
कोई रंजीत प्रताप नारायण सिंह जाता है, उसे जाने दीजिए। कोई हेमानंद बिस्वाल जाता है, उसे जाने दीजिए। कोई जितिन प्रसाद जाता है, उसे जाने दीजिए। कोई रीता बहुगुणा जाती है, उन्हें जाने दीजिए। कोई ज्योतिरादित्य सिंधिया जाते हैं, उन्हें भी, चलिए, जाने दीजिए। जाते-जाते वे सारे लोग जो कुछ भी कहते हैं, उसका कुछ-न-कुछ विलोम-तर्क तो बुद्धि-विलासी तलाश ही लेंगे। मगर क्या ये तात्कालिकताएं किसी भी राजनीतिक संगठन को समाधान के दीर्घकालीन शांतिवन तक ले जा सकती हैं? Congress party political crisis
जब राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को ही इससे कोई लेना-देना नहीं है कि कांग्रेस छोड़ कर कोई क्यों जा रहा है, कहां जा रहा है और विचारधारा की उलटबांसी की डाल पर लटका झूला झूलने तो क्यों ही जा रहा है तो हम और आप इसकी चिंता में क्यों घुले जाएं? हम-आप घुल-घुल कर घुल भी जाएं तो आख़िर कर क्या लेंगे? लेकिन चूंकि हम कर कुछ नहीं सकते तो क्या फ़िक्रमंद होने का अपना हक़ भी राहुल-प्रियंका की ताक पर रख दें? सो, समरथों के आगे अपनी असहायता पर झींकते हुए भी हम घुलेंगे और गर्व से घुलेंगे।
साढ़े सात साल से क्या हम ने नरेंद्र भाई मोदी की करतूतों पर चिंता करना इसलिए छोड़ दिया कि मोशा-धमक के सामने हम कर क्या लेंगे? और, सचमुच इन 92 महीनों में हम ने घुल-घुल कर अपने को आधा करने के अलावा कर क्या लिया? मैं तो पूरी तरह आश्वस्त हूं कि अगर प्रतिपक्षी यथास्थितियां बनी रहीं तो अगले 83 महीने भी हम नरेंद्र भाई की भट्टी में अपनी अस्थियां गलाने के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगे। हम-आप भले ही किसी भी गिनती में न आते हों, मगर फिर भी अपनी हड्डियों का टूटा-फूटा वज्र बनाने से क्या मोशा के अस्त्र-शस्त्र हमें रोक पाएंगे?
अगर नरेंद्र भाई और मोहन भागवत के किए-कराए पर उंगली उठाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है तो राहुल-प्रियंका के क़दमों की लचक पर हल्ला मचाना भी हर भारतीय का फ़र्ज़ क्यों न हो? तो एक अर्थवान नागरिक होने के नाते राहुल-प्रियंका की कांग्रेस को ले कर चिंता करने से हमें रोकने वाले राहुल-प्रियंका भी कौन होते हैं? और, जो कांग्रेस में हैं, उन्हें तो यह फ़िक़्र करने का और ज़्यादा हक़ है। और, जो कांग्रेस में नहीं हैं, लेकिन जिनमें कांग्रेस है, उन पर तो भटकाव को उजागर करने की और भी ज़्यादा ज़िम्मेदारी है।
जैसे देश कोई नरेंद्र भाई और उनके फ़र्ज़ी राष्ट्रवादी लठैतों का ही नहीं है, वैसे ही कांग्रेस का संसार भी महज़ राहुल-प्रियंका और उनके नन्हे-मुन्ने सेनानियों का नहीं है। लठैतों की मनमानी अगर नहीं चलनी चाहिए तो अधकचरे सेनानियों की सनक भी क्यों चलनी चाहिए? तुग़लक़ी तौर-तरीक़ों से अगर आसमान में दो-दो हाथ होने चाहिए तो पृथ्वी पर और पाताल में भी तो उन के ख़िलाफ़ ताल ठोकी जानी चाहिए। तुग़लक़ जहां भी हैं, तुग़लक़ हैं। सोने का छोड़िए, चांदी का छोड़िए, और-तो-और तांबे तक का छोड़िए; मगर चमड़े का अपना मनमाना सिक्का चलाने के तुग़लक़ों के सर्वाधिकार को चुनौती न देना आज के पाप का भागी होना है।
नरेंद्र भाई की हर हरकत पर जन-जन की दूरबीन क्यों है? इसलिए कि वे सत्ता में बैठ कर देश चला रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी और संघ-कुनबे की हर ख़ुराफ़ात को गांव-गांव में क्यों बारीकी से परखे जाने की ज़रूरत है? इसलिए कि वह संसद में तीन शतकीय बहुमत लिए बैठी है। राहुल गांधी के हर फ़ैसले को चौपाल-चौपाल क्यों छलनी में छाना जाता है? इसलिए कि लोग विपक्ष का मतलब कांग्रेस मानते हैं। कांग्रेस की संगठनात्मक संरचना को ले कर संबंधित-असंबंधित सारे लोग क्यों तरह-तरह के अंदेशों से भरे बैठे हैं? इसलिए कि उनकी इच्छा है कि कांग्रेस अपने बावन के आंकड़े की बागड़ को चीर कर ढाई सौ की तरफ़ कूच करने के लिए अब तो कमर कसे।
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Congress party political crisis
