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स्वतंत्रता संग्राम और दयानन्द सरस्वती

स्वतंत्रता संग्राम और दयानन्द सरस्वती

स्वामी दयानन्द धार्मिक नेता ही नहीं, अपितु वे सच्चे राजनैतिक नेता भी थे। उनसे साधु- संतों के साथ ही क्रांतिकारी- राजनीतिक व्यक्तित्व भी समय- समय पर मिलते रहते थे। उनके साथियों में गुरु परमहंस गोविन्दराम, रामसहाय दास उर्फ़ जगनानन्द आदि भी थे।  ये सब लोग सन 1855-56 में गुरु विरजानन्द से आज्ञा लेकर भारत के साधु समाज के हुक्म से क्रांति यज्ञ में आहुति डालते रहे थे।

 स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन् 1857 की क्रांति से पहले 1855 ईस्वी में घर छोड़ा था। उन्होने हरिद्वार कुम्भ मेले में स्वामी पूर्णानन्द से व्याकरणसूर्य गुरु विरजानन्द का पता लिया। वे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर पूर्णानन्द से प्रेरित मथुरा पंचायत में पहुँचें। 11 अक्तूबर 1855 कोवापिस स्वामी पूर्णानन्द की गुप्त साधु सभा में शामिल होने के लिए हरिद्वार गए। इसी वर्ष के अंत में बिठुर में पांच दिन तक नाना साहब से मिले। विशेष योजना का हिस्सा बने। योजना के क्रियान्वयन हेतु 1856 ईस्वी तक ग्यारह बार तीर्थ स्थानों पर नाना साहब से उनकी मुलाकात हुई थी। उन्होने नाना साहब से कहा था कि अंग्रेजों से स्वतंत्र होने पर पंचायती राज चलाकर सम्पूर्ण भारत को स्वर्ग बनाएँगे। ऋषि ने देश भ्रमण के दौरान दिल्ली के चारों और खाप पंचायतों में देशप्रेम, वीरता, सदाचार और सात्विक विचारों को जाना-समझा।

क्रांति असफल हुई तो मई 1857 से नवम्बर 1860 के अपने अज्ञातवास में महर्षि दयानन्द ने विफलता के कारणों को जानने और अँग्रेजी अत्याचारों से शोषित जनता की जानकारी लेने के लिए गुप्त भ्रमण किया। वे श्वेत अश्वारोही भी रहे थे। गोल मुख वाले अश्वारोही स्वामी दयानन्द 1857 से 1859 तक कई बार विभिन्न स्थलों पर विभिन्न क्रांतिकारियों के साथ देखे गये थे। इन तीन वर्षों की अज्ञात यात्रा में भारत के बड़े-बड़े राजविद्रोहियों के क्रांति कार्यों की खुफिया जांच करने वाले स्वदेशी-विदेशी सरकारी कर्मचारियों से स्वामी दयानन्द की कुल इकतीस बार मुठभेड़ हुई।एक बार सन 1858 में एक नामालूम मुकाम पर निकला अंग्रेज अधिकारी पन्द्रह घुड़सवारों सहित स्वामी जी के पास आ धमका और कुछ प्रश्नोंत्तर कर क्षमा सहित उन्हे मसीहा मानकर सवा सौ रुपए देकर चला गया। फिर नवम्बर 1860 में स्वामी दयानन्द मथुरा में गुरु विरजानन्द से स्पष्टतया मिले। ढाई वर्ष अष्टाध्यायी, महाभाष्य, दर्शन, उपनिषद,  निरुक्त ग्रंथ पढे। व्याकरण पाठ के समय के अतिरिक्त एकांत समय में भी इन अपूर्व गुरु-शिष्य में विचार होता था। गुरु विरजानन्द क्रांति पश्चात तीन वर्षों के देश भ्रमण की इतिवृत्त दयानन्द से सुन उन्हें विश्वस्त समझ राजनयिक गोष्ठी के एकांत में उनसे वार्तालाप करते थे।

स्वामी दयानन्द धार्मिक नेता ही नहीं, अपितु वे सच्चे राजनैतिक नेता भी थे। उनसे साधु- संतों के साथ ही क्रांतिकारी- राजनीतिक व्यक्तित्व भी समय- समय पर मिलते रहते थे। उनके साथियों में गुरु परमहंस गोविन्दराम, रामसहाय दास उर्फ़ जगनानन्द आदि भी थे।  ये सब लोग सन 1855-56 में गुरु विरजानन्द से आज्ञा लेकर भारत के साधु समाज के हुक्म से क्रांति यज्ञ में आहुति डालते रहे थे। रामसहायदास और गोविंदराम रानी झाँसी के यहाँ रहते थे। रानी के बलिदान होने पर ये दोनों साधु बन गए थे। इस तरह 125 इनके पहले साथी थे। 1857 स्वाधीनता संग्राम काल में कभी घोड़ों पर तो कभी पैदल और कभी ऊंटों पर सवार होकर इन्होने सन 1855- 58 के शुरू तक देश में क्रांति यज्ञ में आहुति डाली थी।

इस संग्राम में भारतीयों की आपसी फूट, उत्तम अस्त्राभाव, अनुशासनहीनता तथा कुशल नेतृत्व के अभाव में निश्चित तिथि से पहले ही मेरठ में युद्ध छिड़ जाने से मिली असफलता से महर्षि जी बहुत दुखित हुए। इसलिए एक बार कहा था कि सारे भारत में घूमने पर भी मुझे धनुर्वेद के केवल ढाई पन्ने ही मिले है। यदि मैं जीवित रहा तो सारा धनुर्वेद प्रकाशित कर दूंगा। स्वामी जी ने यही बात दोबारा नवंबर 1878 ईस्वी में अजमेर में कही थी। क्रांति को कुचलने के बाद सन1858 में महारानी विक्टोरिया ने कहा था कि भारतीय प्रजा के साथ माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया का व्यवहार किया जाएगा। यही कारण है कि स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ-प्रकाश में लिखा है कि कोई कितना ही करे परंतु स्वदेशी राज्य सर्वोपरि उत्तम होता है……..प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं होता।

1857 संग्राम में अँग्रेजी तोपों द्वारा महलों के तोड़ने, बाघेरों द्वारा लड़ने की घटना महर्षि दयानन्द ने स्वयं देखी थी, इसीलिए 11वें समुल्लास में वे लिखते हैं कि जब सन 1857 ई० के वर्षों में तोपों के मारे मन्दिर मूर्तियाँ अंग्रेजों ने उड़ा दी थी। तब मूर्ति कहाँ गई थी? प्रत्युत बाघेर लोगों ने जितनी वीरता से लड़े, शत्रुओं को मारा परंतु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्रीकृष्ण के सदृश (समान) कोई होता तो इनके धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते। यह घटना उनका प्रत्यक्षदर्शी होना सिद्ध करती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 1857 के स्वाधीनता संग्राम में भी देश के साधु- संत विद्वतवर्गों के साथ ही स्वामी दयानन्द ने बहुत कुछ किया, लेकिन देश के कपूतों ने ही दगा करके हरवा दिया।

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Published by अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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