आज यह स्थिति है कि सिविल सोसायटी के नाम पर कुछ लोग एक बैठक बुलाते हैं। जिसमें राहुल को आमंत्रित किया जाता है। और वे जाते हैं। तथा उन्हें वहां सुनाया जाता है कि कांग्रेस ने अतीत में क्या क्या गलतियां कीं! यहां तक 8 साल में जिस दौरान अकेले राहुल ही संघर्ष करते रहे यह बताया जाता है कि इस दौर में कांग्रेस और राहुल ने क्या गलतियां कीं! और कहा जाता है कि इनके लिए कांग्रेस और राहुल माफी मांगे।
राहुल गांधी की यात्रा
आड़ की जरूरत उन्हें होती है जो खुद सामने आने से डरते हैं। राहुल गांधी तो किसी से नहीं डरते। तब उन्हें इन सिविल सोसायटी वाले भ्रमित लोगों को सामने लाने की क्या जरूरत?
आरएसएस और भाजपा 2011 में अन्ना हजारे को सामले लाई थी। और उनकी आड़ में पूरा कांग्रेस विरोधी आंदोलन चलाया। सामने खुद आरएसएस नहीं थी इसलिए लेफ्ट ने भी अन्ना के आंदोलन का खूब साथ दिया। समाजवादी तो थे ही। वे संघ के सामने आने पर भी साथ देते। 1974 में शुरू हुए छात्र आंदोलन का जब खुलकर संघ और जनसंघ साथ दे रहे थे, समाजवादी जयप्रकाश नारायण उसके साथ आए। और घोषणा कर दी कि संघ और जनसंघ साम्प्रदायिक नहीं है। बात को वज़न देने के लिए साथ ही यह भी कह दिया कि अगर वे साम्प्रदायिक हैं तो मैं भी हूं।
और इससे भी पहले इन सबके वैचारिक नेता राममनोहर लोहिया ने अपने अंध नेहरू विरोध के चलते गैर- कांग्रेसवाद का नारा दिया था। जिसके तहत वे जनसंघ से मिलकर 1967 के विधान सभा चुनाव लड़े थे। और मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार सहित अन्य राज्यों में संविद ( संयुक्त विधायक दल) सरकारे बनाई थीं। उसी के बाद से जनसंघ का जनाधार बढ़ना शुरु हुआ। और 1977 में उसने इन्हीं सहयोगी दलों के साथ मिलकर केन्द्र में पहली गैर कांग्रेस। सरकार बनाने में सफलता पा ली थी।
भाजपा और संघ के लिए 2019 वह पहला चुनाव था जब उसे किसी सहारे, आड़ कॉ जरूरत नहीं पड़ी और उसने अपने नाम पर चुनाव जीता। नहीं तो उससे पहले का 2014 का चुनाव अन्ना हजारे और उनका समर्थन करने वाले लेफ्ट, समाजवादियों, सिविल सोसायटी वालों की मदद से जीता। ऐसे ही उससे पहले के चुनाव चाहे वह वीपी सिंह का 1989 का चुनाव हो या उससे पहले 1977, 1967 के चुनाव सब उसने कथित लिबरल, लेफ्ट, समाजवादी, जातिवादियों को सामने रखकर जीते।
लेकिन कांग्रेस भाजपा नहीं है। उसके पास आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने का गौरवशाली इतिहास है। आजादी के बाद भारत का नव निर्माण करने की चमत्कारों जैसी कहानियां हैं। इन्दिरा गांधी के दुनिया का भुगोल बदल देने की शौर्य कथा है। एक महाकाव्य में जो कुछ भी चाहिए वह सब कांग्रेस के पास है। बस कमी इतनी है कि इन्हें सुनाने, बताने या यह भी कह सकते हैं कि समझने की योग्यता रखने वाले लोगों की कमी है। खुद कांग्रेस के बड़े नेता जिनमें राहुल भी शामिल हैं कई बार यह कह चुके हैं कि हम 2004 से 2014 तक के अपने कामों का प्रचार नहीं कर पाए। मगर क्यों? इस पर कोई विचार नहीं करते।
और आज यह स्थिति है कि सिविल सोसायटी के नाम पर कुछ लोग एक बैठक बुलाते हैं। जिसमें राहुल को आमंत्रित किया जाता है। और वे जाते हैं। तथा उन्हें वहां सुनाया जाता है कि कांग्रेस ने अतीत में क्या क्या गलतियां कीं! यहां तक 8 साल में जिस दौरान अकेले राहुल ही संघर्ष करते रहे यह बताया जाता है कि इस दौर में कांग्रेस और राहुल ने क्या गलतियां कीं! और कहा जाता है कि इनके लिए कांग्रेस और राहुल माफी मांगे।
पूरा सीन इस तरह क्रिएट किया जाता है जैसे कांग्रेस को इन थके हुए, भ्रमित और अवसरवादी लोगों की जरूरत हो। पूरा प्रोग्राम हो गया। भारत जोड़ो यात्रा के संयोजक दिग्विजय सिंह, कांग्रेस के महासचिव इंचार्ज कम्यूनिकेशन जयराम रमेश और राहुल गांधी से दिन भर सवाल जवाब हो गए उसके बाद बैठक में शामिल लोग कहते हैं कि हम तय करेंगे कि इसमें शामिल हों या नहीं।
अरे भाई अगर साथ नहीं देना था तो दिन भर की इस कवायद का क्या मतलब? यह तोमोहल्ला सुधार समिति की मीटिंग का तरह हो गई कि जिनमें केवल बातें ही बातें होती है और दूसरों पर दोष डाला जाता रहता है। और मजेदार यह कि एक लंबी बहस इस पर हुई कि यात्रा के साथ इनवाल्व हो या इंगेज। यह भी कहा कि यात्रा कांग्रेस की क्यों? हम सब की क्यों नहीं? अब कांग्रेसी तो कई मामलों में जरूरत से ज्यादा शरीफ होते हैं वे तो कह नहीं सकते थे कि भइया आप लोग तो सब शामिल थे ही अन्ना आंदोलन में। आप ही का तो आंदोलन था। और अगर इन आठ सालों में आप को कुछ गलत लगा, समस्या हुई तो आपने क्यों नहीं कोई आंदोलन किया?
