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सिखों के दशम गुरु, गुरु गोविंद सिंह

पिता गुरु तेग़बहादुर की बलिदान के बाद 9 वर्ष की अल्पायु में ही बालक गोविंद राय को गुरु गद्दी सम्हालनी पड़ी, तो गुरु की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फ़ारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गोविंद राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिखों को भी अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया। सिखों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। उनका नारा था- सत श्री अकाल।

5 जनवरी -गुरु गोविंद सिंह जयंती

सिख धर्म के सर्वाधिक वीर योद्धा व निर्बलों को अमृतपान करवा शस्त्रधारी बनाकर उनमें वीर रस भरने वाले सिख समुदाय के दसवें व अंतिम धर्मगुरु (सतगुरु) गोविंद सिंह (जन्म- 22 दिसम्बर सन् 1666 ईस्वी पटना, बिहार, मृत्यु- 7 अक्तूबर सन् 1708 ईस्वी नांदेड़, महाराष्ट्र) न केवल सिखों के सैनिक संगति और ख़ालसा के सृजन के लिए प्रसिद्ध हैं, बल्कि गुरु गोविंद सिंह सिख पन्थ में शरीरधारी मनुष्यों के लिए गुरु की पदवी को समाप्त करने के उद्देश्य से गुरु ग्रन्थ साहिब को सिखों का गुरु बनाने के लिए भी लोकख्यात हैं। उन्होंने ही सर्वप्रथम खालसा पन्थ में सिंह उपनाम लगाने की शुरुआत की, और आदेश दिया कि आगे से कोई भी देहधारी गुरु नहीं होगा और गुरु वाणी व गुरु ग्रन्थ साहिब ही सिखों के लिए गुरु सामान्य होगी। एक प्रवीण काव्य रचयिता अर्थात बेहतरीन कवि के रूप में गुरु गोविंद (गोविन्द) सिंह ने समय के अनुकूल योगियों, पंडितों व अन्य संतों के मन की एकाग्रता के लिए बेअंत बाणी की रचना की। ऐसे महान योद्धा और गुरु गुरुगोविंद सिंह का जन्म मुगलिया शासन के दौर में पौष शुदि सप्तमी संवत 1723 तदनुसार 22 दिसम्बर, 1666 को पटना शहर में गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के घर हुआ था। इनका नाम गोविंद राय रखा गया। बालक के जन्म पर पूरे शहर में उत्सव मनाया गया।

खिलौनों से खेलने की उम्र में बालक गोविंद कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। बाल्यकाल से ही वे अत्यंत शरारती थे, परन्तु अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे, लेकिन सूत काटकर आजीविका चलाने वाली एक निसंतान वृद्धा के साथ वे बहुत शरारत करते थे। वे उसकी सूत की पूनियाँ बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह वृद्धा उनकी मां के पास शिकायत लेकर पहुँच जाती थी। माता गुजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। एक दिन माता गूजरी ने गोविंद से वृद्धा को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा, उसकी ग़रीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूँगा तो उसे पैसे कैसे मिलेंगे?

गोविंद राय को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोबिन्द सिंह से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। बहुभाषाविद गुरु गोविंद सिंह को फ़ारसी अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने सिख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिख ग्रन्थ दसम ग्रन्थ अर्थात दसवां खण्ड लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिखों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। मान्यता है कि उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गुरु तेग़बहादुर सिंह के यहाँ गुरु गोविन्द सिंह अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था- मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है। यही कारण है कि आज भी बड़ी श्रद्धा के साथ गुरु गोविंद सिंह के जन्म उत्सव को गुरु गोविंद जयंती के रूप में मनाते हुए इस शुभ अवसर पर गुरुद्वारों में भव्य कार्यक्रम सहित गुरु ग्रन्थ साहिब का पाठ किया जाता है। और अंत में सामूहिक भोज अर्थात लंगर का आयोजन किया जाता है। नवीन मत के अनुसार 2023 में गुरु गोविंद सिंह जयंती 5 जनवरी को मनाई जाएगी। खालसा पन्थ में विशेष महत्व रखने वाले गुरु गोविन्द सिंह जयंती के अवसर पर उनके जन्म स्थल पटना साहिब, आनंदपुर साहिब (गुरुद्वारा केशगढ़) आदि स्थानों पर गुरु गोविंद सिंह जयंती बेहद धूमधाम से मनाई जाती है।

