
बेशक विराट कोहली के भारत के कप्तान के तौर पर सबसे सफल आंकड़े हैं लेकिन आइपीएल में बगंलूरू टीम का लंबा असफल काल उनकी कप्तानी पर धब्बा ही रहा है। न तो वे अच्छी टीम खड़ी कर पाए न ही अपनी बनाई टीम को सफल बना पाए। आशा तो सभी की यही रही कि कोहली है तो सब संभाल लेंगे। मगर टीम खेल में अकेला कप्तान भाड़ नहीं फोड़ सकता। कोहली के विवाद को इस शेर से बूझे कि आईना ये तो बताता है मैं क्या हूं/ आईना इस पर है खामोश की मुझमें क्या है।
खेल चरित्र बनाते ही नहीं, उन्हें दर्शाते भी है, खेल को लेकर यह बात भारत के महान बल्लेबाज और क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली के पैदा होने से पहले प्रचलित है। पर लगता है मानों यह विराट कोहली के लिए ही कहीं बात हुई हो। क्रिकेट आज मैदान पर जितना खेला जाता है उससे कहीं ज्यादा टीवी पर देखा जाता है। क्रिकेट, कोहली और कैमरे का रिश्ता भी बहुत पुराना है। इस महान बल्लेबाज ने हर तरह से सफल होने के बाद अचानक कप्तानी छोड़ने का फैसला कर विवादों को खत्म कर डाला है। हालांकि विराट की बल्लेबाजी देखने को मिलती रहेगी।
पिछले कुछ समय से अपनी क्रिकेट में जो उथल-पुथल मची थी उसको विराट ने विराम दे दिया है। क्रिकेटीय सत्ता की रस्साकशी किसी न किसी रूप में चलती हुई थी। सवाल है आखिर भारत की क्रिकेट के ‘किंग’ रहे कोहली के साथ अब सौतेला व्यवहार क्यों है? उनको अचानक कप्तानी के लिए बूढ़ा क्यों मान लिया गया? कोहली की बादशाहत पर बट्टा कौन लगा रहा है? कप्तान को जरूरत से ज्यादा जीत का श्रेय मिलता है। हार के लिए भी जरूरत से ज्यादा दोष दिया जाता है। मगर कोई भी कप्तान न तो जीत में श्रेय का, और न ही हार में दोष का अकेला जिम्मेदार होता है।
हरएक का चरित्र उनके सामाजिक व्यवहार में झलकता ही है। कोहली हमेशा इस सहजता में दिखे जो आउट हो जाने पर भी अपना बल्ला साथ ले जाता हैं। यों कोहली के स्वभाव में अहंकार झलकता रहा है। मैदान पर उनके हावभाव कभी उनको कैमरे से दूर नहीं रख पाए। उनका जोश जहां युवाओं में क्रिकेट का लड़ाकू उत्साह पैदा करता, वहीं परंपरावादी उनमें दंभी अशिष्टता देखते। उनका चाल-चलन और हरकतें क्रिकेट की सभ्यता को ही ललकारते रहे हैं। वे खुद से अभिभूत हो खेलते रहे हैं।
सन् 2014 में पहली बार आस्ट्रेलिया में कप्तान बने कोहली ने अपनी अनुठी आक्रामकता और बेफिक्र, बिंदास भावों से सभी को मुरीद बनाया। यही वह समय था जब क्रिकेट संघ को कानून बनाने वाले मनोनीत लोग चला रहे थे। कोहली बल्लेबाजी की महानतम लय में थे। कोहली अपनी बल्लेबाजी से विराट लग रहे थे। ऐसे में कोहली ही चयनकर्ता और कोच के अलावा कमेंटेटर तक का चयन कर रहे थे। खेल प्रेमियों को याद होगा जब संघ सलाहकार समिति ने अनिल कुबंले को कोच बनाया। कोहली रवि शास्त्री को कोच चाहते थे। टीम और ड्रेसिंग रूम का माहौल बिगड़ा। हालात ऐसे बने कि कुबंले को पद छोड़ना पड़ा। शास्त्री को फिर से कोच बनाया गया। तब कोहली का बल्ला, और उनका रूतबा चरम पर था। गांगुली, सचिन और लक्ष्मण के खिलाफ कही गयी बात ने सभी के मन में मुटाव पैदा किया। हालात तो बदलते ही हैं। गांगूली क्रिकेट संघ के अध्यक्ष हो गए तो कोहली के कप्तानी दिन गिने जाने लगे।
कोहली का कैमरे से प्रेम जगजाहिर रहा है। वही कैमरा जिसने उनकी लोकप्रिय लड़ाकू की छवि गढ़ी, उनके जीवन में हस्तक्षेप करने वाला होने लगा। कैमरे को आप हर समय अपनी सुविधा से इस्तेमाल नहीं कर सकते। फिर क्रिकेट संघ की सत्ता काबिज़ हुई तो कैमरे और कोहली की जुगलबंदी में खलल पड़ने लगी। उनकी घर कर गयी लत से लोग उकताने लगे। उनकी मनमर्जी पर लगाम लगी। जब तक कोहली का बल्ला चलता रहा, और भारत जीतता रहा उनकी सभी बातें नज़रअंदाज होती रही। जीत के लिए शिकारी जैसी भूख रखने वाले कोहली आज इसीलिए खुद का शिकार होने जाने का आभास दे रहे हैं। अकड़ से अपनी आक्रामकता को आस्तीन में लपेटने वाले कोहली खुद ही सांपों द्वारा डसे जाने का भाव दिखा रहे हैं। क्रिकेट के जीवन में वही होता है जो जीवन के खेल में होता है। नए कोच राहुल द्रविड बने। कुबंले प्रसंग के बाद द्रविड ने कप्तानी मुद्दा भी उठाया होगा। क्रिकेट संघ इस बार कोच की मानने पर अड़ा है।
बेशक विराट कोहली के भारत के कप्तान के तौर पर सबसे सफल आंकड़े हैं लेकिन आइपीएल में बगंलूरू टीम का लंबा असफल काल उनकी कप्तानी पर धब्बा ही रहा है। न तो वे अच्छी टीम खड़ी कर पाए न ही अपनी बनाई टीम को सफल बना पाए। आशा तो सभी की यही रही है कि कोहली है तो सब संभाल लेंगे। मगर टीम खेल में अकेला कप्तान भाड़ नहीं फोड़ सकता। तभी भारतीय क्रिकेट आज कलह, पूर्वाग्रह से ग्रस्त है।
भारत की क्रिकेट और विराट कोहली आज जिस बीमारी से जूझ रहे है उसको कृष्ण बिहारी नूर के शेर से समझने में आसानी होगी। आईना ये तो बताता है मैं क्या हूं/ आईना इस पर है खामोश की मुझमें क्या है।