जिस आजाद को जीरो से हीरो जिस परिवार ने बनाया था उनका वल्गर हंसी हंसते हुए राहुल पर सवाल उठाना बहुत शर्मनाक है।.. यह जानना चाहिए कि आजाद क्या थे? मुफ्ती मोहम्मद सईद जम्मू कश्मीर कांग्रेस के अध्यक्ष थे और आजाद उनके प्रेस नोट लेकर अखबारों के दफ्तरों में जाया करते थे। पीआर तबसे अच्छा था तो अख़बार के रिपोर्टर से खूब कहकर आते थे और फिर कांग्रेस के नेताओं को बताते थे कि खबर छप जाएगी। कश्मीर टाइम्स के संपादक और जम्मू कश्मीर के सर्वकालीक सर्वश्रेष्ठ पत्रकारों में से एक वेद भसीन बताते थे कि खबर तो मुफ्ती साहब की वजह से छपती थी। मगर श्रेय ये लेते थे। यहीं काम आजाद ने हमेशा किया।
कांग्रेस बहुत सारे लोगों ने छोड़ी मगर जिस निचले स्तर पर जाकर गुलाम नबी आजाद नेहरू गांधी परिवार का उपहास उड़ाने की कोशिश कर रहे हैं वैसा इससे पहले कभी किसी ने नहीं किया। असम के मुख्यमंत्री हेमंत सरमा ने एक बहुत अपमानजनक टिप्पणी जरूर की थी मगर वे कभी नेहरू गांधी परिवार के इतने नजदीकी नहीं रहे जितने आजाद रहे और उन्हें परिवार से कोई खास फायदा भी नहीं मिला। मगर जिस आजाद को जीरो से हीरो जिस परिवार ने बनाया था उनका वल्गर हंसी हंसते हुए राहुल पर सवाल उठाना बहुत शर्मनाक है।
इसलिए यह जानना चाहिए कि आजाद क्या थे? मुफ्ती मोहम्मद सईद जम्मू कश्मीर कांग्रेस के अध्यक्ष थे और आजाद उनके प्रेस नोट लेकर अखबारों के दफ्तरों में जाया करते थे। पीआर तबसे अच्छा था तो अख़बार के रिपोर्टर से खूब कहकर आते थे और फिर कांग्रेस के नेताओं को बताते थे कि खबर छप जाएगी। कश्मीर टाइम्स के संपादक और जम्मू कश्मीर के सर्वकालीक सर्वश्रेष्ठ पत्रकारों में से एक वेद भसीन बताते थे कि खबर तो मुफ्ती साहब की वजह से छपती थी। मगर श्रेय ये लेते थे। यहीं काम आजाद ने हमेशा किया।
पूरी राजनीति परिवार के नाम पर की और अब श्रेय खुद लेने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाएगा। कांग्रेस छोड़ने के बाद अब उनकी सारी राजनीति प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह के सहारे होगी और श्रेय भी वे जितना और जब तक देना चाहेंगे तब तक ही मिलेगा। जिस दिन उन्हें मुख्तार अब्बास नकवी बनाना होगा तो आजाद को कोई कारण बताने की जरूरत नहीं होगी।
नकवी से ज्यादा भाजपा का वफादार कौन रहा होगा? मगर उनसे सब कुछ क्यों छीना गया यह आज तक किसी को नहीं मालूम। मंत्री पद से हटा देते मगर कम से कम सांसद तो रहने देते। मगर भाजपा के नए नेतृत्व को यह भी स्वीकार नहीं था। इसी तरह शाहनवाज हुसैन को चुनाव समिति से हटा दिया गया। उनकी भी सेवाएं कम नहीं थीं। लेकिन ये मोदी शाह की उपयोगितावाद की राजनीति है जिसमें आडवानी, मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों तक को किनारे कर दिया जाता है। संजय जोशी, प्रवीण तोगड़िया, उमा भारती, सुब्रमण्यम स्वामी जिस की उपयोगिता उनकी नजरों में नहीं है या गडकरी जैसे जिनके पंख उन्हें ज्यादा निकलते दिखे सबको ठिकाने लगाने में मोदी शाह को कोई संकोच नहीं होता है।
ऐसे में आजाद यदि कोई खुशफहमी पालेंगे तो उनका हाल भी एमजे अकबर की तरह होगा जिन्हें मौका पाते ही मोदी शाह ने अतीत की चीज बना दिया। अकबर कांग्रेस में भी गए मगर उनकी पत्रकारिता खत्म नहीं हुई। देश के अच्छे पत्रकारों में से एक अकबर मगर भाजपा के साथ आने के बाद अपनी पत्रकारिता का भी मर्सिया पढ़वा चुके। आज न वे पत्रकार हैं न नेता। न खुदा ही मिला न विसाले सनम वाली स्थिति में पहुंच चुके हैं।
