रघु ठाकुर
अब जब रेल और अन्य साधन शुरू हुये हैं, तो उम्मीद है कि, 20-30 दिनों में ये मजदूर अपने घरों तक पहुँच सकेंगे, हिन्दुस्तान के गाँव से लगभग 1 करोड़ से अधिक मजदूर काम की तलाश में महानगरों में पहुँचे है। पिछले डेढ़-दो माह से उनकी कितनी त्रासदी का समय रहा होगा, उस पीड़ा की अनुभूति ही की जा सकती है। भारत के उच्च मध्यवर्ग और खाते पीते मध्यवर्ग की प्रतिक्रियायें निम्नानुसार सामने आई है:-
1. उच्च मध्यम वर्ग और संपन्न वर्ग ने कुछ सरकारों की अपील पर और कुछ मानवता का प्रमाण पत्र हासिल करने के लिये इन संकट में उलझे गरीबों के लिये कुछ समय भोजन आदि की व्यवस्था कराई, भले ही इस व्यवस्था से मुश्किल से एक प्रतिशत पीड़ितों के पास तक ही राशन या मदद पहुँची हो परन्तु कुछ उन्होंने मदद की।
2. महानगरों के उच्च मध्यवर्गीय या मध्यवर्गीय मकान मालिकों ने अपवाद छोड़ दे तो किरायेदारों को किराये के लिये यातना दी। इस संकट की घड़ी में जब बाहर जाने का विकल्प नहीं था उन्हें भगाने का प्रयास किया इसके पीछे जहाँ एक तरफ किराये का लालच था, वही दूसरी तरफ कोरोना फैलाने का भय और आतंक था। चूँकि छोटे-छोटे कमरों में कई-कई मजदूर सामूहिक किरायेदार बनकर रहते हैं, अतः उन्हें ये मजदूर कोरोना वायरस जैसे लगने लगे थे व अपने-अपने परिवार की चिंता में उन्हें भगाना चाहते थे।
3. शहरी और व्यापारी मध्यवर्ग की प्रतिक्रिया बहुत ही संकीर्ण और स्वार्थपरख थी। वह उच्च शिक्षित लोग इन मजदूरों के घर से निकलने का विरोध कर रहे थे। सोशल मीडिया के माध्यम से सरकार का समर्थन कर रहे थे। लाठी और गोली का समर्थन कर रहे थे। यहाँ तक की कुछ लोग तो सेना की माँग कर रहे थे। कुछ लोगों ने तो पैदल चलने पर रेल से कटने वाले मजदूरों की खुशी की मुद्रा में क्रूर प्रतिक्रिया व्यक्त की और कहा कि इन्हें निकलने की, चलने की या पटरी पर सोने की क्या आवश्यकता थी। भारतीय समाज में इतना क्रूर और स्वार्थी हिस्सा हो सकता है यह दुखद अनुभव है।
4. हालांकि धार्मिक संस्थाओं, सामाजिक संस्थाओं और सामान्य मध्यवर्ग के लोगों ने अपनी क्षमता से भी ज्यादा अपने आस-पास के भूखों की भूख मिटाने के लिये मदद दी और अपनी क्षमता भर उन्हें खाना दिया।
5. मैं मानता हूॅ कि, तबलीगी जमात के मुखियाओं की गलती थी उन्हें कोरोना के फैलने की चर्चा शुरू होते ही, अपने आयोजन को निरस्त कर देना था, जो लोग, आने वाले थे उन्हें रोकना था, जो आ चुके थे उन्हें जानकारी देकर जाँच करानी थी। अगर कुछ लोग रह भी गये थे तो उनकी पूरी सूची प्रशासन को उपलब्ध कराना थी। हालांकि इसका एक और भी पहलू है कि, दिल्ली राजधानी में इतना बड़ा आयोजन जिसमें देश-विदेश से लोग आ रहे थे, उसकी अनुमति दिल्ली पुलिस को स्वतः निरस्त करना थी और आयोजन को रोक देना था। परन्तु कुछ त्रुटियों की वजह से यह आयोजन हुआ और इससे देश में कितना कोरोना फैला यह तो तर्क और बहस का विषय है, परन्तु देश के कट्टरपंथी मानस ने सारे हिन्दुस्तान में कोरोना फैलने का कारण जमातियों को सिद्ध कर दिया।
