बेबाक विचार

मिशनरी छल के नए रूप

Byशंकर शरण,
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मिशनरी छल के नए रूप
किसी पार्टी का वर्चस्व हो, भारत के विभिन्न हिस्सों में मिशनरी-तंत्र निःशब्द फैल रहा है। छल-प्रपंच के सिवा अपने स्कूल, कॉलेज, नर्सिंग ट्रेनिंग कॉलेज, आदि संस्थाओं में प्रवेश देने, या फीस माफ कर देने के एवज में भी धर्मांतरण कराया जाता है। चूँकि यहाँ अब लगभग सभी चर्च-मिशनरी भारतीय ही हैं, इसलिए वे हमारे देसी मुहावरों, दलीलों, प्रपंचों का इस्तेमाल करते हैं। भारतीय नेताओं की सर्व-समावेशी, धर्म-अधर्म-सम-भाव वाली समरसताउन्हें और बल देती है। christian missionaries conversion Hindu तब झारखंड राज्य नया-नया बना था। पंचानन मुर्मू के पैर खराब थे, वह चल नहीं पाता था। उसे एक चर्च-मिशनरी ने कहा कि यदि वह जीसस वाला क्रॉस पहने तो ठीक हो जाएगा। उस ने पहनना आरंभ कर दिया। काफी समय बीत गया, पर कुछ अंतर न पड़ा। तब मिशनरी ने कहा कि रोग ताकतवर है। इसलिए, उसे सपरिवार कथा भी सुननीचाहिए। जीसस-मेरी और बाइबिल की कथाएं। पंचानन ने वह भी किया। किन्तु फल न दिखा। फिर मिशनरी ने कहा कि उस के घर में बुरी छायाएंबैठी है। अतः उसे अपने घर से हनुमान, शिव, काली, आदि के चित्र हटा देने होंगे। बदले में उसे जीसस और मेरी की मूर्ति लगानी चाहिए। किसी ने मिशनरी से पूछा कि आप पंचानन से यह सब क्यों करवा रहे हैं? उत्तर मिला कि दूध तो दूध होता है, गुणकारी। वह गाय का है या भैंस का, इस से क्या अंतर पड़ता है? सो किसी ने यदि शिव के बदले जीसस, और काली के बदले मेरी का चित्र घर में लगा लिया तो कोई विशेष बात नहीं। इस बीच, उन्होंने पंचानन को समझाया कि वह श्रद्धा बनाए रखे तो अंततः ठीक हो जाएगा। मिशनरी ने उस के परिवार के किसी व्यक्ति की कुछ अन्य मदद भी की। एक अन्य उदाहरण बोकारो के पास ढोरी माता का मंदिरहै। जहाँ झारखंड के वनवासी लोग देवी-पूजा करते रहे हैं। किसी विधि वहाँ जीसस की माता मेरी की प्रतिमा लग गई है। समय के साथ ढोरी माता मेरी में बदल जा सकती हैं। कुछ समय और बीत जाने पर ढोरी नाम लुप्त हो जाएगा। ऐसा भारत के उत्तर-पूर्व से लेकर अफ्रीका तक असंख्य बार हो चुका है। यहाँ पंचानन मुर्मू और ढोरी माता का मंदिर उदाहरण भर हैं। पूरे देश में ऐसी घटनाएं अनवरत घट रही हैं। christian missionaries conversion Hindu

