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खारे पानी में घुलनशील पतवारों के सहारे

Byपंकज शर्मा,
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खारे पानी में घुलनशील पतवारों के सहारे
क्या सत्ता के खारे पानी में घुलनशील पतवारों के सहारे राहुल अपने जहाज को मंज़िल तक ले जा पाएंगे? जिस जहाज पर वे सवार हैं, उसमें सूराख़ करने वालों की पहचान वे नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? राहुल ज़रा चौकन्ने हो कर अपने आसपास देखें कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि अपने जिन हमजोलियों को रहबरी की ज़िम्मेदारी दे कर वे निश्चिंत हैं, उनमें से ही बहुतों के रहज़नों से ख़ानदानी ताल्लुक हैं? रास्ता लंबा है और वक़्त बहुत कम है। राहुल गांधी ने ताल ठोक दी है कि यह देश हिंदुओं का है, हिंदुत्ववादियों का नहीं। उन्होंने जयपुर की कांग्रेस रैली में कहा कि हमें हिंदुओं की सरकार वापस लानी है और हिंदुत्ववादियों की सरकार हटानी है। तब से लोग एक-दूसरे पर पिल पड़े हैं। कुछ का कहना है कि हिंदू और हिंदुत्ववादी होना एक ही बात है। कुछ का कहना है कि हिंदू और हिंदुत्ववादी होना अलग-अलग बातें हैं। जो कहते हैं कि हिंदू तो कोई शब्द था ही नहीं और चूंकि हिंद आर्य-भाषाओं की घ्वनि ईरानी भाषाओं में घ्वनि में बदल जाती है, इसलिए अवेस्तन भाषा में सिंधु का उच्चारण हिंदु हो गया; उन्हें प्राचीन धर्म ग्रंथों का हवाला दे-दे कर बताया जा रहा है कि यह अवधारणा ग़लत है और हिंदू शब्द तो ज़माने से प्रचलन में है। दलीलें दी जा रही हैं कि सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को ‘ ‘के चक्कर में हिंदू कहे जाने का कोई पुख़्ता प्रमाण नहीं है और ये सब चंडूखाने की बाते हैं। अगर ऐसा कोई घ्वनि झमेला होता तो वे सलाम करने वाले हलाम कर रहे होते। सलीम क्यों भरे पड़े होते? सबीना क्यों हबीना नहीं हो गई होतीं? मैं महीने भर से हिंदू, हिंदूपन और रुस्तमी हिंदुत्व के बीच के फ़र्क़ पर अपनी दलीलें टेलीविज़न बहसों में दे-दे कर थक गया हूं। त्वप्रत्यय की व्याख्या कर-कर के मेरी ज़ुबान ऐंठने लगी है। सलमान खुर्शीद की क़िताब बाज़ार में आने के बाद से ऐसी-ऐसी भैंसों और पाड़ों के सामने संस्कृत की बीन मुझे बजानी पड़ी है कि सांस फूल गई है। जिन्हें नहीं समझना, उन्हें कोई नहीं समझा सकता। नीम-हकीमों से पार पाना तो वैसे भी सबसे मुश्क़िल काम होता है और यह तो दौर ही ऐसा है कि मीडिया समेत समाज की हर शाख पर ग़जब-ग़जब के चुगद विराजमान हैं। उनके भोंदूपन की दीवार पर जिन्हें अपनी मेधा का सिर पटकना है, पटकते रहें। मैं तो धाप गया। Read also हिंदू पुनरूत्थान या उलटी गंगा? हिंदू और हिंदुत्ववाद पर बहस ज़रूरी है। वह होनी ही चाहिए। वह बहुत पहले ही शुरू हो जानी चाहिए थी। लेकिन मुझे सलमान खुर्शीद से भी शिकायत है और राहुल गांधी से भी। दोनों ने एकदम सही मसला उठाया है। दोनों ने इस मुद्दे पर डंका बजा कर हिम्मत का काम किया है। लेकिन दोनों की ही बातों ने इसलिए इस विवाद को और बढ़ाने में हवा देने का काम किया है कि दोनों ही अपनी बातों की संगत व्याख्या नहीं कर पाए। सलमान कहना चाहते थे कि जिस हिंदूपनको साधु-संतों के करुणामयी आचरण से पहचान मिली थी, उसे अब कुछ शक्तियों ने एक ऐसे हिंदुत्वमें बदल डाला है कि वह आईएसआईएस और बोको-हरम की तरह लगता है। लेकिन उनकी क़िताब की अंग्रेज़ी कुछ को तो समझ में नहीं आई और कुछ ने उसे समझने से जानबूझ कर इनकार कर दिया। नतीज़तन संघी गोयबल्सों ने माहौल बना दिया कि सलमान ने हिंदू धर्म की तुलना आईएसआईएस से की है। सलमान की तूती के स्वर को स्पष्ट करने का काम मोशा-नक़्कारखाने में भला कौन कर लेता? राहुल भी जयपुर में यही कहना चाहते थे कि हिंदू भलेमानसों में और हिंदू धर्म के नाम पर नफ़रत का त्रिशूल लिए घूम रहे ठेकेदारों में फ़र्क़ है और यह फ़र्क़ समझने-समझाने की ज़रूरत है। इसी लय में बहते हुए बेहद ठोस तरीके से उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई। कहा