लेकिन आजाद को इतनी जल्दी घबराने के जरूरत नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी को अन्तरराष्ट्रीय जगत को दिखाने के लिए एक कश्मीरी मुसलमान की जरूरत है। इसलिए अभी विधानसभा चुनाव तक और जम्मू कश्मीर में भाजपा का पहला मुख्यमंत्री बनाने तक मोदी शाह को आजाद की जरूरत होगी। उसके बाद उन्हें आडवाणी या नकवी बनाया जाएगा।
भाजपा के लिये समस्या यह है कि जम्मू कश्मीर में वे कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र या दूसरे राज्यों का तरह खुले आम विधायक तोड़कर, इस्तीफे दिलवाकर सरकार नहीं बना सकती। दुनिया की निगाहें हमेशा कश्मीर पर
लगी रहती हैं। वहां एक सीमा से अधिक धांधली अन्तरराष्ट्रीय मुद्दा बन जाती है। पाकिस्तान बैठा ही इसी ताक में रहता है। इसलिए वहां पार्टी की राजनीति के साथ देश की छवि का भी ख्याल रखना होता है। इसलिए एक कथित कश्मीरी (जम्मू संभाग का होने की वजह से उन्हें कश्मीरी नहीं माना जाता) को आगे कर कर भाजपा वहां सरकार बनाने की कोशिश करेगी। इस खेल में भाजपा को कोई नुकसान नहीं है। नुकसान आजाद की छवि का होने का खतरा था। मगर अब खुद आजाद ने ही अपनी बदला लेने की भावना, नफरत को इतना तेज कर लिया है कि छवि की उन्हें खुद कोई चिन्ता नहीं रही। अभी वे और किस स्तर तक जाएंगे इसका शायद खुद उन्हें पता नहीं है। जैसा आदमी नफरत के नशे में, क्रोध में आगे बढ़ता जाता है और फिर कहां जाकर गिरता है उसे खुद पता नहीं होता वैसे ही आजाद से भी और क्या क्या काम करवाए जाएंगे और पतन कहां तक होगा यह आजाद को खुद नहीं पता।
4 सितम्बर, रविवार को कांग्रेस ने महंगाई के खिलाफ अपनी रैली पहले से तय कर रखी थी। लेकिन उसे सेबोटाज करने के लिए आजाद से भी इसी दिन जम्मू में रैली करवाई जा रही है। टीवी तो उनका है। सुबह से राहुल की रैली फ्लाप और आजाद का भव्य स्वागत की खबरें चलना शुरु हो जाएंगी। दिल्ली की रैली में लोग पड़ोस के राज्यों खासतौर से हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश से ज्यादा आते हैं। लेकिन जैसा कि विद्वेषपूर्ण राजनीतिक माहौल है ऐसे में उन्हें बार्डर पर रोके जाने की आशंका बहुत ज्यादा है। ऐसे में मीडिया खाली कुर्सिंयों की तस्वीर चलाकर बताएगा की देखिए राहुल को सुनने कोई नहीं आया। दूसरी तरफ उसी समय जम्मू की रैली रखी इसीलिए गई है कि ताकि तुलना करके बताया जा सके कि लोग किस को सुनना चाहते हैं। टीवी पर ज्यादा
जगह और प्रेम आजाद के लिए रखा जाएगा और थोड़ी सा स्थान और ढेर सारी नकारात्मक बातें राहुल के लिए रखी जाएंगी।
ऐसे ही अभी 7 सितम्बर से राहुल की भारत जोड़ो यात्रा के समय से लेकर और फिर पूरी यात्रा के दौरान आजाद और बाकी कांग्रेस के आस्तीन के सांपों का इस तरह उपयोग किया जाएगा कि यात्रा का महत्व कम हो। प्रधानमंत्री मोदी खुले आम कांग्रेस मुक्त भारत का आव्हान कर चुके हैं। राजनीति में ऐसी घोषणा कभी किसी पार्टी ने नहीं की। राजनीति में अलग अलग दल फूलों की तरह होते हैं। जो मिलकर संसदीय लोकतंत्र का खूबसूरत गुलदस्ता बनाते हैं। एक ही फूल या दो तीन फूलों से बाग नहीं बनता। लोकतंत्र नहीं महकता।
“चमन में इख्तिलात – रंग – ओ - बू से बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो!”
