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हथकंडों के मौसेरेपन की जुगलबंदी का डर

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हथकंडों के मौसेरेपन की जुगलबंदी का डर
अब भी देर हुई तो कांग्रेस देश की चिंता का विषय ही नहीं रह जाएगी। देश को समझदार विपक्ष चाहिए, कांग्रेस दे या कोई और। वह ज़माना गया, जब लोग माने बैठे थे कि सारी समझदारी का ठेका कांग्रेस ने ही ले रखा है। नासमझी का दौर दरअसल इतना लंबा पसर चुका है कि उकताए बैठे लोगों को लालबुझक्कड़ में भी सिद्धिविनायक दिखाई देने लगे हैं। यह स्थिति बदलने के लिए कांग्रेस-अध्यक्ष सोनिया गांधी को पार्टी की कार्यसमिति तुरंत भंग कर देनी चाहिए। five state assembly election जिन्हें बुरा मानना हो, मानें, मगर सच्चाई यही है कि देश का मौजूदा सियासी दृश्य कांग्रेस के हाथों जाने-अनजाने हुए पापों का नतीजा है। जिन्हें बुरा मानना हो, माने, मगर यह भी सच्चाई है कि पांच राज्यों के चुनाव नतीजों को कांग्रेस की अर्थी में अंतिम कील बताने वाले अपने ढब्बूपन के चरम पर हैं और अंततः ग़लत साबित होंगे। जिन्हें बुरा मानना हो, मानें, मगर यह सच्चाई है कि ऊपर से ठोस नज़र आ रही नरेंद्र भाई मोदी की यह जीत भीतर से तो भुरभुरी ही है। और, जिन्हें बुरा मानना हो, मानें, मगर सच्चाई यह भी है कि पंजाब के बाद पूरे मुल्क़ में इंकलाब लाने को उछल रहे लोगों के हाथ लग गया सत्ता का ताजा उस्तरा ऐसी गलाकाटू मिसाल बनने वाला है कि सब को अपनी मैया याद आ जाएगी। कांग्रेस का पाप क्या है? कांग्रेस का पहला ऐतिहासिक पाप यह था कि अपनी भलमनसाहत का दुशाला उतार कर न फेंकने के चक्कर में उसने 2009 के बाद के पांच बरस में अपने हमजोलियों के अधनंगे नाच की तरफ़ से आंखें फेर लीं, शासकीय-प्रशासकीय कार्यक्रमों और नीतियों को लकवाग्रस्त होने दिया और देश को उस शून्य में सरकने दिया, जिस से रायसीना की पहाड़ियों पर नरेंद्र भाई का जन्म हुआ। कांग्रेस का दूसरा ऐतिहासिक पाप यह है कि पौने आठ साल में, और ख़ासकर पिछले पौने तीन साल में, वह ख़ुद को सकल-विपक्ष का सर्वसम्मत चेहरा बनाने की संजीदा कवायद करने से बचती रही। नतीजतन, विपक्ष के प्रसूतिगृह में अब अरविंद केजरीवाल की किलकारियां गूंज रही हैं। 2019 की 3 जुलाई को अध्यक्ष पद छोड़ कर कांग्रेस को शिखर-शून्यता के हवाले कर देने से बड़ा पाप राहुल गांधी और क्या कर सकते थे? नरेंद्र भाई मोदी के दूसरे राजतिलक के बाद ऊहापोही के ये पौने तीन साल अगर कांग्रेस के जीवन में न आए होते तो क्या आज कांग्रेस की यह हालत होती? क्या आज सकल-विपक्ष की यह दशा होती? किसी देश की हुकूमत अगर आत्मकेंद्रित अधकचरे हाथों में चली जाए तो देश शायद फिर भी किसी तरह बच जाए, लेकिन अगर पूरी सियासत ही ठिलवों के हवाले हो जाए तो ऐसे मुल्क़ को बचाने कौन-सा पैगंबर आएगा? नरेंद्र भाई की अखिल भारतीय करतूतों का विपक्षी जवाब भविष्य में अगर केजरीवाल की अखिल भारतीय कलाबाज़ियां बनने वाली हैं तो हथकंडों के इस मौसेरेपन की जुगलबंदी के आसार मेरे तो रोंगटे खड़े कर रहे हैं। आत्ममुग्धता, एकाधिकारवाद, अधिनायकी और ढोंगधतूरेपन में केजरीवाल नरेंद्र भाई से इक्कीसे ही हैं। पक्ष-विपक्ष की यह चारित्रिक समरूपता क्या आपको बुरी तरह भयभीत नहीं कर रही? पांच राज्यों में भाजपा की जीत के भीतर के पोलेपन का दर्शन करने के लिए किसी दिव्यदृष्टि की ज़रूरत नहीं है। उत्तर प्रदेश में जिस भाजपा को 2017 के चुनाव में 384 सीटों पर लड़ने के बाद 312 सीटें मिली थीं, उसे आज पूरी 403 सीटें लड़ने के बाद 255 पर ही जीत मिली है। यानी पहले से 57 सीटें कम हुई हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश के 274 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। यानी इस लिहाज़ से भी वह 19 पायदान नीचे गिरी है। तब उसे साढ़े 49 प्रतिशत वोट मिले थे। सो, अब उसके वोट भी साढ़े छह फ़ीसदी कम हुए हैं। पंजाब में भाजपा सिर्फ़ 3 सीटें ही जीत पाई है। उत्तराखंड के पिछले चुनाव में भाजपा 57 सीटें जीती थी। इस बार 47 जीती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में वह उत्तराखंड के 65 विधानसभा क्षेत्रों में आगे थी। इस हिसाब से तो उसकी 18 सीटें कम हुई हैं। वोट भी पिछली बार साढ़े 46 प्रतिशत था। इस बार सवा दो प्रतिशत कम हो गया है। मणिपुर में भी भाजपा का वोट-प्रतिशत घटा है। इसलिए भाजपा की जीत इतनी भव्य भी नहीं है, जितनी मीडियाधीश हमें बता रहे हैं। Five state assembly election five state assembly election Read also “बात राष्ट्रवाद की है”!  