मध्य प्रदेश

पहले कैसे बनते थे मुख्यमंत्री?

ByNI Editorial,
Share
पहले कैसे बनते थे मुख्यमंत्री?
अधिकतर अवसरों पर मुख्यमंत्री के चुनाव में विधायकों की भूमिका नगण्य रही है। परंतु यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस से ज्यादा भाजपा में केन्द्रीय नेतृत्व की निर्णायक भूमिका होती है।।।।। आजादी के पूर्व भी हमारे देश में निर्वाचित राज्य सरकारें बनीं थीं। उस समय बहुसंख्यक राज्यों में कांग्रेस की सरकारें गठित हुई थीं। उस दौरान राज्य सरकार के मुखिया को प्रधानमंत्री कहते थे। कांग्रेसी सरकारों के मुखियाओं को चुनने में सरदार पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। (Madhya pradesh politics CM) लेखक: एल.एस.हरदेनिया    तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने एक बार कहा था कि पंडित नेहरू के समय मुख्यमंत्री नामजद नहीं होते थे। उनकी इस टिप्पणी के कुछ दिन बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भोपाल आई थीं। उनकी पत्रकार वार्ता आयोजित थी। पत्रकार वार्ता में मैंने पूछा कि अभी हाल में राष्ट्रपति महोदय ने यह टिप्पणी की थी कि नेहरूजी के जमाने में मुख्यमंत्री नामांकित नहीं होते थे। उत्तर देते हुए उन्होंने कहा 'क्या नेहरूजी को मुझसे ज्यादा कोई जानता था?' स्पष्ट है कि उनका कहना था कि नेहरूजी के जमाने में भी मुख्यमंत्री नामांकित होते थे। इससे साफ है कि जब से देश में संसदीय प्रजातंत्र की शुरूआत हुई है तभी से मुख्यमंत्रियों का नामांकन ही होता आया है। आजादी के पूर्व भी हमारे देश में निर्वाचित राज्य सरकारें बनीं थीं। उस समय बहुसंख्यक राज्यों में कांग्रेस की सरकारें गठित हुई थीं। उस दौरान राज्य सरकार के मुखिया को प्रधानमंत्री कहते थे। कांग्रेसी सरकारों के मुखियाओं को चुनने में सरदार पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। आजादी के बाद राज्य सरकारों के प्रधानों को मुख्यमंत्री कहा जाने लगा। सैद्धांतिक दृष्टि से मुख्यमंत्री को चुनने का अधिकार निर्वाचन के माध्यम से बने विधायकों को दिया गया था परंतु वास्तविकता में प्रायः विधायक उसे ही मुख्यमंत्री चुनते थे जिसे केन्द्रीय नेतृत्व का समर्थन प्राप्त होता था। prohibition campaign uma bharti Madhya pradesh politics CM आजादी के बाद के शुरूआती दिनों में कांग्रेस के दिग्गज नेता मुख्यमंत्री बनते थे। उनमें से अनेक ऐसे थे जो केन्द्रीय नेतृत्व के समर्थन के बिना ही मुख्यमंत्री बनने की क्षमता रखते थे। ऐसे दिग्गजों में बंगाल के विधानचन्द्र राय, बिहार के श्रीकृष्ण सिन्हा, उत्तरप्रदेश के गोविंद वल्लभ पंत, सेन्ट्रल प्रांत और बरार के एन। बी। खरे और कुछ समय बाद मुख्यमंत्री बनने वाले रविशंकर शुक्ल शामिल थे। उस दौरान भले ही ऐसा व्यक्ति मुख्यमंत्री बनता था जिसे हाईकमान का समर्थन प्राप्त हो परंतु चुनाव की औपचारिकता पूरी की जाती थी। बाकायदा नेता चुनने के लिए विधायक दल की बैठक होती थी, बैठक के दौरान मतदान होता था। मतदान केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा भेजे गए पर्यवेक्षक की मौजूदगी में होता था। कभी-कभी निर्विरोध चुनाव भी हो जाता था। परंतु धीरे-धीरे परिस्थितियां बदलती गईं। जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है, मुख्यमंत्री के चुनाव की प्रक्रियाओं में परिवर्तन होते गए। सन् 1956 में नए मध्यप्रदेश का गठन हुआ। गठन के बाद रविशंकर शुक्ल नए प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। उन्हें सिर्फ इसलिए मुख्यमंत्री बनाया गया क्योंकि वे मध्यप्रदेश में शामिल