जनवरी की बारिश जिसे मावटा कहा जाता है, उसकी हर बूंद गेहूं की फसल के लिए अमृत होती है। मगर इस साल इस बारिश की एक-एक बूंद दिल पर पत्थर की तरह लग रही है। हजारों किसान खुले, अधखुले टेंटों में दिल्ली के बाहर सड़कों पर पड़े हुए हैं। ऐसी शीत लहर में जब कपड़े और सामान भी भीग जाए तो उस ठिठुरन की कल्पना भी भयानक है। लेकिन दिल्ली नहीं देख रही, नहीं सुन रही। देश की राजधानी ने आंखें और कान बंद कर लिए हैं। उसे जिसे अन्नदाता कहते थे, जिसने देश के गोदाम अनाजों से भर दिए, हाथ में कटोरा लिए भारत की छवि को ध्वस्त करके खाध्यान में आत्मनिर्भर देश की नई तस्वीर बना दी, भीगता हुआ, ठिठुरता सड़क पर खड़ा है।
क्यों? केवल इस मांग के लिए कि हमें अंबानी, अडानी जैसों का गुलाम मत बनाओ। सरकारों को हमने हमेशा माई बाप कहा है। पटवारी और पुलिस को भी। इन सब के साथ हमारे संबंध खट्टे, मीठे बनते बिगड़ते रहे हैं। मगर इन प्राइवेट लोगों के साथ सिर्फ एक ही संबंध रहा है। शोषण का। प्राइवेट साहूकार ब्याज, चक्रवर्ती ब्याज, लगाकर पीढ़ियों से हमें लूट रहे हैं। मगर उन पर भी कहीं न कहीं से, कोर्ट, प्रशासन, सरकार से अंकुश लग जाता था। मगर ये देश के सबसे बड़े साहूकार हर अंकुश से परे हैं। कानून में पहले ही लिखवा लिया कि किसान अदालत में नहीं जा पाएगा। मतलब न खाता न बही, जो अंबानी, अडानी कहें वही सही!
इमरजेन्सी का नाम आते ही लोग इन्दिरा गांधी पर टूट पड़ते हैं। मगर इसके कुछ दूसरे पहलू भी हैं। इन्दिरा गांधी ने प्राइवेट साहूकारों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया था। देश में पहली बार ऐसा हुआ कि किसान की फसल आने के बाद साहूकार की हिम्मत उसके खलिहान पर जाने की नहीं पड़ी। बात बात में बहीखाता दिखाकर डराने वाले साहूकरों ने अपने बहीखातों को छुपा दिया था।
फिल्मों में कन्हैयालाल को याद कर लीजिए कैसे वह झूठे कागज दिखाकर किसानों को डराता था और फिर एक नायक, नायिका आते थे, जो सारे कागजों को फाड़ कर फैंक देते थे। वही वास्तविकता में इन्दिरा गांधी ने फैसले लिए थे। एक तारीख, सात तारीख, फैक्ट्रियों, मिलों, रेल्वे, दूसरे आफिसों में जहां जिस दिन तनखा मिलती थी, वेतन वितरण खिड़की से लगा खड़ा हुआ साहूकार या उसका गुंडा दिखना बंद हो गया था। कांग्रेस तो अपनी गौरवशाली विरासत को भूली बैठी पार्टी है, मगर किसानों, मजदूरों, दूसरे नौकरीपेशा लोग, छोटे दूकानदारों को आज भी यह याद है कि ऊंची और मनमानी ब्याज दरों से उन्हें किस तरह मुक्ति मिली थी।
इन्दिरा बैंकों का राष्ट्रीयकरण पहले ही कर चुकी थीं। मगर किसान, छोटे दूकानदार, बेरोजगार युवा को बिना ब्याज के या कम ब्याज दर पर कर्ज देने के काम में इमरजेन्सी में ही गति आई थी। आप कांग्रेस के किसी नेता से इस बारे में बात करें तो ज्यादातर अनभिज्ञ मिलेंगे, या इन्दिरा के गरीब समर्थक रवैये को ही गलत ठहराना शुरू कर देंगे। इनमें छोटे या मध्यम दर्जे वाले नहीं, शिखर पर पहुंचे जो केन्द्र में मंत्री, संगठन में उच्चतम पदों तक रहे नेता भी शामिल हैं।
कांग्रेस का बुरा हाल ऐसे ही नहीं हुआ है। बाहर के हमलों से ज्यादा इसे अंदर से खोखला किया गया है। बहुत सारे उदाहरण हैं। फिलहाल एक जो इन्दिरा गांधी से ही शुरु होता है। प्रणव मुखर्जी का। जिन्हें इन्दिरा गांधी ने अपने मंत्रिपरिषद में रखा। सोनिया ने राष्ट्रपति बनाया। इस अप्रिय तथ्य के बावजूद कि प्रणव ने राजीव गांधी से बगावत की थी। मगर हुआ क्या? जिस नोटबंदी का समर्थन करने में भाजपा के नेता हिचक रहे थे उसका समर्थन करने में सबसे पहले प्रणव मुखर्जी सामने आए।
