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दिग्विजय बनाम सिंधिया: व्यक्तित्व नहीं संस्कृति का द्वन्द

दिग्विजय बनाम सिंधिया: व्यक्तित्व नहीं संस्कृति का द्वन्द

दिग्विजय सिंह बनाम सिंधिया कोई व्यक्तित्व की लड़ाई नहीं है बल्कि दो राजनीतिक संस्कृतियों की स्पर्धा है। और जब भी व्यक्ति और विचार में द्वन्द होगा तो इतिहास का पलड़ा विचार की ओर ही झुकेगा।किसी भी नेता पर वार उसके सत्ता के आधार पर ही होता है। यही कारण है की जब भी इन नेताओं की आलोचना होती है तो जहां दिग्विजय सिंह की आलोचना राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर होती है वहीं सिंधिया की आलोचना उनके व्यक्तिगत व्यवहार और हाल में लिए दल-बदल के फ़ैसले के लिये होती है।यही मूल राजनीतिक और वैचारिक फ़र्क़ दोनों नेताओं की राजनीति में भी परिलक्षित होता है।

दिग्विजय बनाम सिंधिया

कुछ दिन पहले उज्जैन में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एक प्रेसवार्ता के दौरान एक सवाल का जवाब देते हुए जनता को यह बताया की दल-बदल में कांग्रेस के रईस राजा – महाराजा शामिल थे जब की पार्टी के दलित और आदिवासी विधायकों ने पार्टी का साथ नहीं छोड़ा। आगे उन्होंने महाकाल से यह प्रार्थना की कि कांग्रेस में दोबारा ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा नेता ना आए।

सिंधिया ने ट्विटर पर प्रतिक्रिया देते हुए दिग्विजय सिंह को देशविरोधी करार दे दिया। मीडिया ने इसे दो राजनीतिक व्यक्तित्वों के बीच टकराव के रूप में पेश किया। लेकिन बयानों और व्यक्तित्व से परे यदि हम इस प्रकरण को देखें तो दरअसल यह टकराव दो विपरीत राजनीतिक संस्कृतियों का है।

राजा से “जनप्रतिनिधि” का सफ़र

आज़ादी के वक़्त हमारे समाज में सामन्तवादी व्यवस्था और विचारों का दबदबा था। भारत में 500 से अधिक रियासतें थीं जिनके प्रभाव में देश की जनसंख्या का बड़ा भाग था। लेकिन आज़ादी के बाद जो लोकतांत्रिक सैलाब आया उसने राजाओं-महाराजाओं को भी जनता के राजा से उनका प्रतिनिधि बनने पर मजबूर कर दिया। मध्यप्रदेश में ऐसी रियासतों का और उससे उपजी सामन्तवादी सोच की जड़े गहरी थीं।

लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था समाज के हर समूह, जाति, वर्ग में दो धड़े पैदा कर देती है – एक यथास्थितिवादी वर्ग जो समाज की व्यवस्था में समतावादी बदलाव की गति पर अपनी राजनीति से अंकुश लगाता है और दूसरा धड़ा संशोधनवादी होता है जो समाज में आ रहे बदलावों की गति बढ़ाता है और उसका निमित्त बन जाता है।

आज़ादी के बाद इन राजाओं-ज़मींदारों में भी वैचारिक और राजनीतिक रूप से दो धड़ों का उद्भव हुआ – पहला जिसने सरपरस्ती और प्रश्रय की राजनीति अपनाई और दूसरे जो विचारधारा और लोकहित की नीतियों के लिए जाने गये। यदि समग्र दृष्टि से अब तक के राजनीतिक इतिहास का अवलोकन होगा तो ज्योतिरादित्य सिंधिया पहली श्रेणी में आएँगे जबकि दिग्विजय सिंह – अर्जुन सिंह और वी. पी. सिंह के साथ – दूसरी श्रेणी में रखे जाएँगे।

आपकी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?

वह इसलिए क्योंकि सिंधिया सिर्फ़ अपने ग्लैमर और विरासत में मिले रुतबे के लिए जाने जाते हैं वहीं दूसरी श्रेणी के तीनों नेता अपनी विचारधारा और नीतियों के लिए जाने जाते हैं। वी.पी. सिंह मण्डल कमिशन के लिये; अर्जुन सिंह एक-बत्ती कनेक्शन और द्वितीय ओबीसी आरक्षण के लिए और दिग्विजय सिंह दलित एजेंडा और पंचायती राज के आधार पर सत्ता के विकेंद्रीकरण के पुरोधा के रूप में जाने जाते हैं।

किसी भी नेता पर वार उसके सत्ता के आधार पर ही होता है। यही कारण है की जब भी इन नेताओं की आलोचना होती है तो जहां दिग्विजय सिंह की आलोचना राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर होती है वहीं सिंधिया की आलोचना उनके व्यक्तिगत व्यवहार और हाल में लिए दल-बदल के फ़ैसले के लिये होती है।

लोकतंत्र को जीना

यही मूल राजनीतिक और वैचारिक फ़र्क़ दोनों नेताओं की राजनीति में भी परिलक्षित होता है। लोकतंत्र केवल एक व्यवस्था ही नहीं बल्कि एक संस्कृति होती है। यह केवल चुनावों और भाषणों तक सीमित नहीं होती बल्कि लोकव्यवहार का हिस्सा होती है। लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए उसे जीना पड़ता है।

दिग्विजय सिंह लोकतंत्र को जीते हैं। इसकी झलक फ़िलहाल चल रहे उनके प्रदेश्व्यापी सेक्टर – मण्डल कार्यकर्ता सम्मेलनों में देखने को मिलती है जहां वे ख़ुद मंच के नीचे बैठते हैं और कार्यकर्ताओं और महिलाओं को मंच पर बिठाते हैं। ख़ुद भाषण नहीं बघारते बल्कि कार्यकर्ताओं का भाषण और उसमें उनकी निजी आलोचना भी सुनते हैं और उसका जवाब देने कि कोशिश करते हैं। वे सरेआम कार्यकर्ताओं को उन्हें “राजा साहब” कह कर संबोधित करने से रोकते हैं और याद दिलाते हैं की राजे-रजवाड़ों का दौर चला गया।

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान फ़र्श पर सोते हुए उनका एक फ़ोटो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। लेकिन उससे कहीं ज़्यादा अहम कैमरे से दूर लगाई अनेक लोगों को उनके पैर छूने पर  उनकी प्यार भरी फटकार थी – “जो मेरे पैर छूता है, वो मुझे कमज़ोर करता है!”

जैसे तिनका-तिनका जोड़ कर परिंदे अपना आशियाना बनाते हैं वैसे ही ये दिखने में छोटी-छोटी बातें; यह व्यवहार; लोकतांत्रिक संस्कृति की जड़ों को सींचती हैं; उन्हें राजा से जननेता बनाती हैं।

इसीलिए दिग्विजय सिंह बनाम सिंधिया कोई व्यक्तित्व की लड़ाई नहीं है बल्कि दो राजनीतिक संस्कृतियों की स्पर्धा है। और जब भी व्यक्ति और विचार में द्वन्द होगा तो इतिहास का पलड़ा विचार की ओर ही झुकेगा।(लेखक कांग्रेस पार्टी के सदस्य एवं भारत यात्री हैं।)

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Published by अंशुल त्रिवेदी

लेखक कांग्रेस पार्टी के सदस्य एवं भारत यात्री हैं।

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