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प्रजातंत्र के तीनों अंग विलुप्ति के कगार पर…?

यदि हम प्रजातंत्र के तीनों अंगों के परिपेक्ष में हमारे मौजूदा देश का ईमानदारी से विश्लेषण करें तो हमें ना तो यहां प्रजा स्वतंत्र दिखाई दे रही है और ना तंत्र। मुट्ठी भर राजनेताओं ने इस देश को अपने कब्जे में कर रखा है, जिनकी लोकतंत्र या प्रजातंत्र के प्रति कोई आस्था नहीं है, आज प्रजातंत्र के तीनों अंग अपनी-अपनी ढपली पर अपने-अपने राग अलाप रहे हैं और इनमें से दो अंगों कार्यपालिका और न्यायपालिका पर विधायिका अपना वर्चस्व स्थापित कर अपने कब्जे में रखना चाहती है, कार्यपालिका तो वैसे ही विधायिका के नियंत्रण में है और अब न्यायपालिका पर भी वह अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहती है, जिसके लिए न्यायपालिका संघर्षरत है।

यदि हम बेबस कार्यपालिका व न्यायपालिका की चर्चा छोड़ केवल विधायिका की ही बात करें तो इसमें भी एक अजीब स्थिति चल रही है, विधायिका का मूल स्वरूप संसदीय परिदृश्य है, विधायिका का हमारे मूल संविधान में काफी महत्व प्रतिपादित किया हुआ है और उसे प्रजातंत्र की मूल भावना को प्रस्तुत करने का दायित्व सौंपा गया है, किंतु आज यहां स्थिति ठीक इसके विपरीत है, आज संसद व विधानसभाओं के सदन “अखाड़ों” में परिवर्तित हो गए हैं, जहां जनता द्वारा येन केन प्रकारेण विजेता “दादा लोग” अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए न सिर्फ वास्तविक कुश्ती लड़ते नजर आते हैं, बल्कि सदन को “दंगाई क्षेत्र” में परिवर्तित करते नजर आते हैं और क्योंकि इन सदनों पर जिला प्रशासन का कोई अधिकार नहीं होता इसलिए इन्हें रोकने या इन्हें दंडित भी कोई नहीं कर सकता, आज देश की संसद के दोनों सदनों और राज्य विधानसभा के सदनों में यह दृश्य आम हो गए हैं। …. और इसके साथ ही सबसे अहम बात यह है कि प्रजातंत्र में ‘प्रजा’ की कोई अहम भूमिका नहीं रही है सिर्फ ‘तंत्र’ ही सब पर भारी है और आज का तंत्र किसके इशारे पर चलता है और इसका नियंत्रक कौन है? यह किसी से भी छुपा नहीं है? अब यहां एक सवाल सहज ही पूछा जा सकता है कि विधायिका के सदस्यों को चुनता कौन है, जिसके बल पर वे यह अशोभनीय कृत्य करते हैं? तो इसका जवाब भी यही है कि आज चुनाव की क्या स्थिति है और उन पर किन का वर्चस्व है?

यह कौन नहीं जानता? अब सबसे बड़ा और अहम चिंतनीय सवाल यही है कि इस दुरावस्था से देश को मुक्ति कैसे मिले, जिसके बल पर हम देश व देश के इन फर्जी, मनमौजी, हकदारो को सुधार सकें? क्या यह कि सी के वश में है? आज इस सवाल का जवाब किसी के भी पास नहीं है, आज तो देश को परतंत्री रूप में देखने वाले एक-दो फ़ीसदी बुजुर्ग लोग हैं, वह भी यह कहने से नहीं चूकते कि इससे तो अंग्रेजों का राज ही ठीक था, हम क्यों आजाद हुए? और आज की पीढ़ी के पास बुजुर्गों के इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है। इसलिए वह मौन हैं… पर अब मौन रहने से काम चलने वाला नहीं है, उसे मुखर होना ही पड़ेगा तब देश बच पाएगा।

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