डॉ. हेडगेवार ने, जाने-अनजाने, इस भ्रम का निराकरण नहीं किया कि संघ अपने आरंभिक कार्य – हिन्दू समाज के शत्रुओं से सीधे लड़ना – छोड़ चुका है। जबकि उसी आरंभिक छवि के कारण संघ के फैलते चले जाने से डॉ. हेडगेवार को अपने ‘संघ-कार्य’ के प्रति बदगुमानी भी हो गई। वे संघ विस्तार को स्वयंसेवकों की संघ-निष्ठा का परिणाम मानते थे। जबकि वस्तुतः सामान्य सचेत हिन्दू और कांग्रेसी, हिन्दू महासभाई, तथा गैर-राजनीतिक बड़े हिन्दू, जैसे राजा लक्ष्मण राव, कृष्णवल्लभ नारायण सिंह (बबुआ जी), आदि एवं कुछ हिन्दू साधु-संत भी संघ को अपने प्रत्यक्ष लड़ाके के रूप में सहयोग दे रहे थे। यह दोतरफा भ्रम आज तक चल रहा, या चलाया जा रहा है।
चार वर्ष पहले रा.स्व.संघ ने श्री नारायण हरि पालकर उर्फ नाना पालकर (1918-1967) की जन्म-शताब्दी मनाई थी। उन के द्वारा लिखित ‘डॉ. हेडगेवार चरित’ (1960) संघ के संस्थापक की सब से प्रमाणिक जीवनी है। संघ नेतृत्व ने श्री पालकर को जिम्मेदारी देकर इसे लिखवाया था। बरसों शोध कर बड़े परिश्रम से यह तैयार हुआ। इस के हिन्दी संस्करण की भूमिका डॉ. हेडगेवार के उत्तराधिकारी, दूसरे सरसंघचालक गुरू गोलवलकर, जो 1940-73 ई., अर्थात् पूरे 33 वर्ष तक संघ के सर्वोच्च रहे, ने लिखी थी। इसलिए, ‘डॉ. हेडगेवार चरित’ हर तरह से आधिकारिक है।
किन्तु आज इस वृहत ग्रंथ को पढ़कर कोई चकित हो सकता है कि संघ कहाँ से चला, और कहाँ पहुँचा! कुछ सरसरी बातें यहाँ प्रस्तुत हैं:
[1] संघ के संस्थापकों कीछवि उन के द्वारा हिन्दुओं की रक्षा के लिए प्रत्यक्ष जुझारू कार्य करने और विशिष्ट सैनिक स्वरूप से बनी थी (पृ.169, 185-86, 330, आदि। सभी पृष्ठ संख्या पुस्तक के 2020 ई. संस्करण से)। उसी से संघ को देश भर में हिन्दुओं के बीच पहचान मिली। उस युग के भारतीय दलों, संगठनों के नेतागण, चाहे सदभाव या संदेह रखते हुए, उसी कारण संघ को विशिष्ट मानते थे। किन्तु स्वयं डॉ. हेडगेवार ने ही उस मूल कार्य को पीछे कर संघ-विस्तार को ही एक मात्र लक्ष्य में बदल डाला। कि संघ को बढ़ाना, अधिकाधिक हिन्दुओं को संघ में ले आना ही कार्य है, और शेष कार्यों –स्वतंत्रता आंदोलन, हिन्दू समाज के शत्रुओं से संघर्ष, आदि – में भाग नहीं लेना है। इस हद तक कि दूसरे संगठनों, जैसे कांग्रेस, हिन्दू महासभा, आदि के प्रति संघ में एक दुराव भाव तक बना (पृ. 220, 217,340, आदि)। चाहे स्वयं डॉ. हेडगेवार अंग्रेजों से स्वतंत्रता-प्राप्ति को मुख्य लक्ष्य मानते थे, किन्तु उसी काम में लगी कांग्रेस से दूरी रखते थे। यह कहकर भी, कि स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस या हिन्दू महासभा द्वारा चलाए गए आंदोलनों में संघ स्वयंसेवक‘निजी रूप से’ भाग ले सकते हैं, जब स्वयंसेवक उस में भाग लेते तो हेडगेवार खिन्न होते थे (पृ. 339-42, आदि)। केवल ‘संघ कार्य’ यानी संघ को फैलाना, और दूसरे सभी राष्ट्रीय, हिन्दू-रक्षा, हिन्दू संगठन-संघर्ष, आदि कार्यों से अपने को दूर रखना, यही भावना उन्होंने स्वयंसेवकों में भरी। वह परवर्ती संघ नेताओं के लिए सुखद विरासत बन गई! बिना अपने को कहीं दाँव पर लगाए, किसी कठिन संघर्ष में आगे बढ़कर नेतृत्व किए, देश व समाज के अग्रणी होने का आरामदेह भाव – संघ में जम गया और आज तक यथावत् है।
