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मुख्यमंत्री-राज्यपाल विवाद: संवैधानिक हस्तियों के बीच टकराव कितना सही…?

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भोपाल। भारत की आजादी के बाद लगभग दो दशक तक देश में कहीं भी मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच किसी तरह का विवाद पैदा नहीं हुआ था, उसका मुख्य कारण यह था कि राज्यपालों की नियुक्तियां राजनीतिक आधार पर नहीं, बल्कि व्यक्तित्व के गुणों व योग्यता के आधार पर की जाती थी, किंतु उसके बाद जब से राज्यपालों की नियुक्ति में राजनीति संबंधित शख्स की विचारधारा और सत्तारूढ़ केंद्र के राजनीतिक दल को लाभ पहुंचाने की कसौटी पर मूल्यांकन होने लगा तब से इस महत्वपूर्ण संवैधानिक पद की गरिमा को काफी ठेस पहुंची है, आज देश के एक दर्जन से अधिक राज्यों में राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री के बीच तकरार की खबरें सुर्खियों में रहती है, विशेषकर उन राज्यों में जहां गैर भाजपा सरकारें कार्यरत है, वहां सरकार विधानसभा से जो भी विधेयक पारित करवाकर राज्यपाल की मंजूरी हेतु भेजती है, राज्यपाल उन्हें लंबी अवधि तक ठंडे बस्ते में डालकर रख देते हैं, जिससे राज्य सरकार कई महत्वपूर्ण जनहितैषी योजनाओं को मूर्त रूप नहीं दे पा रही है।

पिछली शताब्दी के सातवें दशक तक केंद्र सरकार देश के विभिन्न क्षेत्रों में काफी ख्याति प्राप्त करने वाले लेखकों, साहित्यकारों, विद्वानों या वरिष्ठ राजनेताओं को राज्यपालों के पद पर नियुक्त करती थी, उस दौरान क्योंकि राज्यपालों का किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा से कोई संबंध नहीं होता था, इसलिए सब कुछ नियम कानून की परिधि में होता था, किंतु जब से राज्यपाल पदों पर नियुक्ति के समय संबंधित शख्स की राजनीतिक आस्था का परीक्षण किया जाने लगा, तब से संविधान, नियम, कानून सभी गौंण हो गए और राज्यपाल अपने केंद्रीय आकाओं की कठपुतली बन कर रह गए। आज देश के अधिकांश राज्यों में यही स्थिति है और गैर भाजपा की सरकारों व संबंधित प्रदेशों के राज्यपालों के बीच तनातनी का भी यही मुख्य कारण हैं, अब यह प्रक्रिया चरम पर पहुंचने लगी है।

आमतौर पर राज्यपाल व मुख्यमंत्री के बीच विवाद की शुरुआत 1967 से हुई 1967 के चुनाव के बाद दक्षिणी राज्य तमिलनाडु से इसकी शुरुआत हुई, जब वहां की जनता ने देश में पहली बार क्षेत्रीय दल डी.एम.के. को सत्ता सौंपी श्री अन्ना दोरई मुख्यमंत्री चुने गए जिनका 1969 में निधन हो गया, उनके बाद एमके करुणानिधि ने सत्ता की बागडोर संभाली उन्होंने राज्यपालों द्वारा विधायकों को रोके जाने की प्रक्रिया का जमकर विरोध किया, इसके बाद से मुख्यमंत्री जयललिता व तत्कालीन राज्यपाल चेन्ना रेड्डी के बीच विवाद की शुरुआत हुई, इसी के चलते जयललिता ने केंद्र में विराजित पी वी नरसिंहराव सरकार को दिया जा रहा समर्थन वापस ले लिया था, उसके बाद केंद्र ने कांग्रेस नेता चेन्नारेड्डी को तमिलनाडु का राज्यपाल बना कर भेज दिया, जयललिता समर्थकों ने चेन्नारेड्डी के काफिले पर पथराव किया था, जिससे राज्यपाल-मुख्यमंत्री के बीच कटुता और अधिक बढ़ गई थी। ….और पिछले 3 दशक से तमिलनाडु ही देश में राज्यपाल मुख्यमंत्री के बीच विवाद का नेतृत्व कर रहा है।

तमिलनाडु की ही विधानसभा ने पिछले दिनों एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में राज्यपालों के लिए समय सीमा तय करने का अनुरोध किया गया है। यह तो सिर्फ एक गैर हिंदी राज्य का मामला है, वैसे आज स्थिति यह है कि जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, जिनमें मध्यप्रदेश भी शामिल है वहां राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच कोई विवाद नहीं है, किंतु छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली जैसे गैर भाजपा की सरकारों वाले राज्यों में मुख्यमंत्री व राज्यपाल के बीच विवादों का दौर चरम पर है, दिल्ली तो उसका नेतृत्व कर रहा है, जहां दोनों संवैधानिक हस्तियों के बीच छोटी-छोटी बातों पर गहरा विवाद है। अब यहां सवाल यह पैदा होता है कि इसमें उस बेचारी जनता का क्या दोष जो इन संवैधानिक हस्तियों के बीच विवाद का खामियाजा भुगत रही है? किंतु इसकी चिंता ना तो केंद्र को है और ना ही राज्यपालों या मुख्यमंत्रियों को आज का सबसे सफल व योग्य राज्यपाल तो वही माना जाता है, जो केंद्र के इशारे पर ही पूरे काम करें? फिर चाहे राज्य व वहां की जनता कहीं भी जाए? सबसे बड़ी चिंता का विषय यही है कि जब संवैधानिक प्रमुखों कि यह स्थिति होगी तो विधान, कानून और संविधान की उपयोगिता क्या रह जाएगी?

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