होने वाली सबसे बड़ी इकाई के मुख्यमंत्री थे। परंतु दुर्भाग्य से मुख्यमंत्री बनने के दो माह के भीतर ही उनकी मृत्यु हो गई। वे 1 नवबंर 1956 को मुख्यमंत्री बने और 31 दिसंबर 1956 को उनकी मृत्यु हो गई। Read also यूपी में कांग्रेस की फजीहत उनकी मृत्यु के बाद डॉ। कैलाशनाथ काटजू को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया। डॉ काटजू का मध्यप्रदेश से मात्र इतना संबंध था कि उनका जन्म मध्यप्रदेश में हुआ था। उनकी कर्मभूमि उत्तरप्रदेश थी। उत्तरप्रदेश में रहते हुए उन्होंने आजादी के आन्दोलन में भाग लिया था। वे सन् 1962 तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। सन् 1962 में हुए चुनाव में वे पराजित हो गए। उस दौरान यह आरोप लगाया गया कि उन्हें हरवा दिया गया था। digvijay singh Madhya pradesh politics CM इसके बाद श्री भगवंतराव मंडलोई को मुख्यमंत्री बनाया गया। परंतु इस बीच डॉ। काटजू एक उपचुनाव जीतकर पुनः विधायक बन गए थे। इसी दौरान देश में कामराज योजना लागू कर दी गई। उस समय कामराज कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इस योजना के अंतर्गत, जिसका नाम उनके नाम पर था, अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों को त्यागपत्र देना पड़ा। इन मुख्यमंत्रियों में मंडलोईजी भी शामिल थे। अब सभी प्रदेशों में यह बड़ा सवाल पैदा हुआ कि अगला मुख्यमंत्री कौन हो? मध्यप्रदेश में भी यह कठिन प्रश्न था। मध्यप्रदेश में कांग्रेस दो शक्तिशाली गुटों में विभाजित थी। एक गुट का नेतृत्व मूलचन्द देशलहरा और बाबू तख्तमल जैन कर रहे थे और दूसरे गुट के नेता थे पंडित द्वारिकाप्रसाद मिश्र। पंडित मिश्र एक उपचुनाव में विधायक निर्वाचित हुए थे। तख्तमल-देशलहरा गुट ने तख्तमलजी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। मिश्रजी के गुट ने यह तय किया कि यदि निर्वाचन निर्विरोध होता है तो डॉ। काटजू उम्मीदवार होंगे और यदि चुनाव होता है तो पंडित मिश्र उम्मीदवार होंगे। इस पूरी प्रक्रिया में केन्द्रीय नेतृत्व तटस्थ भूमिका में था। जहां तक मुझे याद पड़ता है जगजीवन राम केन्द्रीय पर्यवेक्षक बनकर आए थे। चुनाव में पंडित मिश्र विजयी हुए। उनका चुनाव सन् 1963 में हुआ था और वे सन् 1967 में हुए आम चुनाव के बाद पुनः मुख्यमंत्री बने। परंतु उसी वर्ष जुलाई माह में कांग्रेस के 36 विधायक दलबदल कर गए। इसके बाद संविद की सरकार बनी और गोविंदनारायण सिंह मुख्यमंत्री बने। परंतु सन् 1969 में संविद सरकार अपदस्थ हो गई। उसके बाद कांग्रेस की सरकार बनी। मुख्यमंत्री पद के लिए चुनाव हुआ। इस बीच उच्च न्यायालय ने चुनाव याचिका पर मिश्रजी के विधायक के चुनाव को निरस्त करने का फैसला दे दिया। इसके नतीजे में वे मुख्यमंत्री नहीं बन सके। परंतु उन्होंने अपनी ओर से कुंजीलाल दुबे को मैदान में उतारा। श्यामाचरण शुक्ल ने उनका विरोध किया। चुनाव में शुक्ल जीत गए। इस चुनाव में भी हाईकमान ने लगभग तटस्थता की भूमिका निभाई। थोड़े समय बाद शुक्ल के विरूद्ध प्रचार प्रारंभ हो गया। शुक्ल ने सरकार को अलीबाबा चालीस चोर की सरकार कहकर बदनाम किया गया। अंततः उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। उनके स्थान पर प्रकाशचन्द सेठी को मुख्यमंत्री बनाया गया। सेठी उस समय केन्द्र में मंत्री थे। वे पूरी तरह से केन्द्रीय नेतृत्व अर्थात श्रीमती इंदिरा गांधी के नामिनी थे। जहां तक मुझे याद है उनका चुनाव दिल्ली में हुआ था। Madhya pradesh politics CM इस बीच देश में आपातकाल लागू हो गया और दिसंबर 1975 में श्यामाचरण शुक्ल को पुनः मुख्यमंत्री बना