हां, इतना ज़रूर है कि फटेहाल अर्थव्यवस्था, महामारी के कुप्रबंधन और किसान आंदोलन की लपटों के बाद गांव-गांव से भगाए जा रहे भाजपाइयों की जैसी बदहाली हो रही थी, नतीजे उस से भिन्न हैं। क्यों हैं, कैसे हैं, जिन्हें इसके अकादमिक विश्लेषण से सुकून पाना हो, पा लें और जिन्हें संदेह के बादलों से संतोष होता हो, कर लें। अगर ज़हर, नफ़रत, हिंसा, पूर्वाग्रह, दमन और छल-कपट मतदाताओं की चिंता का विषय नहीं हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे अब समूची सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की चिंता का सबब न बनंे। महाविनाश की तरफ़ जाना है तो ज़रूर इसकी फ़िक्र मत कीजिए और चादर तान कर सोइए। ऐसा हुआ तो सकल-विपक्ष की नालायकी का ख़ामियाजा पूरा देश भुगतेगा। बुनियादी मूल्यों को ले कर हमारी नैतिकता के दिशासूचक यंत्र की सुई अगर इस कदर भ्रमित हो कर डोल रही है तो यह माथे पर हाथ रख कर सोचने की बात नहीं है क्या? इन चुनाव नतीजों ने तीन बातें पूरी तरह साफ कर दी हैं। एक, लोग अगर एक मजबूत सरकार चाहते हैं तो एक उतना ही मजबूत विपक्ष भी चाहते हैं। इसलिए बेतरह बिखरी हुई पहचानों का कोई विपक्षी गठबंधन अब काम नहीं आने वाला। दो, सामाजिक गुणा-भाग के पारंपरिक समीकरण बेमानी होते जा रहे हैं। इसलिए जातिगत और सामुदायिक आधार पर चुनावों में समर्थन हासिल करने की रणनीतियां अप्रासंगिक होती जाएंगी। तीन, सत्ता हो या विपक्ष - उन के नेतृत्व के प्रति विश्वास नहीं होगा तो किसी की भी गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी। सिर्फ़ लोकतंत्र को खतरे की चिंता जाहिर कर के कुछ नहीं होगा, क्योंकि मतदाताओं को आमतौर पर जनतंत्र की सिकुड़न, संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण और वैश्विक राजनय में कोताहियों से कोई लेनादेना नहीं रह गया है। (five state assembly election) इसलिए कांग्रेस को अगर सचमुच भाजपा के ख़िलाफ़ कोई एकजुट विपक्षी विकल्प खड़ा करना है तो सबसे पहले तो उसे अपने शिखर का शून्य समाप्त करना होगा। इसके लिए संगठन-चुनाव संपन्न होने का इंतज़ार करना अब और आत्मघाती साबित होगा। कांग्रेस-अध्यक्ष का चुनाव होने में समय-सारिणी के हिसाब से अभी छह महीने बाकी हैं। इतने में तो बाकी की रेत भी मुट्ठी से फिसल जाएगी। राहुल का रणछोड़ बने रहना कांग्रेस का दुर्भाग्य है। कब्र में लटके कांग्रेस के पैरों को बाहर खींचने का काम किसी भी चेहरे के पीछे खड़े हो कर हो, लेकिन राहुल-प्रियंका की अनुपस्थिति में यह मुमकिन नहीं है। सो, असली ज़रूरत शिखर नेतृत्व को नन्हे-मुन्ने राहियों की प्रयोगधर्मिता से मुक्ति दिलाने की है। दुर्बुद्धिमान अगलियों-बगलियों से छुटकारा पाए बिना कांग्रेस का पुनर्निर्माण नहीं होगा। इसकी पहलकदमी में अब भी देर हुई तो कांग्रेस देश की चिंता का विषय ही नहीं रह जाएगी। देश को समझदार विपक्ष चाहिए, कांग्रेस दे या कोई और। वह ज़माना गया, जब लोग माने बैठे थे कि सारी समझदारी का ठेका कांग्रेस ने ही ले रखा है। नासमझी का दौर दरअसल इतना लंबा पसर चुका है कि उकताए बैठे लोगों को लालबुझक्कड़ में भी सिद्धिविनायक दिखाई देने लगे हैं। यह स्थिति बदलने के लिए कांग्रेस-अध्यक्ष सोनिया गांधी को पार्टी की कार्यसमिति तुरंत भंग कर देनी चाहिए। संगठन के चुनाव अपने समय पर हों, लेकिन हर स्तर पर पार्टी के पुनर्गठन का काम शुरू करने के लिए अगस्त तक का इंतज़ार करना तो एक और पाप होगा। समय तो पापों के प्रायश्चित का है, पापों की गठरी और भारी करने का नहीं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।) five state assembly election
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