[2] डॉ. हेडगेवार की राष्ट्रीयता की धारणा केवल हिन्दुओं को राष्ट्रीय समाज मानने की थी। उन्होंनेमुसलमानों और क्रिश्चियनों को राष्ट्र में कदापि शामिल नहीं माना था। इस संबंधी ‘मिश्रित राष्ट्रवाद’ के कांग्रेसी और गाँधी विचारों की वे कटु आलोचना करते थे (पृ.282, 291, 261, आदि)। वे मुसलमानों को ‘देश का शत्रु’ मानते थे, अतः मुसलमानों को ‘देशद्रोही’ तक कहना उन्हें नामंजूर था, क्योंकि द्रोह तो वह करेगा जिस का यह देश हो (पृ.299-300)! वे भारत में हिन्दुओं के अलावा दूसरों को ‘बाहरी’, ‘भोगवादी अराष्ट्रीय’ मानते थे जो सिर्फ देश के संसाधनों से भोग-मजे करते थे, लेकिन जिन्हें देश रूपी घर की परवाह न थी (पृ.374-75), जिस पर वे पराई नजर से केवल आँखें गड़ाते थे। सो, डॉ. हेगडेवार के अनुसार घर की चिन्ता तो ‘घर के स्वामी’, यानी हिन्दुओं को करनी है। इसीलिए, डॉ. हेडगेवार को ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता’ शब्द से भी आपत्ति थी, जिसे वे ‘निर्रथक बात’ मानते थे (पृ.99, 201)।डॉ. हेडगेवार की यह दोनों ही मूल धारणाएं, जिस से उन के उत्तराधिकारी गुरू गोलवलकर भी पूर्ण सहमत थे (पृ.7-8) – अर्थात् राष्ट्रवाद का अर्थ, और मुसलमानों का मूल्याकंन – छोड़ कर अब संघ उलटी चाल, वही कांग्रेसी विचार अपना चुका है। इस तरह संघ अब हिन्दू-विरोधी सेक्यूलरवादियों का बदतर पिछलग्गु बन चुका है।
[3] डॉ. हेडगेवार ने संघ को दलीय राजनीति से कड़ाई से दूर रखा था। यह उन का पक्का और स्थाई विचार था (पृ.394)। इसलिए भी उन्होंने कांग्रेस और हिन्दू महासभा, दोनों को संघ का सहयोग देने से मना कर दिया था। जबकि उन दोनों ही संगठनों के अनेक बड़े नेता, जैसे महामना मालवीय, डॉ. मुंजे, जमनालाल बजाज, वीर सावरकर, आदि डॉ. हेडगेवार और संघ को सहज अपना मानते हुए सहयोग और समर्थन देते रहे थे (पृ.185, 368, आदि)। किन्तु डॉ. हेडगेवार ने संघ स्वयंसेवकों को केवल ‘व्यक्तिगत रूप से’ उन के कार्यों में भाग लेने की अनुमति दी। वह भी उन्हें नापसंद थी। लेकिन इस गंभीर बिन्दु पर तब के हिन्दू महासभा और कांग्रेस के भी हिन्दू नेता लंबे समय तक भ्रम में रहे।
[4] हिन्दू समाज की उत्कट चिन्ता रखते हुए भी डॉ. हेडगेवार धर्म और विधर्मियों के इतिहास से मानो कोरे थे (पृ.261)। इस विस्तृत पुस्तक में कहीं किसी गंभीर साहित्य या समकालीन हिन्दू मनीषी का नाम तक नहीं है, जो ज्ञानी और समाज की विविध सेवा करते हुए अनन्य चिंता दृष्टि रखते थे। मानो, बंकिम, दयानन्द, विवेकानन्द, श्रीअरविन्द, टैगोर, स्वामी रामतीर्थ, निराला, आदि महान हिन्दू सपूतों से संघ स्वयंसेवकों को न कुछ सीखना था। न कोई मतलब था। उन की केवल संघ-दुनिया, या संघ-कूप था। वही परंपरा आज तक संघ में बदस्तूर और सगर्व चल रही है।