अन्ना जिस को इतना बड़ा गांधीवादी कहते थे, उसे क्यों नहीं पकड़ कर लाते? कांग्रेसी तो यह भी नहीं पूछते कि जब बैठक में योगेन्द्र यादव, राहुल से कह रहे थे कि, राहुल लड़ो, जान की बाजी लगा दो, तो क्या राहुल ने इन सालों में जान की बाजी लगाने में कोई कसर छोड़ी है। उनकी और सोनिया गांधी, प्रियंका की एसपीजी सुरक्षा वापल ले ली। हाथरस जाते हुए राहुल को धक्के मारकर गिरा दिया। किसानों को रौंदने के विरोध में लखीमपुर खीरी गई प्रियंका गिरफ्तार हुईं। और यह कहने वाले कि राहुल लड़ो खुद लखीमपुर में कहां गए? भाजपा कार्यकर्ताओं के घर। उनके साथ संवेदना प्रकट करने। बीच किसान आंदोलन में उसे तोड़ने की कोशिश। किसान संगठनों ने योगेन्द्र यादव को अपने समूह में निष्कासित कर दिया था। यह बैठक उन्होंने ही बुलाई थी।
मीडिया सहित बहुत सारे लोगों को यह इम्प्रेशन है कि सोमवार को कान्स्टिट्युट क्लब में हुई बैठक कांग्रेस की थी। यह गलत है। कांग्रेस के नेता निमंत्रित थे। अतिथि। और अतिथियों से माफी मांगने को कहा जा रहा था।
नई परंपरा। अतिथि देवो भव से अतिथि माफी मांगो तक!
खैर राहुल पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। वे मजबूत आदमी भी हैं और जरूरत से ज्यादा ऐसे लोगों के प्रति उदार भी। मगर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर फर्क पड़ता है। जब वे देखते हैं कि उनके नेता ऐसे दोहरे चरित्र के, किसी काम के नहीं, केवल मीडिया के जरिए अपना भोकाल बनाने वाले लोगों के साथ पूरा दिन बिता देते हैं तो उनका मनोबल टूटता है। वे जानते है कि उस बैठक में आए सौ, सवा सौ लोगों में से एक ऐसा नहीं है जो कांग्रेस को वोट देता हो। सब न केवल कांग्रेस विरोधी, बल्कि देश और दुनिया की सभी समस्याओं के लिए नेहरू को दोषी मानने वाले लोग हैं।
मगर ये यात्रा के साथ होंगे। शुरू में। देखेंगे कैसी सफलता मिल रही है। इन्हें पूरा प्रचार मिल रहा है कि नहीं। बीच बीच में हरकत भी करेंगे। कांग्रेस पर सवाल भी उठाएंगे। भाजपा की अप्रत्यक्ष मदद भी करेंगे। इन लोगों के पास आजकल कोई काम नहीं है। बात जन आंदोलनों की करते हैं । मगर जनता से कभी जुड़े नहीं रहे हैं। प्रचार के सहारे ही यह लोग अपनी दुकान चलाते हैं। राहुल का साथ देना इनकी मजबूरी है। और कोई इन्हें पूछ नहीं रहा है। मगर सवाल यह है कि कांग्रेस की क्या मजबूरी है?
राहुल यात्रा को लीड करने वाले। दिग्विजय सिंह और जयराम रमेश जैसे रणनीतिक कुशल यात्रा की व्यवस्था करने वाले। देश के हजारों कांग्रेसी कार्यकर्ता उत्सुकता से उसकी प्रतिक्षा करते हुए। और महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी से परेशान जनता इस उम्मीद में कि कोई उसकी बात सुनने आए, जैसी स्थिति में कांग्रेस को किसी बाहरी और भ्रम फैलाने वाली ताकत की जरूरत कहां है? खास तौर पर उनकी तो बिल्कुल नहीं जिन्होंने कहा था कांग्रेस मर क्यों नहीं जाती? जी हां 2019 में यादव जी ने यही कहा था।यात्रा राजनीतिक है। इस साल हिमाचल और गुजरात के चुनाव जीतने के लिए है।
अगल साल कई राज्यों के विधानसभा चुनावों का माहौल बनाने के लिए है। और फाइनली 2024 में दम से मुकाबला करने के लिए हैं। इसे लेकर कोई संशय नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र में सब कुछ राजनीतिक होता है। बाकी जो कहता है वह ढोंग होता है।और यह ढोंग, प्रतीकात्मकता, आड़ लेना भाजपा जैसी दक्षिणपंथी, यथास्थितिवादी पार्टी को सूट करता हैं। कांग्रेस जैसी मध्यमार्गी या गरीब की, कमजोर की तरफ झुकी पार्टी को नहीं। उसे तो स्पष्ट, पारदर्शी ही होनाहोगा।