मैं कांग्रेस के लिए इस अखिल-पक्षीय फड़फड़ाहट को सकारात्मक मानता हूं। मैं उस अनुचर-मीडिया का अभिवादन करता हूं, जो हर रोज़ किसी-न-किसी बहाने राहुल और उन की कांग्रेस को कोसने का काम करता है। मैं स्वयंभू विद्वत परिषद के उन सदस्यों को भी नमन करता हूं, जो हर सभा-संगोष्ठी में राहुल और उन की कांग्रेस पर तोहमतें मढ़ने में कोई कोताही नहीं करते हैं। मैं उन आंकड़ेबाज़ों को भी सलाम करता हूं, जो अपनी श्वेत-श्याम विद्या के ज़रिए राहुल और उन की कांग्रेस को हाशिए पर ठेलने में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। इन सब की यह बिलबिलाहट राहुल के लिए अच्छी है। इन सब का यह विलाप कांग्रेस के लिए अच्छा है। लेकिन इस के चलते हर बात को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देने की ज़िद ठान लेना बुरा है।
कोई रंजीत प्रताप नारायण सिंह जाता है, उसे जाने दीजिए। कोई हेमानंद बिस्वाल जाता है, उसे जाने दीजिए। कोई जितिन प्रसाद जाता है, उसे जाने दीजिए। कोई रीता बहुगुणा जाती है, उन्हें जाने दीजिए। कोई ज्योतिरादित्य सिंधिया जाते हैं, उन्हें भी, चलिए, जाने दीजिए। जाते-जाते वे सारे लोग जो कुछ भी कहते हैं, उसका कुछ-न-कुछ विलोम-तर्क तो बुद्धि-विलासी तलाश ही लेंगे। मगर क्या ये तात्कालिकताएं किसी भी राजनीतिक संगठन को समाधान के दीर्घकालीन शांतिवन तक ले जा सकती हैं? इसलिए जाने वालों को जाने भले दीजिए, लेकिन जाते-जाते लिखे गए उनके विदा-लेखों पर ग़ौर करना तो सीखना ही होगा। कोई कैसा भी था, लेकिन बरसों से आपके साथ था। आपकी मर्ज़ी से आपके पास था। उसके जाने पर अविचलित होने का दस्तूरी ढोंग मत करिए। नफ़े-नुक़्सान की हर इबारत तो दीवार पर लिखी होती है और खुलेआम सब को दिखाई भी देती है। सो, हिमालय से हिंद महासागर की लहरों तक किससे क्या छिपा है?
जाने वालों को बुज़दिल कह देना एक बात है। हो सकता है कि वे डरपोक थे, इसलिए नाता तोड़ गए। लेकिन वह वक़्त भी तो था, जब वे मैदान में डटे थे। फिर जो आज भी मैदान थामे खड़े हैं, चार-छह महीने में कभी-कभार ही सही, क्या कोई उनकी पीठ थपथपाता है? क्या कभी कोई सोचता है कि नेतृत्व से संवादहीनता का इतना शोर पहले क्यों नहीं होता था, जितना तीन-चार साल से मच रहा है? क्या यह नगाड़ा बेमतलब बज रहा है? नक्कारखाना अपना हो तो बड़े-से-बड़े शंखनाद को द्वारपाल तूती की आवाज़ में बदल देने की सिफ़त रखते हैं।
संवाद के स्तर पर कहीं तो कोई लोचा ज़रूर है। यह सच है कि कांग्रेसी आंगन के बहुत-से पीपल, शीशम और बरगद हलकी-सी लज्जा लिए आप के कान में यह फुसफुसा देंगे कि कैसे उन्हें दो-दो तीन-तीन साल से शिखर-नेतृत्व से मिलने का वक़्त नहीं दिया जा रहा है। राहुल-प्रियंका को अगर यह नहीं मालूम तो ईश्वर कांग्रेस की रक्षा करे। राहुल-प्रियंका को अगर यह मालूम है तो फिर ईश्वर भी कांग्रेस की क्या रक्षा करेगा?
इसलिए रक्षा का कलावा तो कांग्रेस की कलाई पर सोनिया-राहुल-प्रियंका को ही बांधना है। इतना तो मुझे विश्वास है कि कम-से-कम इन तीनों के बीच तो ऐसी कोई संवादहीनता नहीं है कि वे कांग्रेस की पुनर्स्थापना के कलश-पूजन का मंत्र-पाठ न कर सकें। जितनी तेज़ी से वे ’’गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु।। आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।’’ का संयुक्त-जाप शुरू कर आसपास की कंटीली झाड़ियों को छांटने का काम शुरू कर देंगे, कांग्रेस उतनी ही जल्दी अपनी पुरानी सेहत की तरफ़ लौटने लगेगी।
वरना भीगे नयनों से प्रलय-प्रवाह देखने को अभिशप्त होने के बावजूद हमें-आपको अपना अरण्य-रोदन हर हाल में जारी रखना होगा। कोई परवाह करे-न-करे, पोंछे-न-पोंछे, यह आंसू बहाते रहने का समय है। अगर हम आंसुओं को किसी हुक़्मरान की निर्दयता का जवाब बनाने पर तुले हुए हैं तो हमें प्रतिपक्ष की निष्ठुरता का प्रत्युत्तर भी उन्हीं आंसुओं को बनाने में संकोच क्यों हो? आंसू अंगारे बनने में समय लेंगे तो लेंगे, लेकिन जिस दिन वे अंगारे बनेंगे, सभी के लिए बनेंगे। जो आज के आंसुओं की अवहेलना करेंगे, वे कल के कूड़ेदान में पड़े मिलेंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)