राष्ट्रपति होते हुए उन्हें कम से कम पद की मर्यादा ही देख लेनी चाहिए थी। मगर कांग्रेस में सब कुछ पाए नेताओं की यह खास बात है कि वे दूसरी पार्टियों खासतौर से भाजपा को खुश रखने के लिए कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। राष्ट्रपति न रहने के बाद उन्हें सबसे पहले नागपुर की याद आई। वहां संघ के मुख्यालय में जाकर उन्होंने राहुल गांधी की संघ पर की जा रही आलोचनाओं की धार कम करने की कोशिश की।
तो प्रसंगवश कांग्रेस के नेताओं का यह विश्वासघाती चरित्र याद आ गया जिसने कांग्रेस को आज उस कमजोर स्थिति में पहुंचा दिया, जहां से वे उन किसानों की कोई मदद नहीं कर पा रहे, जिनका साथ लेकर उनके सबसे मजबूत नेताओं में एक इन्दिरा गांधी ने देश में हरित क्रान्ति की थी जिसकी बदौलत ही देश के गोदाम अनाजों से भर गए थे।
आज उन्हीं गोदामों पर, उसी हरित क्रान्ति की बदौलत उपजे अनाजों पर अंबानी-अडानी की नजरें है। किसान के खेत पर कब्जे की मंशा है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि मुट्ठी भर उद्योगगपति और उनका मुनाफा सुनिश्चित करना ही इस सरकार का मुख्य अजेंडा है। सोनिया का दर्द सही है। उन्होंने ही किसानों की ऐतिहासिक कर्ज माफी की थी। मनरेगा लाईं थीं, जो मूल रूप से छोटे किसान और गांव के भूमिहीन श्रमिक के लिए था। यूपीए सरकार में इसके लिए समर्थन जुटाना आसान नहीं था। खासतौर से सरकार में शामिल कांग्रेस के वरिष्ठ मंत्री ही इसे बेहद खर्चिला और अनुपयोगी बता रहे थे। लेकिन ये सोनिया का गांव किसान के प्रति कोई गहरा अनुराग ही था जो उन्होंने सभी विरोधों के बावजूद इन्हें लागू करवाया।
पता नहीं मगर हो सकता है कि शायद उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली के सपूत आचार्य महवीर प्रसाद द्विवेदी के निबंध “ स्वदेश के सर्वस्व अर्थात हमारे अन्नदाता “ को पढ़ा या सुना हो। हमारे यहां लेखकों को उनके गृहनगर में याद रखने की कोई परंपरा नहीं है, मगर रायबरेली ने अपनी माटी के पुत्र प्रसिद्ध आलोचक आचार्य द्विवेदी को अच्छे से याद रखा है। उनकी एक प्रतिमा वहां है। रायबरेली के ही रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार और इन दिनों अवध के किसान आंदोलन के सौ साल पर शोध कर रहे फिरोज नकवी ने बताया कि आचार्य द्विवेदी ने इस निबंध में लिखा है कि-
आजकल देश, देश भक्ति की बातें हो रही हैं। पर देश है क्या ? नदी, पर्वत, पेड़, पहाड़ तो देश नहीं हो सकते। गांव, कस्बे, शहर भी देश नहीं। क्योंकि ये जड़ हैं, इनसे भक्ति कैसी? अच्छा तो क्या वकील और जज आदि देश हैं, सेठ, साहूकार बनिए, महाजन देश हैं, राजे महाराजे देश हैं? नहीं! तो क्या गवर्मेंट देश है? सो तो किसी तरह नहीं। इनकी संख्या कितनी है, दाल में नमक के बराबर भी नहीं।
आचार्य द्विवेदी आगे लिखते हैं कि “ सच पूछिए तो देश के किसान, देश के खेतिहर ही देश हैं। क्योंकि उन्हीं की संख्या सबसे अधिक है। संख्याधिक्य के सिवा उनका कार्य, पेशा भी सबसे मह्त्व का है। यदि वे मालगुजारी न दें तो सरकार का खर्चा न चले और अनाज न पैदा करें तो सेठ साहूकार दाने-दाने को मोहताज हो जाएं। अतएव किसानों का समुदाय ही देश है। इसलिए किसानों के अधिकारों की रक्षा करने ही सबसे बड़ी देशसेवा, सबसे बड़ी देशभक्ति है। “
102 साल पहले आचार्य प्रवर की लिखी ये बातें आज भी प्रासंगिक हैं। मगर क्या कोई सुनेगा? किसान जिसे हिन्दी के महान आलोचक अचार्य द्विवेदी ने देश कहा उसे आज खालिस्तानी, पाकिस्तानी, माओवादी, पता नहीं क्या क्या कहा जा रहा है। क्यों? सिर्फ इसलिए कि वह अंबानी-अडानी जैसों की गुलामी को तैयार नहीं है।