नफरत का यह बीज गाँव-गाँव में पहुंच गया ऐसा लगा जैसे कुछ लोग कोरोना अपने राजनैतिक लाभ व ध्रुवीकरण के लिये इस्तेमाल कर रहे हैं। कुछ जमातियों को और उनके मुखियाओं को इस अपराध में गिरफ्तार किया गया है, परन्तु म.प्र. के आई.ए.एस. अफसर जो न जमाती है, न मुसलमान ने अपने विदेश से आये हुये बेटे की यात्रा को छिपाकर स्वतः भी संक्रमित हुये और स्वास्थ्य विभाग के बड़े अमले को भी संक्रमित किया पर उनकी गिरफ्तारी तो दूर उन पर सामान्य कार्यवाही भी नहीं हुई। क्या यह हमारी समाज की मानसिक द्रष्टि गोचर का एक अन्य प्रकार नहीं है? ऐसे किसी विधायक के जन्मदिन और किसी सत्ताधीश और पूर्व सत्ताधीश के आयोजनों के कितनी ही फोटो अखबारों में छपे हैं, जहाँ वे लॉकडाउन का उल्लंघन कर रहे हैं, मास्क नहीं लगा रहे है, परन्तु सत्ता पुलिस और हमारा समाज उस पर मौन है।
मजदूरों को जो डेढ़ माह महानगरों में बन्द रखा गया उसके पीछे यह चिंता बताई गयी कि वे बाहर निकलेंगे तो देश में उनके गाँव में कोरोना फैल सकता है। जबकि जो आँकड़े आ रहे है, वे इस निष्कर्ष को सही सिद्ध नहीं करते है। महाराष्ट्र के कुल संक्रमित में से 63 प्रतिशत मुंबई मेें तथा गुजरात के कुल के 71 प्रतिशत अहमदाबाद से हैं। 29 मई याने 5 माह में बिहार में मात्र 3108 में लोग और उ.प्र. में 7000 लोग संक्रमित हुये, उ.प्र. की आबादी लगभग 20 करोड़ है, और बिहार की आबादी 13 करोड़ है, इनमें से भी बिहार में 33 प्रतिशत व उ.प्र. में लगभग 60 प्रतिशत लोग स्वस्थ हो चुके है। अगर इसी प्रकार हम देश के ग्रामीण अंचलों वाले क्षेत्रों और राज्यों को देखे तो निष्कर्ष साफ है कि, ज्यादा संक्रमण महानगरों में और इन इलाको में पाया जा रहा है, जहाँ विदेशों से लोगों का आवागमन हुआ है।
अगर भारत सरकार ने डब्लू.एच.ओ. की सूचना और बाद में चीन के वुहान में कोरोना की पहली सूचना जो 8 जनवरी को भारत के समाचार पत्रों में छपी थी तभी विदेशी फ्लाईट्स को रद्द कर या उनकी गहन जाँच कराकर देश के अन्दर प्रवेश दिया होता तो कोरोना फैल नहीं पाता। देश में महामारी से अभी तक लगभग 1,50,000 से ऊपर संक्रमित हुये हैं, परन्तु महामारी के नाम से पैदा हुये महा भय से लगभग करोड़-करोड़ प्रवासी मजदूर, 7 करोड़ किसान, 25-30 करोड़ अन्य मजदूर प्रभावित हुये हैं।
जिन अधिकारियों को जिम्मेदारी दी गई थी उनमें से अधिकांश ने फोन ही अटेन्ड नहीं किए। किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने इन अधिकारियों के टेलीफोन नं. की जाँच नहीं कराई कि कितने फोन अटैंड किये और क्यों नहंी किये गये? अगर एक सूबे में एक-एक अधिकारी के खिलाफ इस अपराधिक उपेक्षा के लिये कार्यवाही की होती तो प्रशासन ज्यादा उत्तरदायी बनता। किसी प्रतिपक्षी नेता ने भी इन अधिकारियों के विरूद्ध कार्यवाही की माँग नहीं की जबकि दिन में वह 10-10 बार ट्वीट करते है, इन पर कार्यवाही हो इसके लिये एक बार भी ट्वीट नहीं कर सके।
