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कॉप का नकाब अब उतर गया है

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कॉप का नकाब अब उतर गया है
चूंकि सत्ता और मीडिया प्रतिष्ठानों पर सबसे धनी तबकों का कब्जा है, इसलिए जलवायु परिवर्तन पर 30 साल तक चली बहस में इस पहलू को उभरने नहीं दिया गया है। या जब कभी इस पहलू पर रोशनी पड़ी है, तो तुरंत दूसरे तरह के मुद्दों को उठा कर उसे चर्चा से दूर रखा गया है।... चीन और भारत जैसे देशों को निशाना बना रखा है जबकि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का सीधा संबंध उच्च उपभोग स्तर से है। ये तथ्य ग्लोसगो बैठक के दौरान ही जारी हुई गैर-सरकारी संस्था ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट से और बेहतर ढंग से सामने आ गया है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की सबसे धनी एक फीसदी आबादी बाकी पूरी आबादी की तुलना में 30 गुना ज्यादा उत्सर्जन कर रही है। glasgow climate change conference  जलवायु परिवर्तन पर स्कॉटलैंड के शहर ग्लासगो में आयोजित वैश्विक सम्मेलन को अब संभवतः इसलिए याद रखा जाएगा कि यहां आकर कॉप (CoP) नाम से बहुचर्चित इस प्रक्रिया से दुनिया के विवेकशील लोगों का पूरा मोहभंग हो गया है। इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि ये प्रक्रिया पूरी तरह बेनकाब हो गई। Conference of Parties (कॉप) का यह 26वां मुकाम है। Conference of Parties से मतलब उन संबंधित पक्षों से है, जिन्होंने 29 साल पहले ब्राजील के शहर रियो द जनेरो में हुए धरती शिखर सम्मेलन (Earth Summit) में संकल्प लिया था कि वे ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण धरती के जलवायु में हो रहे खतरनाक बदलाव को रोकने की कोशिश करेंगे। लेकिन तब से आज तक ये बात कहां पहुंची, उसे हजारों प्रदर्शनकारियों के साथ ग्लासगो पहुंची 18 वर्षीया कार्यकर्ता ग्रेटा टनबर्ग ने बेलाग ढंग से बताया। कॉप-26 के मौके पर दुनिया भर में हो रहे जन प्रदर्शनों के क्रम में ही ग्लोसगो में वो प्रदर्शन हुआ, जिसे ग्रेटा ने संबोधित किया। ग्रेटा ने अपने भाषण में दो-टूक इस सम्मेलन को “नाकाम” घोषित किया। उन्होंने कहा- “हमें ऐसे संकल्पों की जरूरत नहीं है, जो लंबी अवधि के लिए हों और जिनका पालन बाध्यकारी ना हो। हमें और अधिक खोखले वादे नहीं चाहिए। लेकिन हमसे ऐसे ही वादे फिर किए जा रहे हैं। उन्होंने संबंधित पक्षों के 26 सम्मेलन किए और खूब बातें बनाई हैं। लेकिन वे हमें कहां ले आए हैं? ” इस प्रश्न का जवाब हजारों लोगों ने एक साथ ‘कहीं नहीं’ (nowhere) कहते हुए दिया।

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ग्रेटा की कुछ और बातें अहम हैं, जिन पर जलवायु परिवर्तन के लिए चल रही मौजूदा चर्चा के दौरान अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा- ‘सत्ता में बैठे लोग सच से भयभीत हैं।... लेकिन वे वैज्ञानिकों में बन चुकी आम सहमति को नजरअंदाज नहीं कर सकते।’ उनका आशय था कि वैज्ञानिक जो खतरे बता रहे हैं, उनको लेकर जनता में आई जागरूता के कारण नेताओं के लिए कुछ करते हुए दिखना एक मजबूरी बन गई है। लेकिन ग्रेटा टनबर्ग ने दो टूक कहा- ‘हमारे नेता हमें नेतृत्व देने में विफल रहे हैं।’ ग्रेटा ने कहा- ‘जो सवाल हमें खुद से अवश्य पूछना चाहिए वो यह है कि हम किस बात के लिए संघर्ष कर रहे हैं? क्या हम खुद को और अपनी धरती को बचाने के लिए संघर्षरत हैं या जो कुछ जैसा चल रहा है, उसी को कायम रखने के लिए? हमारे नेता कहते हैं कि दोनों चीजें साथ चल सकती हैं, लेकिन कड़वा सच यह है कि यह संभव नहीं है।’ ग्रेटा टनबर्ग की ये बात भी गौरतलब हैं- ‘सत्ताधारी लोग ऐसे काल्पनिक बबूलों में जीना जारी रख सकते हैं कि धरती के सीमित संसाधनों के बीच अनंत आर्थिक वृद्धि जारी रहेगी और अचानक कहीं से ऐसे तकनीकी समाधान आ जाएंगे, जो इन संकटों को हल कर देंगे। इस बीच दुनिया जल रही है और जलवायु संकट की अग्रिम कतार में खड़ी आबादी इससे झुलस रही है। हमारे नेता इसके परिणामों की अनदेखी करना जारी रख सकते हैं, लेकिन इतिहास उन पर सख्त फैसला देगा और हम उनके इस नजरिए को स्वीकार नहीं कर सकते।’ इस युवा कार्यकर्ता का ये आक्रोश असल में यह बताता है कि कॉप की प्रक्रिया से कैसे अब लोगों की उम्मीदें टूट चुकी हैं। ये उम्मीदें इसलिए टूटी हैं कि समस्या की गहरी वैज्ञानिक समझ बन चुकने और समस्या के गंभीर परिणाम लगातार दुनिया के सामने आने के बावजूद जिन लोगों के हाथ में दुनिया की आर्थिक और राजनीतिक सत्ता है, वे समाधान की जुबानी खानापूरी करने से आगे नहीं बढ़े हैं। इस रूप में कॉप की पूरी प्रक्रिया असल में लोगों में झूठी आस बंधाने का माध्यम बन कर रह गई है। कॉप-26 में ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा, इस आशंका ने इस बैठक से ठीक पहले रोम में हुए जी-20 के शिखर सम्मेलन में ही ठोस रूप ग्रहण कर लिया। वहीं इस बात का संकेत मिल गया कि दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों की सबसे बड़े उत्सर्जक देश (जिनके अति उपभोग आधारित जीवन स्तर की वजह से धरती का तापमान बढ़ने की समस्या पैदा हुई है) कोई भी त्याग करने को तैयार नहीं हैं। जबकि ग्लोबल वॉर्मिंग के नतीजे अब उनकी अपनी धरती और वातावरण में भी दिखने लगे हैँ। इसके बावजूद ये देश उसी कथन को पैमाना बनाए हुए हैं, जो अर्थ समिट में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश सीनियर ने बे लाग-लपेट के बता दिया था। बुश ने कहा था कि अमेरिकी जीवन स्तर पर कोई समझौता नहीं हो सकता। ये सवाल तब से लेकर आज तक बना हुआ है कि जिन देशों के समृद्ध तबकों ने अति उच्च उपभोग वाली जीवन शैली को अपना रखा है, अगर वे इस उपभोग में कटौती नहीं करेंगे या इसकी उचित कीमत नहीं चुकाएंगे, तो आखिर ग्रीन हाउस गैसों में कटौती के लक्ष्य कैसे हासिल हो सकते हैं? अर्थ समिट में यह सिद्धांत स्वीकार किया गया था कि जलवायु को बचाने की जिम्मेदारी सबकी है, लेकिन यह जिम्मेदारी उन देशों को अधिक निभानी होगी, जिन्होंने इतिहास में धरती के वातावरण को ज्यादा प्रदूषित किया है। इसे common but differentiated responsibility का सिद्धांत कहा गया था। इसे आम बोलचाल में जलवायु न्याय (climate justice) का सिद्धांत भी कहा गया। पांच साल की बातचीत के बाद जब जापान के शहर क्योटो में इस सिद्धांत पर अमल के प्रोटोकॉल पर दस्तखत किए गए, तब बाकायदा प्रदूषण में भूमिका के लिहाज से देशों की तीन श्रेणियां तय की गईं। इसमें पहली सूची में मुख्य रूप से अमेरिका, यूरोप के विकसित देशों को रखा गया था। लेकिन हकीकत यह है कि इस श्रेणी के देशों के लिए उत्सर्जन कटौती के जो लक्ष्य तय किए गए थे, उसे उन्होंने पूरा नहीं किया। इसके विपरीत पिछले कई वर्षों से उन्होंने चीन और भारत जैसे देशों को निशाना बना रखा है, जिन्होंने गुजरे 20 वर्षों में आर्थिक विकास के एक स्तर हासिल तो किया है, लेकिन जो आज भी विकासशील देशों की श्रेणी में ही आते हैँ। पश्चिमी विकसित देशों ने अपने भू-राजनीतिक समीकरणों को भी जलवायु कूटनीति का हिस्सा बनाए रखा है। इस बात की साफ मिसाल ग्लासगो में भी देखने को मिली है, जहां अमेरिका और यूरोपीय देशों ने ये धारणा बनाने की कोशिश की है कि धरती के बढ़ रहे तापमान के लिए मुख्य रूप से चीन दोषी है। जबकि जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए जो उपाय विभिन्न देशों ने किए हैं, अगर उनकी तथ्यपूर्ण तुलना की जाए, तो