[5] इस से भी बुरा यह कि हिन्दू-समाज की चिन्ता करते हुए भी डॉ. हेडगेवार ने इस के मर्मांतक शत्रुओं, उन के उद्देश्यों तथा इतिहास का ज्ञान रखना कभी जरूरी न समझा। एक कोरे भावुक देशप्रेम के सिवा डॉ. हेडगेवार ने संघ नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए इतिहास-वर्तमान का सामान्य अध्ययन या जानकारी होना भी अनिवार्य नहीं समझा था।
फलतः जैसा अर्द्ध-सैनिक दस्तों में होता है, स्वयंसेवकों के लिए भी वर्दी, व्यायाम, परेड, बिगुल-बाजा, अनुशासन, झंडा, जैसे अभ्यास को पर्याप्त माना। बल्कि पढ़ने-समझने के प्रति सचेत दुराव, तथा जानकारों, विवेक-विचार करने वालों की खिल्ली उड़ाने जैसा भाव बना (पृ.269-70, 318)। जो आज भी ठसक से जारी है। वे संघ-सदस्यों में भी जानकार, विवेकशील व्यक्तियों को किनारे ही रखते हैं। प्रायः गोल-मोल, मुहावरेदार बोलने वाले, नाटकीय, आडंबरी प्रवचनकर्ताओं को महत्व और जिम्मेदारी देते हैं। इस तरह, आरंभ से ही आम स्वयंसेवक मानो विचार-विहीन रोबोट सा रूप लेता गया। केवल संख्या, अनुशासन, बैंड, परेड, झंडा, उपदेश, आदि में दक्षता और इसी का प्रदर्शन उस का मुख्य कार्य बन गया। डॉ. हेडगेवार के समय ही वे संघ-परेड को ‘जीवित साहित्य’ कहते थे!
[6] चूँकि संघ के क्रियाकलाप अर्द्ध-सैनिक दस्तों जैसे दिखते थे(पृ. 206, 295-98, 306), तथा डॉ. हेडगेवार और उन के सहयोगियों की पहली ख्याति नागपुर में मुस्लिम दंगाइयों से निपटने से हुई थी, इसलिए स्वभावतः आस-पास के हिन्दू समाज में संघ के प्रति एक हिन्दू सैन्य दल जैसीसदभावना फैलती गई। किसी भी समाज में योद्धाओं का वैसे भी विशेष आदर होता है। वही संघ के आरंभिक नेताओं को मिला। उन के वर्दी, डंडा, अनुशासन, आदि से उस की पुष्टि भी होती रहती थी। पर लगभग शुरू से यह भ्रामक विडंबनासाबित हुई! चाहे बहुत कम लोग यह देख सके। कारण यह भी था कि डॉ. हेडगेवार ने, जाने-अनजाने, इस भ्रम का निराकरण नहीं किया कि संघ अपने आरंभिक कार्य – हिन्दू समाज के शत्रुओं से सीधे लड़ना – छोड़ चुका है। जबकि उसी आरंभिक छवि के कारण संघ के फैलते चले जाने से डॉ. हेडगेवार को अपने ‘संघ-कार्य’ के प्रति बदगुमानी भी हो गई। वे संघ विस्तार को स्वयंसेवकों की संघ-निष्ठा का परिणाम मानते थे। जबकि वस्तुतः सामान्य सचेत हिन्दू और कांग्रेसी, हिन्दू महासभाई, तथा गैर-राजनीतिक बड़े हिन्दू, जैसे राजा लक्ष्मण राव, कृष्णवल्लभ नारायण सिंह (बबुआ जी), आदि एवं कुछ हिन्दू साधु-संत भी संघ को अपने प्रत्यक्ष लड़ाके के रूप में सहयोग दे रहे थे। यह दोतरफा भ्रम आज तक चल रहा, या चलाया जा रहा है। (जारी)