भोपाल। जब राजनीति में अपराधी होना एक “विशेष योग्यता” का दर्जा प्राप्त कर ले, हर तरह के अपराध में पारंगत शख्स को ‘महान नेता’ का तमगा दे दिया जाए, तो फिर ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग व सर्वोच्च न्यायालय भी क्या कर सकते हैं? कानून निर्मात्री संसद में जब आधे से अधिक सदस्य अपराधी हो जिनका संसद से अधिक समय न्यायालयों में गुजरता हो वे देश के भाग्य विधाता कैसे हो सकते हैं? भारत में पिछले 3 दशक में प्रजातंत्र से जन विश्वास कम होने का यह भी एक मुख्य कारण है।
भारत की राजनीति में अपराधीकरण रोकने की चर्चा लंबे समय से चल रही है, पर सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है। लोकसभा के 542 सांसदों में से 233 (43 फ़ीसदी) के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं, इन 233 में से 159 (29 फ़ीसदी) पर गंभीर अपराध के मामले दर्ज है, ऐसे सांसदों में से सबसे अधिक केरल और बिहार से हैं, एक सख्स पर तो 204 से भी अधिक मामले दर्ज हैं। वहीं राज्यसभा के 233 में से 71 सांसदों (31 फ़ीसदी) पर आपराधिक मामले लंबित हैं। इन अपराधी 71 सांसदों में से 37 सांसदों पर गंभीर मामले दर्ज हैं, दो पर हत्या, चार पर हत्या के प्रयास, तीन पर महिलाओं से दुष्कर्म तक के अपराध दर्ज हैं। करीब 106 सांसदों पर केंद्रीय एजेंसियों, सीबीआई, ईडी और एनआईए ने मामले दर्ज कर रखे हैं और यह तो स्वयंसिद्ध ही है कि जब भाजपा के सांसदों की संख्या ज्यादा है तो ज्यादा अपराधी सांसद भी इसी पार्टी के होंगे।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश जहां हाल ही में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए, उनमें से गुजरात में 22 फ़ीसदी और हिमाचल में 41 फ़ीसदी नवनिर्वाचित विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। गुजरात के 182 में से 40 के खिलाफ और हिमाचल में 68 में से 28 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, 5 साल पहले इन दोनों राज्यों में संपन्न विधानसभा चुनाव में भी आपराधिक प्रवृत्ति के विजेता विधायकों की स्थिति व संख्या यही थी।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आजादी के समय जिस राजनीति को जनसेवा का मुख्य माध्यम माना गया था, वह राजनीति अब 75 साल में ‘स्वयंसेवी’ बन गई है। कर्ज लेकर चुनाव लड़ने और जीतने वाला सांसद या विधायक कुछ ही समय में स्वयं कर्ज बांटने की स्थिति में आ जाता है।
हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार देश की संसद के 71 संसद सदस्यों की संपत्ति में 285 फ़ीसदी का उछाल आया है। लगातार तीन बार निर्वाचित सांसदों की औसत संपत्ति में 15 करोड़ तक की बढ़ोतरी हुई है। ईडीआर की इस रिपोर्ट के अनुसार 2009 में इनकी औसत संपत्ति चार करोड़ थी, जो 2019 में बढ़कर 20 करोड़ हो गई, इस मामले में भाजपा के बाद दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस है, जिसके 10 सांसदों की संपत्ति में औसतन 10 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है।
जिन 71 सांसदों की संपत्ति में हुए 286 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है, उनमें से पांच सांसद हमारे अपने मध्य प्रदेश के हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर आज राजनीति में प्रवेश का मुख्य ध्येय, रुतबे में वृद्धि और अपनी निजी आय में बढ़ोतरी रह गया है, अब राजनीति का ‘जनसेवा’ से कोई दूर का भी रिश्ता नहीं रह गया है। जहां तक राजनीति में अपराधीकरण का सवाल है, इस सवाल को लेकर पिछले 7 दशक से चर्चाओं का दौर जारी है, फिर भी आज यही अपराधीकरण राजनीति की मुख्य पहचान बनकर रह गया है और यह माना जाने लगा है कि रोब-दाब वाला राजनेता वही बन सकता है, जो हर तरह के अपराध में पारंगत हो। आज विकासखंड स्तर से संसदीय क्षेत्र तक यही परिपाटी चालू है।
अब तो अपने एक हलफनामे में भी चुनाव आयोग ने कह दिया कि “हम राजनीति में अपराधीकरण को रोकना अवश्य चाहते हैं, पर यह अब हमारे वश में नहीं रहा”। सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा कि वह भारतीय राजनीति को पूरी तरह अपराध व अपराधी मुक्त करना चाहता है, लेकिन आपराधिक छवि के नेताओं को चुनाव लड़ने से रोक पाना उसके वश में नहीं है, और वह उसके अधिकार क्षेत्र में भी नहीं है। ऐसा करने के लिए कानून बनाना होगा और कानून बनाने वाले कौन है, यह रहस्य किसी से भी छुपा नहीं है। चुनाव आयोग के इस हलफनामे पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से 1 महीने में जवाब मांगा है। इस बारे में केंद्र के जवाब की उत्सुकता से प्रतीक्षा है।