गाँव-गाँव में कोरोना के भय से जिस प्रकार समाज में स्वार्थपरता पैदा हुई है, उससे भी गाँव में आपस में अविश्वास फूट और कटुता बढ़ी है। यह कब मिटेगी और कैसे मिटेगी अपनों के दिये हुये घाव कैसे भरेंगे यह चिंता का विषय है। क्योंकि जो ग्रामीण समाज आसन्न संकट पर एक जुट होता था वह इस बार बँटा हैं इसके अलावा कुछ और भी समस्यायें सामने आयेंगी:-
कोरोना के प्रभाव व संक्रमण की वस्तु परक जानकारी के लिये, बड़े पैमाने पर जाँच जरूरी है, अगर यही रफ्तार रही तो शायद पूरे देश की जाँच में सदी गुजर जायेगी। जो मजदूर गाँव में वापिस पहुँचे है, दूध के जले है, वे यथः संभव गाँव के बाहर जाना नहीं चाहेंगे, और आगामी 1-2 वर्ष तो गाँव से नहीं ही जायेगे। उनके रोजगार की समस्या से गाँव प्रभावित होंगे, संयुक्त परिवारों पर खेती पर और विशेषतः छोटी खेती पर भारी दबाव बढ़ेगा। जिससे घरों में तनाव पैदा होंगे जमीन जायजाद के बँटवारे के झगड़े होंगे। गाँव में अधिकांश साहूकारों के कर्जदार बनेंगे, तथा पेट की खातिर इन नौजवानों का बड़ा हिस्सा शराब, नशा और अपराध की ओर बढ़ सकता है।
2. अभी तक जिन कारखानों में ये काम करते थे उन कारखानों के समक्ष मजदूरी का संकट आयेगा। वे इसका हल या तो स्वचालित मशीनों से करेंगे या फिर स्थानीय बेरोजगारों को ज्यादा मजदूरी देकर काम करायेंगे। मुझे लगता है कि, अब बड़े और समर्थ उद्योगपति आटोमेषन की ओर बढ़ेंगे तथा इन मषीनों और पूँजी की उपलब्धता के लिये वे विदेषी पूँजी के मालिकों की ओर झुकेंगे। मंदी, घाटे और ऋण से मुक्ति के नाम पर तो यह शुरू हो गया है। मुकेष अम्बानी जो देष के सबसे बड़े धनपति है, पिछले डेढ़़ माह में उन्होंने अपनी कम्पनी को ऋण मुक्त करने के नाम पर फेसबुक के मालिक को 48,000 करोड़ के लगभग 10 प्रतिषत शेयर तथा अन्य तीन विदेषी कम्पनियों को लगभग 22 हज़ार करोड़ यानि कुल मिलाकर 70 हज़ार करोड़ के शेयर्स बेचे है, इससे 17 प्रतिषत शेयर्स के मालिक विदेषी पूँजीपति हो गये हैं। अगर मुकेष अम्बानी की यह स्थिति है तो अन्य छोटे-मोटे या बीच के उद्योगपतियों का क्या होगा। मंदी व कर्ज के नाम पर यह विदेषी पूँजी के साथ कलोबरेषन (साझेदारी) और वैष्वीकरण तथा तथाकथित ओद्यौगिक क्रान्ति का डब्लू.टी.ओ. के समझौते के अनुसार 5वां चरण है।
भारत सरकार ने मनरेगा के माध्यम से मजदूरी के काम के लिये बड़ी राषि स्वीकृत की है, हो सकता है कि, अगली किष्त के पहुंचने तक मनरेगा पर खर्च 40 हज़ार करोड़ से बढ़कर 50-60 हज़ार करोड़ तक पहुंच जाये परन्तु क्या इससे समस्या का स्थाई हल तो दूर तात्कालिक हल भी नहीं निकलेगा?