ऐसा आरोप सिरे से निराधार नजर आएगा। आखिर ऐसी धारणा बनाने की कोशिश के पीछे मकसद क्या है? जाहिर है, एक तरफ अपनी जनता को भरमाना उनका उद्देश्य है, ताकि वह जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों के लिए अपने नेताओं और धनी वर्ग को नहीं, बल्कि चीन या भारत जैसे देशों को दोषी समझे। दूसरा मकसद जलवायु परिवर्तन के बहाने अपने भू-राजनीतिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाना है। लेकिन जलवायु बदलने की वजह से जब पूरी दुनिया के सामने अस्तित्व का खतरा खड़ा हो रहा है, तब ऐसे दांव-पेच स्वार्थ से पैदा हुई अल्पदृष्टि का ही सबूत देते हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या पर विचार करते समय इस पहलू पर अवश्य ध्यान देना होगा कि आखिर ग्रीन हाउस गैसों के लिए किसकी कितनी जिम्मेदारी है। यह जिम्मेदारी देशों के संदर्भ में देखनी होगी और देशों के अंदर वर्गों के संदर्भ में भी। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का सीधा संबंध उच्च उपभोग स्तर से है। ये तथ्य ग्लोसगो बैठक के दौरान ही जारी हुई गैर-सरकारी संस्था ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट से और बेहतर ढंग से सामने आ गया है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की सबसे धनी एक फीसदी आबादी बाकी पूरी आबादी की तुलना में 30 गुना ज्यादा उत्सर्जन कर रही है। ऐसे लोग प्राइवेट विमानों में यात्रा करते हैं, मेगायाच (विलासितापूर्ण क्रूज नौकाएं) रखते हैं, और अब उनमें व्यक्तिगत रूप से अंतरिक्ष की यात्रा करने का नया शौक भी समा गया है। जाहिर है, जो लोग विमान यात्राएं करते हैं, कार में चलते हैं, एअरकंडीशर में रहते हैं, रेफ्रीजरेटर का उपयोग करते हैं, वो ही बहुतायत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैँ। ऑक्सफेम की रिपोर्ट में उल्लेख है कि अगर जलवायु परिवर्तन पर हुई पेरिस संधि के लक्ष्यों को प्राप्त करना है, तो 2030 तक दुनिया में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष औसत कार्बन उत्सर्जन को घटा कर 2.3 टन पर लाना होगा। अभी ये उत्सर्जन इसके लगभग दो गुना है। अभी हाल यह है कि सबसे धनी एक फीसदी लोग औसतन प्रति व्यक्ति 70 टन कार्बन का उत्सर्जन कर रहे हैँ। जबकि धन के लिहाज से निचली 50 फीसदी आबादी एक टन प्रति वर्ष का भी उत्सर्जन नहीं करती। इसे देखते हुए ऑक्सफेम की जलवायु नीति प्रमुख नफकोते दाबी ने उचित ही ये टिप्पणी की है कि ‘एक अल्पसंख्यक इलिट आबादी को प्रदूषण फैलाने का फ्री पास मिला हुआ है।’ ग्लोसगो सम्मेलन के मौके पर ही ये तथ्य भी सामने आया है कि दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की एक बड़ी दोषी अमेरिकी सेना है। तो ये बातें साफ बताती हैं कि जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वॉर्मिंग का एक वर्गीय (class) पहलू है। चूंकि सत्ता और मीडिया प्रतिष्ठानों पर सबसे धनी तबकों का कब्जा है, इसलिए जलवायु परिवर्तन पर 30 साल तक चली बहस में इस पहलू को उभरने नहीं दिया गया है। या जब कभी इस पहलू पर रोशनी पड़ी है, तो तुरंत दूसरे तरह के मुद्दों को उठा कर उसे चर्चा से दूर रखा गया है। जबकि वर्गीय नजरिए से देखें, तो जलवायु परिवर्तन का उपनिवेशवाद/ साम्राज्यवाद, उसकी वजह से दुनिया में मौजूद क्षेत्रीय विषमता, और विभिन्न देशों के अंदर वर्ग-संघर्ष की स्थिति से सीधा संबंध जुड़ा दिखेगा। हालांकि ग्रेटा टनबर्ग जिस संघर्ष का प्रतीक बनी हैं, उसमें बहुत खुल कर इस पहलू की चर्चा नहीं हुई है, लेकिन उनका अभियान जिस तरह कॉप प्रक्रिया को बेनकाब करने में सहायक बना है, उससे इस पहलू पर विचार-विमर्श का अनुकूल माहौल बन रहा है। ये बात तो संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने दल ने भी कही है कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए दुनिया को धरती के संसाधनों के अधिकतम दोहन पर आधारित वर्तमान पूंजीवादी विकास मॉडल से दूर जाना होगा। संयुक्त राष्ट्र की ये रिपोर्ट इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के नाम से आती रही है। इसकी ताजा रिपोर्ट का एक हिस्सा बीते अगस्त में लीक हुआ था। उसमें यह कहा गया था कि अगर औद्योगिक युग शुरू होने के समय की तुलना में धरती के तापमान को 1।