एक महिला डॉक्टर द्वारा ग़रीब कुम्हारों द्वारा लगाई गई मिट्टी के दीयों और अन्य सजावट के सामान की दुकान को डंडे से तोड़ना? यह क्रूरता इसलिए क्योंकि दुकानें उस महिला के आलीशान घर के ठीक सामने लगी थीं। ऐसा नहीं है कि त्योहारों के समय ऐसी अस्थायी दुकानें या बाज़ार पहले उसी जगह नहीं लगता था। तो उस दिन अचानक इस महिला के ग़ुस्से का बांध क्यों टूटा?
सन् 1961 में आई फ़िल्म ‘हम हिंदुस्तानी’ का मशहूर गाना, ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी’, हमें समय के साथ बदलने की सलाह देती है। टाइपराइटर से कंप्यूटर तक के लंबे सफ़र में हम न जाने कितने बदल गये है लेकिन बावजूद इसके कुछ पुरानी बातों और आदतों को बदलना शायद भूल गये। यदि इन आदतों को भी बदला जाए तो निश्चित ही हम समय के साथ चल सकेंगे।
दीपावली से पहले लखनऊ में एक ऐसा दृश्य देखने को मिला जिसे देख कर तथाकथित सभ्य लोगों के असंवेदनशील व्यवहार का पता चला। घटना लखनऊ के पत्रकारपुरम की है जहां एक महिला डॉक्टर ग़रीब कुम्हारों द्वारा लगाई गई मिट्टी के दीयों और अन्य सजावट के सामान की दुकान को बेरहमी से डंडे से तोड़ रही थी। यह क्रूरता इसलिए क्योंकि दुकानें उस महिला के आलीशान घर के ठीक सामने लगी थीं। ऐसा नहीं है कि त्योहारों के समय ऐसी अस्थायी दुकानें या बाज़ार पहले उसी जगह नहीं लगता था। तो उस दिन अचानक इस महिला के ग़ुस्से का बांध क्यों टूटा? तमाम सोशल मीडिया पर इस महिला डाक्टर की क्रूरता को देखा गया और लगभग सभी की संवेदनाएँ उन ग़रीब कुम्हारों के प्रति थीं जिनका नुक़सान हुआ।
सवाल है जब बरसों से उस सड़क पर या देश के किसी अन्य शहर की सड़क पर त्योहारों के समय ऐसे बाज़ार और दुकानें लगती आई हैं तो उस दिन ऐसा क्यों हुआ? क्या उस मोहल्ले के लोग वहाँ से सामान नहीं ख़रीदते? क्या वहाँ के प्रशासन को इस बात का नहीं पता कि त्योहारों के समय सड़क पर ऐसे बाज़ार लगाए जाते हैं? सोचने वाली बात है कि जब सभी को पता है तो ऐसे बाज़ारों का विरोध क्यों? यदि ऐसे बाज़ार या हमारे मोहल्लों में लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार ग़ैर-क़ानूनी हैं तो इन्हें लगने क्यों दिया जाता है? यदि ऐसे बाज़ार प्रशासन द्वारा अनुमति प्रदान किए जाने के बाद ही लगते हैं तो इन्हें अनुमति देने वाले अधिकारी क्या इस बात पर ध्यान देते हैं कि इन बाज़ारों के लगने से वहाँ रहने वाले लोगों को किसी प्रकार की असुविधा तो नहीं होगी? फिर भले वो समस्या क़ानून व्यवस्था की हो या ट्रैफिक की।
अक्सर देखा गया है कि जब भी ऐसे बाज़ार लगते हैं, तो वहाँ रहने वाले लोग भले ही वहाँ जा कर सामान ख़रीदें लेकिन इन बाज़ारों का विरोध भी करते हैं। आमतौर पर साप्ताहिक बाज़ार हर उस इलाक़े में उस दिन लगते हैं जहां पर स्थानीय बाज़ारों की साप्ताहिक छुट्टी होती है। उसी हिसाब से उस बाज़ार का नाम भी पड़ता है, जैसे सोम-बाज़ार, बुध-बाज़ार या शनि-बाज़ार आदि। बरसों से हर शहर में ऐसे बाज़ार लगाने वाले दिन किसी न किसी नए मोहल्ले में निर्धारित स्थानों पर लोग अपनी दुकान लगाते आए हैं। कई जगह तो ऐसे बाज़ार लोगों के घरों के बाहर लगा करते थे।
