प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंगलवार को जो तीसरा टास्क दिया वह सबसे उत्तम, चुनौतीपूर्ण और देश का मिजाज बदल देने वाला है। प्रधानमंत्री ने देश के युवा वैज्ञानिकों में विश्वास व्यक्त करते हुए उनसे कोरोना कावैक्सिन बनाने की अपील की।भारत का युवा वैज्ञानिक बहुत प्रतिभाशली और इनोवेटिव है। जब वह रिसर्चमें जाता है तो उत्साह से भरा होता है। मगर हमारा सिस्टम और सरकारी तंत्रजल्दी ही उसके उत्साह को तोड़कर उसे यथास्थितिवादी बना देता है।प्रधानमंत्री अगर वास्तव में भारत के युवा वैज्ञानिकों का बनाया वैक्सिनदुनिया को देना चाहते है तो वैज्ञानिक सोच और साधन बढ़वाने पर जोर देना होगा। हाल में कोरोना के इलाज में सहायक हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दवा अमेरिका सहित और देशों को दी है तो उसका न केवल निर्माण अपने यहां हो रहा बल्कि आविष्कार भी भारतीय वैज्ञानिक प्रफुल्ल चंद्र राय ने किया था। उन प्रो. राय की यह बात भी ध्यानमें ऱखना चाहिए कि अविष्कार प्रयोगशालाओं में होता है मगर उसके लिए माहौलबाहर बनता है। प्रो. राय ने कहा था कि जब में अपनी क्लास में छात्रों को चन्द्रग्रहण का कारण बताता था कि चाँद और सूर्य के बीच पृथ्वी के आजाने से चन्द्रग्रहण पड़ता है और वे इसे परीक्षा में लिखकर अच्छे नंबरलाते थे मगर जब चन्द्र ग्रहण होता था तो वे छात्र राहु चन्द्र को निगल गयाचिल्लाते हुए घंटे, घडियाल बजाते सड़कों पर आ जाते थे।
भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी साइंटिफिक टेम्पर(वैज्ञानिक मिज़ाज) की बात कही थी। और देश में सांइस रिसर्च सेंटर,मेडिकल और आईआईटी बनाने से पहले कही थी। नेहरू जानते थे कि बिनावैज्ञानिक सोच के विज्ञान के आविष्कार नहीं हो सकते। भारत का विज्ञान में बड़ा नाम रहा है। विदेशों में हमारे वैज्ञानिकों कोबड़ी इज्जत के साथ देखा जाता है। वहां जाकर भारतीय वैज्ञानिकों ने अपनीप्रतिभा का लोहा भी मनवाया है। लेकिन हमारे देश में उनके लिए अनुकूलमाहौल बनाना अभी बाकी है। अभी तो हमारे यहां स्कूलों कालेजों में यहडिबेट भी बंद नहीं हुई कि विज्ञान वरदान है या अभिशाप।
हांलिक यह कहना अच्छा नहीं लगता मगर सच यह है कि वैज्ञानिक खोजें हवा मेंनहीं हो सकतीं। इसके लिये हमें अच्छे लेब देना होंगे। वहां प्रयोग केसाधन मुहैया करवाना होंगे। और इन सबके लिए पैसा देना होगा। अभी भारत मेंजीडीपी का एक प्रतिशत भी साइंस का बजट नहीं है। दुनिया में जो दस बड़ेदेश विज्ञान में सबसे ज्यादा खर्च करते हैं उनमें भारत का स्थान बहुतनीचे आठवां हैं। लेकिन वहीं सुखद आश्चर्य के तौर पर भारत के युवावैज्ञानिकों की मांग दुनिया के सबसे बेहतरीन साइंस रिसर्च सेन्टरों में है।