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यदि इन गतिविधियों पर कोई हिन्दू आपत्ति करे, तो अल्पसंख्यक अधिकारों की चिन्ता करने वाला राज्य-तंत्र मुस्तैदी से उसे चुप कराता है। अफसरों को मालूम है कि यदि चर्च-तंत्र का ऊपरी लोग शिकायत करेंगे तो राज्य-तंत्र के ऊपरी लोग अफसरों को ही डाँटेंगे, कि ऐसी शिकायतें क्य़ों सुनने में आ रही हैं? लिहाजा, वे उसी को दबाते हैं जिसे बेफिक्र दबा सकते हैं। रह गए राष्ट्रवादीनामधारी संगठन, तो उन की कथनी-करनी और माशा-अल्लाह है। कोई चिन्तित हिन्दू जब उन से संपर्क करता है कि फलाँ जगह मिशनरी लोग हिन्दुओं को बरगला/डरा रहे हैं, तो अधिकांश किसी न किसी बहाने निष्क्रिय रहते हैं। या तो वचन देकर मौके पर नहीं पहुँचते। या, आवश्यक कार्य व्यस्तता बताते हैं। अथवा, उलटे फटकारते हैं कि प्रतिकार करना आम हिन्दुओं का काम है। यदि वे सोए रहेंगे, तो कोई अन्य क्या करे! यदि उन की इस प्रवृत्ति पर संदेह हो, तो गत बीसियों वर्षों में मिशनरियों को लेकर हुए विवाद, या झगड़ों के समाचार छान कर देखें। उस में शामिल, या गिरफ्तार हिन्दुओं में प्रायः स्थानीय स्वतंत्र व्यक्तियों या संस्थाओं का नाम मिलेगा। बड़े राष्ट्रवादी संगठनों का कोई नेता-कार्यकर्ता उन समाचारों या गिरफ्तार लोगों में शायद ही मिले। इस का दूसरा पहलू यह है कि यदि किसी संघर्ष में मिशनरियों को पीछे हटना पड़े। छलपूर्वक बनाया गया कोई चर्च यदि बंद हो जाय, तो राष्ट्रवादी संगठनों के स्थानीय कारकुन किसी न किसी बहाने उस में अपना नाम या फोटो में शामिल होने की जुगत भिड़ाते हैं। एक तीसरा पहलू भी है। धनबाद में एक डॉक्टर गुटगुटिया थे। वे एक बड़े राष्ट्रवादी संगठन से जुड़े थे। मिशनरियों के एक अस्पताल में वे कोढ़ रोगियों का मुफ्त ऑपरेशन किया करते थे। जिन मरीजों का इलाज सफल होता, उन्हें मिशनरी लोग जीसस का चमत्कारबताकर धर्मांतरित करा लिया करते थे। जब किसी हिन्दू ने डॉक्टर गुटगुटिया को ऐसी सेवा देने से मना किया, तो उन्होंने कहा कि ‘‘मैं अपना धर्म कर रहा हूँ, और मिशनरी अपना कर रहे हैं। इस में क्या कर सकता हूँ!’’ अपने को हिन्दुओं का संगठनकर्ता कहने वालों का यदि यह हाल है, तब मिशनरियों की आसानी के क्या कहने! christian missionaries conversion Hindu अर्थात्, सेवा-चिकित्सा की आड़ में हिन्दुओं को क्रिश्चिय़न बनाने का धंधा मजे से चलता है। राष्ट्रवादियों के राज में, और उन के सहयोग से। यह केवल झारखंड की बात नहीं। पंजाब, बिहार या गुजरात में भी वे बेखटके अपना जाल फैला रहे हैं। बल्कि, किसी-किसी भाजपा-शासित राज्य में मिशनरियों का काम अधिक सुगमता से चलता है! पहले उन्हें हिन्दू प्रतिरोध झेलना पड़ता था। अब प्रतिरोध को लगाम में रखने का काम राष्ट्रवादी सत्ताधारियों ने उठा लिया, ताकि उन की छवि सुंदर बने। उन्हें अल्पसंख्यक-विरोधीहोने का ताना न सुनना पड़े! उन की इस कमजोरी का फायदा मिशनरी और इस्लामी नेता उठाते हैं। विकासऔर सहयोगके नाम पर उन से ऐसे-ऐसे काम करा लेना जो दूसरों से कराना दुष्कर होता। इस तरह, किसी पार्टी का वर्चस्व हो, भारत के विभिन्न हिस्सों में मिशनरी-तंत्र निःशब्द फैल रहा है। छल-प्रपंच के सिवा अपने स्कूल, कॉलेज, नर्सिंग ट्रेनिंग कॉलेज, आदि संस्थाओं में प्रवेश देने, या फीस माफ कर देने के एवज में भी धर्मांतरण कराया जाता है। चूँकि यहाँ अब लगभग सभी चर्च-मिशनरी भारतीय ही हैं, इसलिए वे हमारे देसी मुहावरों, दलीलों, प्रपंचों का इस्तेमाल करते हैं। भारतीय नेताओं की सर्व-समावेशी, धर्म-अधर्म-सम-भाव वाली समरसताउन्हें और बल देती है। सभी धर्मों में एक ही सत्य है’, ‘सभी भारतीय हिन्दू हैं’, और पूजा-पद्धति की भिन्नता से कुछ अंतर नहीं पड़ता’, आदि दावे सुनकर मिशनरी-तंत्र को रहा-सहा खटका भी जाता रहता है। वे हिन्दू नेताओं का हवाला देकर ही प्रतिकारी हिन्दुओं को चुप कराते हैं।  यह सब देश के किसी भी क्षेत्र में आकलन करके देखा जा सकता है। लेकिन मध्य प्रदेश में कांग्रेसी शासन द्वारा बनाए गए जस्टिस नियोगी समिति (1956) के बाद आज तक किसी ने चर्च-मिशनरी तंत्र की गतिविधियों की जाँच करने के लिए कोई समिति तक नहीं बनाई। गत चार दशकों से राष्ट्रवादीलोग भी किसी न किसी राज्य में और दो-तीन बार केंद्रीय सत्ताधारी भी रहे हैं। उन्होंने मिशनरियों के अवैध, हिन्दू-नाशी कामों पर कोई दस्तावेज भी जारी नहीं किया। कोई कार्रवाई तो दूर रही। बावजूद इस के कि गुजरात, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर-पूर्वी राज्यों, आदि से समय-समय पर उपद्रव और घातक गतिविधियों के समाचार आते रहे हैं। परन्तु राजकीय नेताओं की उदासीनता, और जाने-अनजाने सहयोग के बल पर मिशनरी छल के नए-नए रूप देश भर में बढ़ रहे हैं। इस तरह, हिन्दू समाज दोहरी चोट खा रहा है। घोषित शत्रुओं से, और स्वघोषित मित्रों से भी। यही आज का सच है।
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