अपने पिता गुरु तेग़बहादुर की बलिदान के बाद 9 वर्ष की अल्पायु में ही बालक गोविंद राय को गुरु गद्दी सम्हालनी पड़ी, तो गुरु की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फ़ारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गोविंद राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिखों को भी अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया। सिखों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। उनका नारा था- सत श्री अकाल। जाति- भेद और सम्प्रदायवाद आदि को जड़ मूल से समाप्त करने के उद्देश्य से गुरु गोविंद सिंह ने एक क्रांतिकारी कदम उठाया और देश के विभिन्न भागों और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय से आये हुए पांच प्यारे अर्थात पंच पियारा नाम से विख्यात पंथियों को एक ही कटोरे में अमृत पिला कर एक बना दिया। ऐसी क्रान्तिकारिता के बीज से उन्होंने जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया। परम्परानुसार पंजाब में फ़सल की कटाई पहली बैसाख को ही शुरू होती है और देश के दूसरे हिस्सों में भी अलग- अलग नाम से इसी दिन फ़सल कटाई का त्योहार मनाया जाता है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि बैसाखी दिवस को गोविंद सिंह के जीवन के आदर्शों को, देश, समाज और मानवता की भलाई के लिए उनके समर्पण को अपनी प्रेरणा का स्रोत बनाकर उनके बताये गए रास्ते पर निष्ठापूर्वक चलने से अवश्य ही देश के अन्दर अथवा बाहर से आए आतंकवादी और हमलावर को मात दिया जा सकता है ।

गुरु गोविंद सिंह ने सिखों में युद्ध की भावना जीवन का उत्साह बढ़ाने के लिए अनेक क़दम उठाये, वीर काव्य और संगीत का सृजन किया, सिखों में लौह कृपा अर्थात कृपाण के प्रति प्रेम विकसित किया। खालसा को पुर्नसंगठित सिख सेना का मार्गदर्शक बनाकर, उन्होंने दो मोर्चों पर सिखों के शत्रुओं के ख़िलाफ़ क़दम उठाये। पहला मुग़लों के ख़िलाफ़ एक फ़ौज और दूसरा विरोधी पहाड़ी जनजातियों के ख़िलाफ़। उनकी सैन्य टुकड़ियाँ सिख आदर्शो के प्रति पूरी तरह समर्पित थीं और सिखों की धार्मिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थीं। लेकिन गुरु गोविंद सिंह को इस स्वतंत्रता की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। अंबाला के पास एक युद्ध में उनके चारों बेटे मारे गए।

गुरु गोविंद सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी, तो दूसरी ओर औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लील रही थी। ऐसे समय में गुरु गोविंद सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की।

गोविंद सिंह और मुगल बादशाह बहादुरशाह मित्र थे, और गुरु जी ने अपने सैनिकों द्वारा जांजू की लड़ाई में बहादुरशाह का साथ दिया, उनकी मदद की। जिसके कारण 8 जून 1707 ईस्वी को आगरा के पास जांजू के पास हुई लड़ाई में बहादुरशाह की जीत हुई। इससे प्रसन्न बादशाह ने गुरु जी को आगरा बुलाया। उसने एक बड़ी क़ीमती सिरोपायो (सम्मान के वस्त्र) एक धुकधुकी (गर्दन का गहना) जिसकी क़ीमत 60 हज़ार रुपये थी, गुरुजी को भेंट की। मुग़लों के साथ एक युग पुराने मतभेद समाप्त होने की सम्भावना थी। इसके लिए अभी बातचीत ही चल रही थी, कि बादशाह बहादुरशाह कछवाहा राजपूतों के विरुद्ध कार्यवाही करने कूच कर दिया। उसके भाई कामबख़्श ने बग़ावत कर दी। बग़ावत दबाने के लिए बादशाह दक्षिण की तरफ़ चला और विनती करके गुरु जी को भी साथ ले गया। इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में भी अड़िग रहकर गुरु जी का संघर्षरत रहना उनके महान कर्मयोगी होने का प्रमाण है। उन्होंने ख़ालसा के सृजन का मार्ग देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए अपनाया था। वे सभी प्राणियों को आध्यात्मिक स्तर पर परमात्मा का ही रूप मानते थे। धर्म व समाज के रक्षार्थ गुरु गोविन्द सिंह ने 1699 ईस्वी में विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाले व्यक्तियों का समूह बनाया, जिसे खालसा नाम दिया। प्रत्येक परिस्थिति में ईश्वरका स्मरण करते हुए स्वकर्म को स्वधर्म मानकर जुल्म और जालिम से लोहा लेने के लिए तत्पर ख़ालसा हमारी मर्यादा और भारतीय संस्कृति की एक पहचान है। गोबिन्द सिंह ने एक नया नारा दिया है- वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह। गुरुजी द्वारा स्थापित ख़ालसा का पहला धर्म ही है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे।

 

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By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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