भारत में युवा वैज्ञानिकों को बहुत कम फेलोशिप पर काम करना पड़ता है।प्रधानमंत्री चाहें तो इसमें वे त्तत्काल वृद्धि करवा सकते हैं। इससेउन्हें एक बड़ा इनिशेटिव मिलेगा। इसमें सरकार का कोई बहुत ज्यादा खर्चाभी नहीं होगा। साइंस के रिसर्च स्कालर बहुत कम हैं। और बायोटेक्नोलोजी में तो और भी कम। दरअसल साइंस पर ध्यान देना हमारे यहां लंबे अरसे से बंदपड़ा है। कोई साइंस और टेक्नोलाजी मंत्री बनना नहीं चाहता। यूपीए के शासनकाल में एक बार सांइस मंत्री बनने पर महाराष्ट्र के एक बड़े नेता ने कहादेखिए मुझे कहां फैंक दिया गया। इसीके साथ हमें यह भी समझना होगा किविज्ञान और तकनीक दोनों बिल्कुल अलग चीजें हैं। विदेशों में भारत के विज्ञान नौजवानों का महत्व है लेकिन तकनीक में विदेशी हमसे बहुत आगे हैं।
नोबल पुरुस्कार विजेता सीवी रमन, हरगोविन्द खुराना जिन्हें जेनिटक कोड केलिए ही नोबल मिला था से लेकर सुब्रमण्यम चन्द्रशेखर, होमा जहांगीर भाभा,जगदीश चन्द्र वसु, बीरबल साहनी, डा एपीजे अब्दुल कलाम, विक्रम साराभाई,एसएस भटनागर कितने वैज्ञानिक हैं जिनके नाम विश्व भर में भारत की मेधा कीगवाही हैं। लेकिन तकनीक बिल्कुल ही डिफरेंट क्षेत्र है जिसमें भारत का
कोई खास दखल नहीं है। इसीलिए यहां यह मांग हमेशा उठती रही है कि भारत कोसाइंस को ज्यादा प्राथमिकता देना चाहिए। अब जबकि खुद प्रधानमंत्री नेइतनी बड़ी अपील कर दी है तो उसपर काम भी शुरू होना चाहिए। इसके लिएतत्काल एक टास्क फोर्स का गठन होना चाहिए। जिसमें वैज्ञानिक और उन्हेंलाजिस्टिक मुहैया कराने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत एक उच्चस्तरीयटीम होना चाहिए। कुछ लेबें चुनकर वहां काम शुरू होना चाहिए।
इसके साथ ही साइंस को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के लिए उसका बजट बढ़ायाजाना चाहिए। बेस्ट प्रतिभाएं तभी आकर्षित होंगी जब उन्हें प्योर साइंस में काम करने के अवसर के साथ कुछ ठीक पैसा भी मिलेगा। आज हालत यह है कि प्रतिभाशाली स्टूडेंटों को अभिभावक रिसर्च में इसीलिए नहीं जाने देते कि वहां अच्छा कैरियर नहीं है। सुरक्षित भविष्य नहीं है। डाक्टर और इंजीनियर अभी भी पहली प्राथमिकता बने हुए हैं। यह सही है कि विदेशों में भारत के डाक्टर इंजीनियरों ने बहुत नाम कमाया। मगर अब समय साइंस का आ सकता है। अगर प्रधानमंत्री रिसर्च के क्षेत्र में भारत को आगे बढ़ाने की ठान लें तो अगले कुछ सालों में भारत के युवा वैज्ञानिक विश्व भर में अपना झंडा गाड़ सकते हैं। देश भर में रिजनल रिसर्च सेंटरों का मजबूत ढांचा है। जरूरत उन्हें मजबूत करने की है। नेशनल स्तर पर कुछ बड़े बायोमिडिकल रिसर्च सेंटर बनाने, अंतरराष्ट्रीय स्तर की लेब बनाने और युवा रिसर्चरों को आकर्षक स्टाईपंड देने की है। देश के युवा वैज्ञानिक प्रधानमंत्री को निराश नहीं करेंगे लेकिन बस उन्हें बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर मुहैया करवाने की जरूरत है।(लेखक नवभारत टाइम्स के राजनीतिक संपादक और चीफ आफ ब्यूरो रहे हैं)