क्षेत्रिय दलों से लेकर छोटे दल और कई राष्ट्रीय दल ही लोकतंत्र की मजबूती की गारंटी होते हैं। जनता के पास आप्शन होना चाहिए कि वह अपनी जरूरत के हिसाब से अपना प्रतिनिधित्व बदल सके। मगर मोदी एक पार्टी को खत्म करना चाहते हैं। और दिलचस्प यह है कि उसमें उसी पार्टी से लाभान्वित हुए लोग सहायक हो रहे हैं।
लेकिन विपक्ष इस बात को नहीं समझता। वह सोचता है कि एक पिट जाएगा तो उसकी जगह उसे मिल जाएगी। लेकिन वह यह नहीं समझ रहा कि अगला नंबर उसका हो सकता है। बंगाल के चुनाव के समय सबने देखा था कि मोदी, शाह ने किस तरह पूरी ताकत झौंकी थी। मगर वह तो ममता बनर्जी ने जमकर मुकाबला कर लिया तो राज्य बच गया। नहीं तो जिस तरह का माहौल बना था और मीडिया उसे बढ़ा चढ़ाकर दिखा रही थी तो लगता था कि बंगाल भी गया। मगर ममता के पूरी ताकत से हिट बैक करने से न केवल बंगाल बचा बल्कि देश में भी एक मैसेज गया कि अगर काउन्टर अटैक किया जाए तो मोदी का मुकाबला किया जा सकता है। दिल्ली में अभी यही हो रहा है। आम आदमी पार्टी ने पलट वार किया तो उसके विधायक जाने से रुक गए। नहीं तो कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र की तरह वहां भी विधायक तोड़कर सरकार बदली जा सकती थी।
विपक्ष को समझना चाहिए कि उसे तोड़ने की यह कार्रवाइयां 2024 तक लगातार जारी रहेंगी। 2024 जीतना मोदी का मुख्य टारगेट है। और अभी जिस तरह विपक्ष एक दूसरे की मदद करने के बदले उसके पिटने पर खुश हो रहा है वही मानसिकता जारी रही तो फिर कोई नहीं बचेगा। अलग अलग सब पिटेंगे। विपक्षी एकता इस समय लोकतंत्र को बचाने के लिए जरूरी है। अपने निजी स्वार्थ एक किनारे रखना होंगे। नहीं तो जर्मन कवि पास्टर निमौले की वह कविता ही सच होगी कि-
“पहले वे यहूदियों के लिए आए
और मैं नहीं बोला
क्योंकि मैं नहीं था यहूदी।
फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आए
तब मैं नहीं बोला
क्योंकि मैं नहीं था कम्युनिस्ट।
फिर वे कैथोलिकों के लिए आए फिर भी मैं नहीं बोला
मैं नहीं था कैथोलिक।
फिर वे मेरे पास आए
और कोई नहीं था जो मेरे हक में बोलता।“
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