यह तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए भी प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्रपद, कार्तिक माह में यहाँ श्राद्ध करने का विशेष महत्त्व बताया गया है। इसलिए इन तीन महीनों में यहाँ श्रद्धालुओं की बड़ी भीड़ लगती है। यहाँ तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्त्व है।

उल्लेखनीय है कि अध्यात्म में सर्वश्रेष्ठ स्थान रखने वाले विश्व प्रसिद्ध धार्मिक व पर्यटन स्थल सोमनाथ के इस पवित्र मन्दिर को इतिहास की क्रूरता का बार- बार शिकार होना पड़ा है। मन्दिर की वैभव व कीर्ति की गाथा मन्दिर के लिए त्रासदी बन गई। हिन्दू धर्म के उत्थान-पतन के इतिहास का प्रतीक सोमनाथ मन्दिर प्राचीन काल से ही अत्यन्त समृद्ध व वैभवशाली होने के कारण इतिहास में सत्रह बार तोड़ा तथा पुनर्निर्मित किया गया। मन्दिर की प्रसिद्धि व उसकी सम्पन्नता को सुनकर विधर्मियों ने इसे लूटकर नष्ट- भ्रष्ट करने का बारम्बार प्रयत्न किया, लेकिन सनातनियों ने इसे पुनः पूर्ववत बनाये रखने की हरसम्भव प्रयास की। ऐतिहासिक विवरणियों के अनुसार ईसा पूर्व में यहाँ एक भव्य मन्दिर में अस्तित्व में था, जिसे सातवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में ही इस्लामी आक्रमण के समय विधर्मियों ने क्षतिग्रस्त कर दिया, तो उसी स्थान पर दूसरी बार मन्दिर का पुनर्निर्माण सातवीं शताब्दी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया। जिसकी वैभव और भारत में प्रतिष्ठा को देखकर आठवीं शताब्दी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी।

सेना ने मन्दिर को लूटकर उसे क्षतिग्रस्त कर दिया। गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया। इस मन्दिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी। अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इस महिमा और कीर्ति का विवरण लिखा। जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन 1024 में करीब पांच हजार लूटेरे साथियों के साथ सोमनाथ मन्दिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। मन्दिर की रक्षा के लिए लगभग पचास हजार लोग मन्दिर के अन्दर हाथ जोड़कर पूजा अर्चना कर रहे थे, और बाहर भी हाथ में अस्त्र धारण कर नहीं बल्कि मन्दिर के दीवार से हजारों लोग चिपक कर मन्दिर की रक्षा में संलग्न थे, प्रायः सभी कत्ल कर दिये गये। इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। यह मंदिर 1296 में खिलजी की सेना, 1375 में मुजफ्फर शाह, 1451 में महमूद बेगड़ा और 1665 में औरंगजेब के हाथों नष्ट हो गया था। लेकिन फिर भी हर बार इस मंदिर का पुनः निर्माण करवाया गया। मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया।

इसी प्रकार विभिन्न आक्रमणकारियों ने समय-समय पर सोमनाथ मन्दिर को नष्ट कर इसके अतुल्य धन को लूटा। राजा कुमार पाल द्वारा इसी स्थान पर अन्तिम मन्दिर बनवाया गया था। वर्तमान मन्दिर के पुनर्निर्माण का आरम्भ स्वाधीनता के पश्चात तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने करवाया। मन्दिर को पुराने स्वरूप में लाने में वल्लभ भाई पटेल और सौराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री उच्छंगराय नवल शंकर ढेबर की भी अहम भूमिका रही।

सौराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उच्छंगराय नवलशंकर ढेबर ने 19 अप्रैल 1940 को यहाँ उत्खनन कराया था। इसके बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन द्वारा प्राप्त ब्रह्मशिला पर शिव का ज्योतिर्लिग स्थापित किया है। सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने 8 मई 1950 को मन्दिर की आधारशिला रखी। इन सबके प्रयासों से 11 मई 1951 को मन्दिर में ज्योतिर्लिग स्थापित कर प्राण प्रतिष्ठा की गई। और सोमनाथ मंदिर की भव्यता को वापस लाते हुए प्रथम दिसम्बर 1955 को भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया। वर्तमान में प्रतिवर्ष बैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को सोमनाथ प्रतिष्ठा दिवस का आयोजन होता है। इस दिन स्थल पर भांति- भांति के आयोजनों के मध्य सोमनाथ मन्दिर में शिव पूजा, अर्चना के साथ ही सोमनाथ की महिमागान की जाती है।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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