5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है, तो दुनिया में कार्बन गैसों का उत्सर्जन अगले चार साल में सर्वोच्च सीमा तक पहुंच जाना चाहिए। यानी उसके बाद इसमे गिरावट जरूरी है। वैज्ञानिकों की समझ है कि 1।5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ने पर जलवायु परिवर्तन के नतीजे बेहद खतरनाक हो जाएंगे। लीक हुए ड्राफ्ट में कहा गया कि मौजूदा जीडीपी ग्रोथ रेट बढ़ाने पर केंद्रित आर्थिक नीतियां जलवायु के लिए विनाशकारी साबित हो रही हैँ। लेकिन कॉप-26 में इन पहलुओं पर कोई चर्चा नहीं हुई है। उलटे वहां दुनिया के सबसे धनी कारोबारियों को बुलाया गया और उनसे उत्सर्जन रोकने में योगदान करने की गुजारिश की गई। ये लोग और धनी देशों के नेता वहां पूरे लाव-लश्कर और ठाट-बाट से आए- ठीक उस तरह की जीवन शैली का प्रदर्शन करते हुए, जिसकी कार्बन उत्सर्जन और उसके परिणास्वरूप ग्लोबल वॉर्मिंग में बड़ी भूमिका है। ग्लासगो विभिन्न देशों के नेताओं ने फिर ऐसे संकल्प लिए और वादे किए, जिसकी ओर ग्रेट टनबर्ग ने इशारा किया है। लेकिन इन संकल्पों को पूरा करने के लिए कार्य-योजना नहीं बताई गई। बल्कि भ्रामक संदेश देने की कोशिश हुई। इसकी एक मिसाल वहां भारत की घोषणा है। ग्लासगो सम्मेलन शुरू होने से ठीक पहले भारत के वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने यह कहने से साफ इनकार कर दिया कि ग्लोसगो में भारत नेट जीरो (कार्बन उत्सर्जन शून्य करने) लक्ष्य की घोषणा करेगा। लेकिन ग्लोसगो सम्मेलन को संबोधित करते हुए अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एलान किया कि 2070 तक भारत नेट जीरो का लक्ष्य हासिल कर लेगा। कुछ मीडिया रिपोर्टों मे बताया गया कि प्रधानमंत्री की इस घोषणा से भारतीय अधिकारी चकित रह गए। बहरहाल, इसके बाद भारत ने जंगलों की कटाई रोकने और मिथेन गैस का उत्सर्जन शून्य करने संबंधी समझौतों पर दस्तखत नहीं किए। फिर भारत सरकार की तरफ से भारतीय मीडिया को यह बताया गया कि प्रधानमंत्री को घोषणा सशर्त है। अगर धनी देश ग्रीन टेक्नोलॉजी को अपनाने के लिए धन देने का अपना वादा निभाएंगे, तब भारत नेट जीरो के लक्ष्य की तरफ बढ़ेगा। जाहिर है, इस घोषणा में ढेरों अगर-मगर हैँ। लेकिन यह सिर्फ भारत का नजरिया नहीं है। ग्लोसगो में ऐसी ही घोषणाएं छायी रही हैँ। और वहां जो हुआ, वह इसके पहले कॉन्फ्ररेंस ऑफ पार्टीज की हुई 25 बैठकों का ही दोहराव है। लेकिन अब कॉप की यह प्रक्रिया बेनकाब हो गई है। अनुमान लगाया जा सकता है कि इसकी वजह से जलवायु परिवर्तन के खतरों को झेल रहे तथा इसके और भीषण होने की संभावना से आशंकित लोग अब इससे अलग उपायों पर विचार करेंगे। पिछले दो वर्ष से दुनिया भर के शहरों में ग्लोबल वॉर्मिंग को लेकर हुए विशाल जन प्रदर्शनों ने संकेत दिया है कि ज्यादा से ज्यादा लोग अपने संघर्ष की शक्ति पर भरोसा करने लगे हैं। उनमें इस समस्या की वर्गीय समझ गहरी हुई, तो ये संघर्ष अधिक व्यापक आयाम ले सकता है। हकीकत यह है कि अगर ऐसा हुआ, तभी जलवायु परिवर्तन पर काबू पाया जा सकेगा। वरना, अभी तो तमाम संकेत रोज चिंता को बढ़ा ही रहे हैँ।
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