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होलकोत्सवः सभी के कल्याण की भावना

वैदिक नवसस्येष्टि का प्रचलित नाम होली पड़ने का कारण यह है कि इस अवसर पर अर्थात फाल्गुन पूर्णिमा तक चना, गेहूँ, यव आदि अन्न अर्द्ध परिपक्व अवस्था में होता है, और उसकी बालों, टहनियों को जब आग में भुनते हैं, तो उसकी संज्ञा लोक में होला होती है। शब्द कल्पद्रुम के अनुसार जो अर्धपका अन्न आग में भूना जाता है, उसे संस्कृत में होलक कहते हैं और यही होलक शब्द हिन्दी भाषा में होला कहलाने लगा। तिनकों की अग्नि में भुने हुए अधपके शमीधान्य अर्थात फली वाले अन्न को होलक या होला कहते हैं।

वसंत पंचमी के ठीक चालीस दिन बाद फ़ाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाने होली के पर्व को प्राचीन काल में वासंती नवसस्येष्टि पर्व के नाम से अभिहित किया जाता था। वासंती नवसस्येष्टि पर्व को शारदेय नवसस्येष्टि पर्व के नाम से भी जाना जाता था, जिसे भारत के ग्रामीण अंचलों में वर्तमान में नवाखानी, नवाखाई अथवा नवान्न ग्रहण भी कहते हैं। अन्य पर्वों से अधिक हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला होली का यह पर्व बसंत पंचमी से ही आरम्भ हो जाता है, और ढोल- नगाड़ों की ध्वनि के साथ फाग की राग आम जन के उल्लास को दूर -दूर तक प्रतिध्वनित कर अभिव्यक्त करने लगते हैं।  होली पर्व के साथ अनेक कथाएं, मान्यताएं व परम्पराएँ जुडी हुई हैं, तथापि होली मनाने के कई कारणों में प्रमुख नवान्न ग्रहण परम्परा ही है। रबी की फ़सल खलिहान में आ जाने पर नवान्न ग्रहण किया जाता है।

होली के बाद जौं व गेहूं आदि की फसलों का कटना आरम्भ होने के कारण किसान अपनी परिश्रम व उससे उत्पन्न फसलोपज को देखकर प्रसन्न होता है, और वह ईश्वर का धन्यवाद करते हुए उसे उत्सव के रूप में मनाकर अपने परिवार व इष्ट मित्रों को भी प्रसन्नता प्रदान करने का प्रयास करता है। प्राचीन समय से इस अवसर पर गेहूं के नये दानों को अग्नि में तपा कर उनसे वृहद यज्ञों में आहुतियां देकर यज्ञ किये जाने की परिपाटी रही है। इससे ईश्वर का धन्यवाद ज्ञापन होता है, और इसके बाद अन्न का उपभोग करने में सुख व संतोष का अनुभव होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि होली नवसस्येष्टि है। नव अर्थात नई, सस्य अर्थात फसल और इष्टि अर्थात यज्ञ। अर्थात यह नई फसल के आगमन पर किया जाने वाला यज्ञ है। इस समय फाल्गुन की फसल में गेहूँ, जौ, चना आदि का आगमन होता है। इनके अधभुने दाने को संस्कृत में होलक और हिन्दी में होला कहते हैं।

वैदिक नवसस्येष्टि का प्रचलित नाम होली पड़ने का कारण यह है कि इस अवसर पर अर्थात फाल्गुन पूर्णिमा तक चना, गेहूँ, यव आदि अन्न अर्द्ध परिपक्व अवस्था में होता है, और उसकी बालों, टहनियों को जब आग में भुनते हैं, तो उसकी संज्ञा लोक में होला होती है। शब्द कल्पद्रुम के अनुसार जो अर्धपका अन्न आग में भूना जाता है, उसे संस्कृत में होलक कहते हैं और यही होलक शब्द हिन्दी भाषा में होला कहलाने लगा। तिनकों की अग्नि में भुने हुए अधपके शमीधान्य अर्थात फली वाले अन्न को होलक या होला कहते हैं। होला अल्पवात है और चर्बी, कफ एवं थकान के दोषों का शमन करता है।होली के अवसर पर वन-उपवन भी नवीन पत्तों व पुष्पों से नयनाभिराम प्रतीत होते हैं, और उपवनों में सुगन्ध आदि का वातावरण मन को सुख व आनन्द प्रदान करता है। प्रत्येक दृष्टि से उत्सव के अनुकूल इस समय वातावरण में न अधिक शीत और न ही अधिक उष्णता होती है। इस समय वनस्पति जगत अपने पूर्ण यौवन पर होता है एवं मनभावन प्रतीत होता है। ऐसे अवसर पर नवान्न के लिए ईश्वर की प्रशंसा और धन्यवाद ज्ञापन के लिए मंत्रोच्चारण के साथ यज्ञाहुति के पश्चात इष्ट- मित्रों के साथ मिलकर उस नवान्न का ग्रहण  उचित ही है। वसंत में रम्य से रम्यतर होता हुआ नयनाभिराम जगत जनता और अन्नदाता कृषक समूह के मन में मोद भर देता है।