यह वही मनरेगा है जिसे जब कांग्रेस सरकार ने शुरू किया था तो भाजपा और श्री नरेन्द्र मोदी ने मजाक उड़ाया था। अपने प्रथम कार्यकाल मंे मनरेगा की राषि को रोका भी था, और उसे बाद में लाचारी में दिया गया था। यह स्थापित तथ्य हैं कि, मनरेगा का न्यूनतम 50 से 60 प्रतिषत भ्रष्टाचार में जाता है और ग्रामीण जनप्रतिनिधि, सरपंच प्रधान, ब्लाक के निर्वाचित पदाधिकारी तथा ग्रामीण जनों के बीच यह पैसा बंट जाता है, विषेषतः गाँव के सम्पन्न और दबंग लोग अपने परिजनों के नाम मनरेगा में दर्ज करा देते हैं, और उनको नाम की मजदूरी का पैसा अफसर निर्वाचित प्रतिनिधि और फर्जी मजदूरों के बीच बँट जाता है। शेष 40 प्रतिषत का थोड़ा बहुत हिस्सा ही मानवीय श्रम पर खर्च होता है।
अन्यथा जे.सी.बी. और मषीनों से काम कराया जाता है, जन प्रतिनिधियों और अफसर की लाचारी है कि गाँव के नौजवान गाँव में मजदूरी नहीं करना चाहते और पैसे के हिसाब के लिये काम बताना जरूरी है। ये जो बाहर के वापिस आये मजदूर है, ये भी गाँव में या खेत में काम करेंगे उसमें शक है जो छ.ग., विंध्य के छोटे किसान या खेतिहर मजदूर है और जो कुछ अतिरिक्त कमाने के लिये बाहर मजदूरी के लिये जाते है, और फिर खेती के काम के समय लौट आते है, वे अवष्य ही अपनी खेती पर काम करेंगे। परन्तु अल्प षिक्षित, फुलपैन्ट कमीज वाले करखनिया मजदूर गाँव में काम नहीं करेंगे।
मेरा भारत सरकार और राज्य सरकारों को सुझाव हैं कि:-
1. डॉ. लोहिया ने देष के सूखा और बाद से स्थाई मुक्ति के लिये नदियों के पानी को सूखे खेत से जोड़ने की कल्पना प्रस्तुत की थी। अगर सरकार ‘‘लोहिया बाढ़ सूखा मुक्ति योजना’’ के नाम से एक राष्ट्रीय अभियान शुरू करें, जिसमें देष के प्रधानमंत्री से लेकर अफसर, कर्मचारी, छात्र नौजवान सभी शामिल किये जाये तथा मनरेगा के पैसे को इस योजना के मजदूरों पर खर्च किया जाये तो यह एक स्थाई व बेरोजगारी का हल सूखा बाढ़ सूखा मुक्ति का हो सकता।
2. सरकार एक माह में नहरों के जाल बिछाने के लिये जगह चिन्हित कराये और उन नहरों की खुदाई पर काम हो।
3. जिन किसानों के खेतों के बीच से या पास से सरकारी जमीन से नहर निकालना हो उन किसानों को इस राष्ट्रीय योजना में शामिल किया जाये। वे अपने अपने आवष्यकता के अनुसार नहर खुदाई का काम करें, और उस पर होने वाले खर्च का आंकलन कर उन किसानों की या तो सरकार उतनी राषि उनके खातों में डालें या मय ब्याज के उन्हें सिंचाई के शुल्क के बदले में उस राषि का समायोजन करें।
4. तहसील स्तर पर स्थानीय कृषि उपज या वनों उपज के आधार पर खाद्य प्रसंस्करण के कारखाने लगाये जाये। तहसील के किसानों से छोटे-छोटे षेयर्स की पूँजी लगवाई जाये और उन्हें उस पर वार्षिक प्रीमियम मुनाफे का हिस्सा तथा ब्याज दिया जाये। अगर देष के 40 हज़ार तहसीलों में फिलहाल एक-एक स्थानीय उपज के अनुसार कारखाना लग जाये तो कम से कम 4 लाख लोगांे को कारखानों में स्थाई तथा लगभग 30-40 लाख नौजवानों को निर्मित माल के विक्रय और डिलेवरी का काम मिल सकता है, अन्य जो सहयोगी कार्य होंगे जैसे सुरक्षा प्रहरी ट्रक चालक, ट्रेक्टर चालक आदि तथा इन कर्मचारियों की पूर्ति के लिये जो काम वाले लगेंगे वो अलग। पर किसी भी हालात में 70 लाख से 1 करोड़ लोगों को स्थानीय और स्थाई रोजगार मिल सकेगा तथा आम आदमी को सस्ता सामान मिलेगा व विदेषी पूँजी, एफ.डी.आई., विदेषी लूट से देष को मुक्ति मिलेगी।