कि यह देश हिंदुओं का है, हिंदुत्ववादियों का नहीं। कहा कि हिंदुओं की सरकार वापस लानी है। उनका भाव था कि भारत भले हिंदुओं का देश है, लेकिन लंपट-हिंदुओं का नहीं। उनका भाव था कि भले हिंदुओं की सरकार वापस लानी है, मगर इन लट्ठमार हिंदुओं की सरकार से मुक्ति पानी है। लेकिन क्या यह बेहतर नहीं होता कि राहुल अपनी बातों के इंद्रधनुष में कोई धूसर रंग छोड़ते ही नहीं? वे ऐसा करते तो कांग्रेस के भीतर यह कुनमुन-कुनमुन नहीं होती कि अगर कांग्रेस का पूर्व और संभावित भावी अध्यक्ष ही यह ऐलान कर देगा कि भारत हिंदुओं का देश है तो हम क्या ख़ाक नरेंद्र मोदी से लड़ेंगे? अगर राहुल ही आह्वान कर देंगे कि हिंदुओं की सरकार वापस लानी है तो कांग्रेस के पैदल सैनिक कैसे रणभूमि में कूदेंगे? पूछने वाले यह भी पूछ रहे हैं कि भारत को हिंदुओं का देश बताने की राहुल की बात का उनके नए-नवेले निर्वाचन क्षेत्र वायनाड में क्या असर पड़ेगा, जहां की आबादी में 45 फ़ीसदी मुस्लिम और 13 प्रतिशत ईसाई हैं? Rahul gandhi Narendra modi सवालों के ये जखीरे बहुतों के लिए बेमतलब हैं। मगर बहुतों के लिए इनका बहुत मतलब है। अगले दो-ढाई महीनों में पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। इनमें हिंदुत्ववादियों का सबसे बड़ा गढ़ उत्तर प्रदेश भी है। भारतीय जनता पार्टी वहां भारी मुसीबत में है। सो, ज़ाहिर है कि राहुल की बातों को तोड़-ताड़ कर पेश करने का काम शुरू हो गया है। कांग्रेस के लिए यह अपनी सर्वसमावेशी सोच की अनवरत पुनर्पुष्टि करते रहने का समय है। कांग्रेस ने हमेशा कहा है कि देश सब का है। देश पर सब का बराबरी का हक़ है। बहुसंख्यक हिंदू भारत का तथ्य हैं तो अल्पसंख्यक मुस्लिम, सिख, ईसाई और बोद्ध भी भारत का यथार्थ हैं। राहुल की बातों का अनर्थ निकालने की साज़िश का कांग्रेस को प्रतिकार करना होगा। कांग्रेस के दामन पर उसकी पारंपरिक सोच से परे जाने के धब्बे लगाने की कोशिशों को सिर उठाने के पहले ही दबोच लेने में कोताही ज़रा भारी भी पड़ सकती है। यह सचमुच राहुल की बदक़िस्मती है कि उनकी इच्छाशक्ति, स्पष्टवादिता और उत्ताप के समानबली सहयोगी उनके आसपास नगण्य हैं। उनके टी-90 टैंक में साइकिल के पहिए लगे हुए हैं। इसलिए बावजूद इसके कि राहुल ने अपनी बलवान भुजाओं में सकारात्मक और अर्थवान सियासत का पवित्र ध्वज मज़बूती से थाम रखा है, वे 17 बरस चल कर भी अढ़ाई कोस ही पहुंच पाए हैं। हवा के विपरीत चलने का उनका जज़्बा और अन्यायपूर्ण व्यवस्था से भिडंत लेने का उनका साहस इसलिए व्यर्थ जा रहा है कि वे कांग्रेस को ऐसा वाहन नहीं बना पाए हैं, जो उन्हें ले कर राजनीति की कंचनजंघा तक पहुंच जाए। पुराना पलस्तर खुरच देने के चक्कर में जो नया रंग-रोगन राहुल ने कांग्रेस की दीवारों पर किया, वह इतना अमरबेली था कि पहले दिन से ही अपना रंग दिखाने लगा था। इन भड़कीले रंगों के भीतर की कृत्रिमता को न समझ पाने का या उसे अपनी ज़िद्दी-तरंग में जानबूझ कर अनदेखा करने का ख़ामियाजा आज राहुल भुगत रहे हैं। राहुल से ज़्यादा यह ख़ामियाजा समूची कांग्रेस भुगत रही है। 2024 में रायसीना की पहाड़ी पर पहुंचने के लिए जिन सात समंदरों को पार करना है, उनके थपेड़ों का सामना करने लायक मस्तूल अपने जहाज में राहुल ख़ुद नहीं लगाएंगे तो कौन लगाएगा? क्या सत्ता के खारे पानी में घुलनशील पतवारों के सहारे राहुल अपने जहाज को मंज़िल तक ले जा पाएंगे? जिस जहाज पर वे सवार हैं, उसमें सूराख़ करने वालों की पहचान वे नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? राहुल ज़रा चौकन्ने हो कर अपने आसपास देखें कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि अपने जिन हमजोलियों को रहबरी की ज़िम्मेदारी दे कर वे निश्चिंत हैं, उनमें से ही बहुतों के रहज़नों से ख़ानदानी ताल्लुक हैं? रास्ता लंबा है और वक़्त बहुत कम है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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