इस अवसर पर होलक अर्थात अग्नि में भूने हुए अर्द्धपक्व अन्न की आहुतियां दी जातीं हैं। इसे ही नवसस्येष्टि, होलकेष्टि व होलकोत्सव कहते हैं। यह होलकोत्सव जहां घर की अग्नि में आहुतियां देकर किया जाता है, वहीं सभ्याग्नि में सब की साझी आहुतियां देकर भी किया जाता है। जो अग्नि सभा की अर्थात सबकी साझी होती है, उसे सभ्याग्नि कहते हैं। इस यज्ञ के बाद घर में आने वाला अन्न ही हमारा खाद्य है। मनुष्य का अधिकार यज्ञशेष पर ही है, यज्ञवस्तु पर नहीं। श्रुतियों में कहा गया है कि अकेला खाने वाला केवल पाप खाता है  – केवलाघो भवति केवलादी। इसलिए जहां नवागत अन्न को होम के द्वारा खाद्य बनाया जाता है, वहीं पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ व बलिवैश्वदेव द्वारा पहले खिलाकर तब ग्रहण किये जाने की परिपाटी है।अत्यन्त प्रचीन काल से मनाई जाने वाली इस वासन्ती नवसस्येष्टि यज्ञ परम्परा में समष्टि कल्याण ही प्रमुख है। समष्टि कल्याण का यह उद्देश्य किसी की भी कोई हानि न होने और सभी दूसरों का न्यूनाधिक लाभ होने से ही पूर्ण हो सकता है। अपने सुख को, आनन्द को अन्य दूसरों के साथ बाँटने की इस प्रकार की दृढ़ पद्धति का स्थापन आवश्यक है। कृषि प्रधान भारत देश में वसन्त के आगमन के साथ प्रकृति की मनोरम छटा चित्ताकर्षक, प्रफुल्लता दायिनी होती है। कृषक वर्ग का मन आह्लादित होता है, उसका रोम-रोम प्रफुल्लित होता है कि आज उसका पुरुषार्थ फलदायी सिद्ध हो  रहा है। रबी की फसल तैयार है। उसका वह स्वयं भी उपभोग करेगा और उसका विक्रय कर जीवन की अन्य आवश्यकताओं को पूर्ण करने हेतु धन अर्जित भी कर सकेगा। यह लाभ तो स्वयं के लिए और उसके परिवार के लिए है, परन्तु भारतीय परम्परा व प्रवृत्ति ऐसी है कि वह समष्टि को भी कुछांश प्रदान करने को तत्पर होता है, अपने सुख में पड़ोसियों को भी सम्मिलित करने को उद्यत रहता है।

उसे वेद-आज्ञा सदैव ही स्मरण है कि जो अकेला खाता है वह पाप खाता है। इसलिए वह अपने अर्जन को अवश्य बाँटता है। और बाँटने का सर्वश्रेष्ठ उपाय वेद में यज्ञ को ही बताया गया है। अग्नि के द्वारा बाँटने में यह विशेषता है कि किसी कारण से यज्ञकर्ता, हवन करने वाले व्यक्ति से मनोमालिन्य रखने वाले मनुष्यों तक भी उसकी हवि का अंश पहुँचता है। इसीलिए भारत में नवसस्येष्टि यज्ञ करने की यह प्राचीन परमपरा रही है। यही कारण है कि रबी की फसल आने पर भारत में वासन्ती तथा खरीफ की फसल आने पर शारदीय नवसस्येष्टि यज्ञ करने की वृहत परिपाटी रही है। और इस प्रकार त्याग की भावना से ओत-प्रोत हो बाँटने की प्रवृति का, परहित की भावना का विकसित रूप यह  नवसस्येष्टि यज्ञ है। परहित चिन्तन ही सामाजिक संगठन की धुरी है। कुछ देकर ही हम किसी के हो सकते हैं। बिना दिये यह संभव नहीं। चुम्बक लोहे के टुकड़े को पहले अपना चुम्बकत्व का गुण प्रदान करता है, उसके बाद ही लोहे का टुकड़ा उसकी ओर आकर्षित होता है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि हम जिससे प्रीति करते हैं, उसे ही कुछ देना चाहते हैं। प्रीति की अनुभूति हेतु द्वेष व अहंकार का परित्याग करना अपरिहार्य है। यह कोई साधारण कार्य नहीं है। अहंकार के विनाश के लिए दिन में दो बार तथा द्वेष के विनाश के लिए बारह बार परमात्मा की साक्षी में संकल्प करने के बाद भी मनुष्य द्वेष भाव को, अहंकार को छोड़ नहीं पाता। परन्तु ऐसा हो जाने पर मनुष्य प्राणी मात्र में आत्मीयता का अनुभव कर सकेगा। अहंकार को छोड़ने के लिए, उसे अप्रभावी बनाने के लिए क्षमाभाव का विकास करना आवश्यक है। यद्यपि त्याग और क्षमा में भी अहंकार प्रवेश करता दृष्टिगोचर होता है, तथापि इसका निरोध इदं न मम के यज्ञीय सूत्र द्वारा हो सकता है। दूसरों की भूलों को क्षमा करने की शक्ति विकसित कर लेने से बहुत सी समस्याएँ सुलझ सकती हैं। इससे समष्टि कल्याण की भावना को पूर्ण होने की आशा भी बलवती हो सकेगी। और इससे न तो किसी की भी कोई हानि होने की सम्भावना है, दूसरी ओर इसमें सभी का न्यूनाधिक लाभ होना निश्चितप्राय ही है। ऐसे में समष्टि कल्याण के उद्देश्य से अपने सुख को, आनन्द को अन्य दूसरों के साथ बाँटने की इस यज्ञीय दृढ़ पद्धति का स्थापन कर होलकोत्सव का आनन्द लेना ही श्रेयस्कर है।

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