ग्रामीण इलाक़ों में लगने वाले ऐसे बाज़ारों को ‘हाट’ के नाम से जाना जाता है। जहां आस-पास के गाँव वाले अपने खेतों की सब्ज़ियाँ या अनाज और कुटीर उद्योग में बने सामान आदि बेचा करते हैं। इस बिक्री से मिले पैसों से वे लोग उसी हाट से कपड़े, अनाज और अपने घर की अन्य जरूरत का सामान खरीद कर अपने गांव की ओर लौट जाते हैं। ग्रामीण इलाक़ों में ऐसा सदियों से होता आ रहा है। ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में लगने वाले बाज़ारों में बस इतना फ़र्क़ है कि ग्रामीण बाज़ार हमेशा किसी ख़ाली मैदान में लगते हैं और शहरी बाज़ार रिहायशी इलाक़ों में। ग्रामीण इलाक़ों में आज भी यह बाज़ार बिना किसी विरोध के लगते हैं। इन बाज़ारों के लगने से समस्या केवल शहरी इलाक़ों में ही है।
शहरों में आधुनिकरण के नाम पर जिस तरह ज़्यादातर सामान आपको घर बैठे ही उपलब्ध होने लगा है तो इन बाज़ारों का औचित्य समाप्त होता जा रहा है। पर आम लोगों के लिये और पॉश इलाक़ों में काम करने वाले घरेलू सेवकों के लिये इनका आज भी खूब महत्व है। वहीं दो सालों तक कोविड जैसी महामारी ने तो लोगों के घर से निकालने पर पाबंदी ही लगा डाली थी। ऐसे में इन बाज़ारों का होना न होना बराबर हो गया था। परंतु हमारे बचपन में जब ये साप्ताहिक बाज़ार लगते थे तब शहरी इलाक़ों में आबादी भी कम थी और सड़क पर वाहन भी गिने चुने होते थे। इसलिए इन बाज़ारों से सभी को सुविधा थी। लेकिन जैसे-जैसे आबादी बढ़ी वैसे ही वाहनों और मकानों की संख्या भी बढ़ी। इसके चलते इन बाज़ार लगाने वालों को भी समझौता करना पड़ा। बाज़ारों में दुकानें भी कम होने लगीं और ग्राहक भी।
विकास के नाम पर शहरों में प्रशासन द्वारा नई-नई कॉलोनीयाँ है। बड़े-बड़े टावर या आलीशान बंगले बने है। जब तक इन कॉलोनीयों में बसावट नहीं थी तब तक इन बाज़ारों का फ़ायदा उस इलाक़े में रहने वाले पुराने लोगों को था। इसलिए किसी को भी इन से दिक़्क़त नहीं थी। ज्यों-ज्यों बसावट बढ़ी त्यों-त्यों वहाँ ऐसे लोग भी आए जिन्होंने इन बाज़ारों के ख़िलाफ़ प्रशासन में शिकायत भी की और कुछ कोर्ट में भी गए। लेकिन समस्या का कोई स्थाई समाधान नहीं निकल पाया। यदि दोनों पक्ष अपनी बात पर अड़े रहेंगे तो समझौता कैसे होगा? दोनों पक्षों को थोड़ा धैर्य रखने और व्यवहारिक समझ की आवश्यकता है। प्रशासन को इस बात का हल निकालना चाहिए कि यदि ऐसे बाज़ारों से किसी को आपत्ति है तो इन बाज़ारों को किसी ऐसी जगह पर पुनः स्थापित किया जाए जहां सभी को सहूलियत हो। ऐसे बाज़ार इलाक़े के ख़ाली मैदानों में लगें या उन स्थानों पर जहां पुलिस विभाग को क़ानून और ट्रैफ़िक व्यवस्था बनाए रखने में भी आसानी हो। यदि ऐसे बदलाव किए जाते हैं तो कभी भी किसी सभ्य व्यक्ति का ग़रीबों के प्रति ऐसा ग़ुस्सा नहीं फूटेगा जैसा लखनऊ में हुआ, जो कि काफ़ी निंदनीय है। समय के साथ हम सभी को बदलने की ज़रूरत है केवल एक तबके के लोगों को नहीं।