
महात्मा बुद्ध ने जीवन भर किसी नए धर्म की स्थापना नहीं की थी, अपितु वे तो जीवन पर्यंत वैदिक धर्म के अनुयायी रहे। बुद्ध पाली भाषा का प्रयोग करते थे तथा उनके उपदेश वैदिक शिक्षा पर आधारित थे। महात्मा बुद्ध ने स्वयं किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की थी, बल्कि उनके मुख्य उपदेशों को संगृहीत करके धम्म पद पुस्तक का संकलन किया गया है, जिसमें 26 अध्याय और 423 उपदेश हैं।
16 मई 2022 को बुद्ध जयंती
भगवान गौतम बुद्ध संसार के धर्म प्रचारकों में एक दैदीप्यमान प्रकाश स्तम्भ की भांति आकाश में अपना दिव्य प्रकाश ढाई हजार वर्षों से संसार में बिखेर रहे हैं। वे अहिंसात्मक सिद्धांतों के लिए बौद्ध धर्म के संस्थापक के रूप में संसार में पूजनीय, नमनीय और ग्राह्य सिद्ध हैं। अत्यंत सरल स्वभाव के गौत्तम बुद्ध उच्च कोटि के साधक थे, जिन्होंने आस्था के नाम पर समाज में व्याप्त कुरीतियों व पाखंडों का युक्ति युक्त खण्डन किया, और अष्टांगयोग का सरलीकरण कर जनता के समक्ष नए रूप में प्रस्तुत किया। ईश्वर को परमसत्य का नाम देने वाले बुद्ध की विपश्यना ध्यान विधि मन को विकारों से मुक्त करने के लिए एक अत्यंत परिष्कृत विधि है। गौतम बुद्ध का पूरा ज़ोर ध्यान, समाधि पर था।
वर्तमान पण्डे, पुजारियों, मुल्लों, पादरियों के मकड़जाल से मुक्त करवाने में गौतम बुद्ध के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। विपश्यना एक वैज्ञानिक विधि है, परन्तु बुद्ध के शिष्यों ने बुद्ध के नाम से इसके विपरीत इतिहास प्रस्तुत कर बहुत पाखण्ड खड़ा कर दिया है। बौद्ध साहित्य के समीचीन अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इनका महात्मा बुद्ध व उनके विचारों से दूर- दूर तक कोई नाता नहीं। महात्मा बुद्ध ने जीवन भर किसी नए धर्म की स्थापना नहीं की थी, अपितु वे तो जीवन पर्यंत वैदिक धर्म के अनुयायी रहे। बुद्ध पाली भाषा का प्रयोग करते थे तथा उनके उपदेश वैदिक शिक्षा पर आधारित थे। महात्मा बुद्ध ने स्वयं किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की थी, बल्कि उनके मुख्य उपदेशों को संगृहीत करके धम्म पद पुस्तक का संकलन किया गया है, जिसमें 26 अध्याय और 423 उपदेश हैं। बुद्ध के नाम से राजनीति की दूकान चलाने वाले छद्म बौद्धों का धम्म पद की शिक्षाओं से दूर दूर तक का कोई वास्ता, नाता नहीं है। जय भीम का मन्त्र जाप करने वाले इन छद्म बौद्धों को यह स्मरण रखना चाहिए कि इस प्रकार का कोई भी वाक्य बुद्ध के किसी भी उपदेश में देखने को नहीं मिलता। स्वयं महात्मा बुद्ध के अनुयायियों द्वारा जाप किये जाने वाले मन्त्र – ॐ मणि पद्मे हुम्- का हिंदी अनुवाद है – ॐ ही सत चित आनंद है। वैदिक ग्रन्थों में भी ईश्वर के सम्बन्ध में इसी प्रकार कहा गया है – ओमित्येदक्षर्मिदम सर्वं तस्योपव्याख्यानम ।
अर्थात- समस्त वेदादि शास्त्रों में ॐ को ही ईश्वर का मुख्य नाम माना है।
आज के बौद्ध अग्निहोत्र तथा यज्ञादि कार्य को व्यर्थ मानते हैं, और गायत्री आदि मन्त्रों को ढोंग मानते हैं, लेकिन इसके विपरीत महात्मा बुद्ध ने अग्निहोत्र व गायत्री मन्त्र को विशेष महत्व दिया है –
अग्गिहुत्तमुखा यज्ञाः सावित्री छंदसो मुखम।
-सुत्तनिपात श्लोक 569
अर्थात- यज्ञों में अग्निहोत्र मुख के समान प्रधान है, और छंद का मुख सावित्री अर्थात गायत्री मन्त्र है।
महात्मा बुद्ध ने सुत्तनिपात श्लोक 458 में उपदेश देते हुए कहा है कि वेदों को जानने वाला जिसके यज्ञ की आहुति को प्राप्त करे उसका यज्ञ सफल होता है ऐसा मैं कहता हूँ। महात्मा बुद्ध ने अपने अनेक उपदेशों में यज्ञ आदि कर्म को विशेष महत्व दिया है, जबकि इसके विपरीत स्वयं को महात्मा बुद्ध का अनुयायी बताने वाले छद्म बुद्धिष्ट यज्ञ आदि को पाखण्ड बताते हैं। छद्म बौद्ध सनातन धर्म को गाली देना अपना परम कर्तव्य मानते हैं, लेकिन ये मानसिक रोगी शायद ये नहीं जानते कि भगवान बुद्ध स्वयं को सनातन धर्म का अनुयायी मानते थे –
नहि वेरेन वेरानि सम्मंतीध कदाचन ।
अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो।।
– धम्मपद यमक वग्गो 5
अर्थात -वैर से कभी वैर शांत नहीं होता वह अवैर से ही शांत होता है, यही सनातन धर्म है।
बुद्ध से सम्बन्धित साहित्यों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि बुद्ध ने जीवन पर्यन्त वैदिक धर्म का अनुसरण किया, उन्होंने कभी किसी नए धर्म की स्थापना नहीं की। फिर भी वर्तमान में बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध माने जाते हैं। बुद्ध वैचारिक स्वतंत्रता के पूर्ण पक्षधर थे। एक बार श्रावस्ती के समीप कोशल जनपद के केसपुत्रीय नामक गाँव के उद्यान में स्थानीय ग्रामीणों के द्वारा पूछे गये एक सवाल के जवाब देते हुए स्वयं बुद्ध ने यह घोषणा की -आप लोग कोई बात इसलिए मत मानो कि उसे बहुत लोग मानते हैं या उसे मानने की परम्परा है या वह पुराणों या धर्मग्रंथों में लिखी है या वह बहुत बड़े आचार्य या विख्यात गुरूजी कह रहे हैं या वह बात मैं स्वयं कह रहा हूँ। मेरी कही हुई बात को भी अपनी तर्क की कसौटी पर कसे बिना मत मानो। मतलब जैसे सोने को तपाकर,छेदकर,कसकर ग्रहण करते हैं वैसे ही मेरे वचनों का भी परीक्षण करो।
आज तथाकथित बड़े -बड़े धर्म उपदेशकों, आचार्यों के द्वारा अपने प्रवचनों के दौरान अपनी सभा में उपस्थित दर्शकों या श्रोताओं से तर्क और बहस करने से बिल्कुल मना कर देने की प्रवृत्ति वाले युग में भी बुद्ध की यह घोषणा अत्यंत प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है। उनके जीवनवृत की इस कथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अपने शिष्यों (अनुयाइयों ) को वैचारिक रूप से पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करने के पक्षधर थे। बुद्ध का यह संदेश था कि किसी दूसरे पर आश्रित न रहो, आत्म दीपो भवः। बुद्ध का यह संदेश था – तुम अपने प्रदीप (दीपक ) स्वयं बनो,अपनी शरण ग्रहण करो। अर्थात किसी पर आश्रित मत बनों, उसकी कृपा पर निर्भर मत बनो, स्वावलम्बी बनो,स्वाभिमानी बनो,अपने कर्मों से स्वयं को और समस्त संसार को दीपक की तरह आलोकित करो।
एक बार बुद्ध के प्रिय शिष्य आनन्द ने नदी तट भ्रमण के दौरान उनसे पूछा कि संसार में बहुत से लोग पूजा क्यों करते हैं? इस पर तथागत ने उत्तर देते हुए कहा – करते होंगे पूजा, परन्तु पूजा निरर्थक है। बुद्ध ने आगे कहा- यदि तुम्हें यह नदी पार करनी हो तो क्या तुम नदी के किनारे बैठकर इसकी पूजा करने लगोगे तो इस नदी को पार कर जाओगे? पूजासे नदी का दूसरा किनारा तुम्हारे पास आ जायेगा क्या? नहीं, हर्गिज नहीं, नदी पार करने के लिए नाव का सहारा लेना ही पड़ेगा या तैरकर जाना पड़ेगा। अन्य धर्म प्रचारकों की भांति बुद्ध ने किसी चमत्कार या अलौकिक शक्तियों से भ्रमित करने का प्रयास कभी नहीं किया। अपने प्रधान धम्म सेनापति सारिपुत्त के द्वारा जंगल भ्रमण के समय उनकी प्रशंसा में संसार में उनके सबसे बड़ा ज्ञानी होने की बात कहे जाते सुन बुद्ध ने जंगल से मुट्ठी भर सूखी पत्तियों को उठाकर कहा कि मेरा ज्ञान बस इतना ही है ,परन्तु संसार का ज्ञान इस जंगल के सारे पत्तों से भी ज्यादे है, अनन्त है। बुद्ध ने जाति, वर्ण, अस्पृश्यता, मानवीय विषमता, शोषण,धार्मिक यज्ञों में कथित देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के पाखंड के लिए बलि के नाम पर निरीह और निरपराध पशुओं के बध और पाखण्डों का खुलकर विरोध किया।
उन्होंने अपने संघ में प्रकृति जैसी चण्डालिका, सुभूति नामक भंगी, श्वपाक नामक नीच कुल के व्यक्ति, सुजाता और आम्रपाली जैसी वेश्याओं तथा अंगुलिमाल्य नामक दुर्दांत डाकूओं को भी अपने संघ में सम्मानजनक स्थान दिया। उन्होंने ज्योतिष की निरर्थकता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हुए कहा कि नक्षत्रों की गणना से मानव कल्याण को जोड़ने वाले मूर्ख और भ्रमित लोग हैं, क्योंकि जो लोग अपनी उन्नति करने में स्वयं असमर्थ हैं, उनका नक्षत्र और तारे क्या करेंगे? बुद्ध ने सदा मध्यम मार्ग पर चलने, संयम, परिश्रम,चित्त की एकाग्रता को ही सर्वोपरि माना है। उन्होंने सदा परिश्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है, इसीलिए उनकी संस्कृति को श्रमण संस्कृति भी कहा जाता है। ऐसे महान, विनम्र, अंधविश्वास, पाखण्ड और रूढ़िवाद की जड़ काटने वाले वैज्ञानिक और बुद्धिवादी सोच के महामानव भगवान गौतम बुद्ध को उनकी जयंती पर कोटिशः नमन ।