दिया गया। शुक्ल को मुख्यमंत्री बनाने के निर्णय ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया। पहले सेठी जी और फिर श्यामाचरण शुक्ल की नियुक्ति पूरी तरह श्रीमती इंदिरा गांधी की मर्जी से हुई थी। बांग्लादेश के निर्माण के बाद इंदिराजी एक बहुत शक्तिशाली नेता के रूप में उभर आईं थीं। कांग्रेस में हर निर्णय उनकी मर्जी से होता था। आजाद भारत के इतिहास में कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व कभी इतना शक्तिशाली नहीं रहा। आपातकाल के बाद देश में चुनाव हुए। चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई। अनेक पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया और इसके झंडे तले लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ा। मध्यप्रदेश विधानसभा में जनता पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ और इसके जनसंघ धड़े के सबसे अधिक विधायक चुनकर आए। इसलिए जनसंघ के किसी नेता को मुख्यमंत्री बनना था। उस समय वीरेन्द्र कुमार सकलेचा स्वाभाविक च्वाइस थे। परंतु जनता पार्टी के गैर-जनसंघ घटकों को सकलेचा पसंद नहीं थे क्योंकि उनकी छवि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कट्टर स्वयंसेवक की थी। इसलिए उन्होंने न केवल उनका विरोध किया वरन् सार्वजनिक रूप से कैलाश जोशी के प्रति अपना समर्थन घोषित किया। अंततः सकलेचाजी मुख्यमंत्री नहीं बन सके। इस तरह केन्द्रीय नेतृत्व की मर्जी के विरूद्ध जोशीजी ने मुख्यमंत्री का पद संभाला। जोशीजी का रवैया न तो केन्द्रीय नेतृत्व को पसंद आया और ना ही प्रांतीय नेतृत्व को। जोशीजी के नेतृत्व को कमजोर करने के सघन प्रयास प्रारंभ हो गए। इस दरम्यान वे अस्वस्थ भी हो गए और अंततः उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद सकलेचा मुख्यमंत्री बने। सन् 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जबरदस्त जीत हुई। लोकसभा चुनाव में हार की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए सकलेचाजी ने मुख्यमंत्री का पद त्याग दिया और श्री सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने। परंतु वे लगभग एक माह तक ही मुख्यमंत्री रह सके क्योंकि अन्य राज्यों के साथ मध्यप्रदेश में भी विधानसभा बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। इसके कुछ दिन बाद विधानसभा चुनाव हुए और कांग्रेस की विजय हुई। इस बार मुख्यमंत्री पद के लिए भारी खींचतान हुई। टक्कर उतनी ही जबरदस्त थी जितनी बाबू तख्तमल जैन और पंडित डी। पी। मिश्र के बीच हुई थी। मुख्यमंत्री पद के लिए मुख्य रूप से अर्जुन सिंह और शिवभानु सोलंकी मैदान में थे। तीसरे उम्मीदवार कमलनाथ थे। कांग्रेस विधायकदल की बैठक में मतदान हुआ और सोलंकी को बहुमत का समर्थन मिला। उस समय कांग्रेस नेतृत्व में संजय गांधी की निर्णायक भूमिका थी। इस बीच कमलनाथ ने उन्हें प्राप्त मतों को अर्जुन सिंह को ट्रान्सफर कर दिया। इसके बाद संजय गांधी की तरफ से अर्जुन सिंह को विजयी घोषित कर दिया गया। इस तरह एक बार फिर केन्द्रीय नेतृत्व की मर्जी से मुख्यमंत्री चुना गया। kamalnath congress अर्जुन सिंह पूरे पांच साल मुख्यमंत्री रहे। सन् 1985 में हुए चुनाव के बाद वे पुनः मुख्यमंत्री बने। किंतु दुबारा मुख्यमंत्री बनने के अगले ही दिन अत्यधिक नाटकीय तरीके से अर्जुन सिंह को पंजाब का राज्यपाल बना दिया गया और पूरी तरह से केन्द्रीय नेतृत्व के समर्थन से मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री बने। सन् 1985 से लेकर 1989 के बीच एक बार वोराजी को हटाकर अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया और उसके कुछ माह बाद उच्च न्यायालय द्वारा एक मामले में अर्जुन सिंह के विरूद्ध की गई टिप्पणी के कारण अर्जुन सिंह को इस्तीफा देना पड़ा और वोराजी दुबारा मुख्यमंत्री बने। सन् 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार होने के कुछ दिन बाद वोराजी ने इस्तीफा दे दिया और कुछ महीने श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने। सन् 1990 में हुए विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (जनसंघ का नया अवतार) ने अपने दम पर विधानसभा में बहुमत हासिल किया और पार्टी हाईकमान के समर्थन से सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने। सन् 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद मध्यप्रदेश की सरकार बर्खास्त कर दी गई और एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लागू होने से पटवा को मुख्यमंत्री का पद खोना पड़ा। एक वर्ष तक राष्ट्रपति शासन लागू रहने के बाद विधानसभा चुनाव हुए। चुनाव में कांग्रेस विजयी हुई। विधायक दल की बैठक में मुख्यमंत्री का फैसला हुआ। मुकाबला दिग्विजय सिंह और श्यामाचरण शुक्ल के बीच हुआ। दिग्विजय सिंह की जीत हुई। इस चुनाव में केन्द्रीय नेतृत्व की भूमिका तटस्थता की थी। इस दौरान दबी जुबान से यह बात फैलाई गई कि प्रधानमंत्री नरसिंहराव लगभग किसी का साथ नहीं दे रहे हैं। उस समय सभी का यह सोच था कि शायद नरसिंहराव श्यामाचरणजी को समर्थन देंगे। इस अनुमान का आधार यह था कि आजादी के आंदोलन के दौरान वे नागपुर में मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल के घर छिपकर रहे थे। उन्हें उस रियासत से बहिष्कृत कर दिया गया था जहां उनका परिवार रहता था। दिग्विजय सिंह दस वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे। यह पहली बार था जब मध्यप्रदेश में कोई कांग्रेसी लगातार 10 वर्ष तक मुख्यमंत्री रहा हो।दस वर्ष की अवधि के बाद  सन् 2003 में हुए चुनाव में भाजपा को जबरदस्त बहुमत मिला और उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं। उनका चुनाव मात्र एक औपचारिकता थी क्योंकि चुनाव के मैदान में वे मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में लड़ीं थीं। परंतु वे अधिक समय तक मुख्यमंत्री नहीं रह पाईं क्योंकि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व उनसे प्रसन्न नहीं था। उनके हटने के बाद बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री बने। परंतु रहस्यपूर्ण कारण से केन्द्रीय नेतृत्व ने क़रीब एक वर्ष बाद उन्हें हटा दिया। उसके बाद नेतृत्व, विशेषकर लालकृष्ण आडवाणी की कृपा से शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने। सन् 2018 के विधानसभा चुनाव तक, तेरह वर्ष से अधिक अवधि तक, लगातार मुख्यमंत्री रहकर उन्होंने दिग्विजय सिंह का रिकार्ड तोड़ दिया। सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद कमलनाथ मुख्यमंत्री बने। उस समय किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे इतनी जल्दी शिवराज दुबारा मुख्यमंत्री बन जाएंगे। किंतु ज्योतिरादित्य सिंधिंया ने अपने समर्थक विधायकों सहित कांग्रेस छोड़कर भाजपा की सदस्यता ले ली और कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गई। कमलनाथ ने इस्तीफा दिया और 15 माह बाद शिवराज सिंह एक बार फिर मुख्यमंत्री बने।इस विवरण से यह सिद्ध होता है कि अधिकतर अवसरों पर मुख्यमंत्री के चुनाव में विधायकों की भूमिका नगण्य रही है। परंतु यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस से ज्यादा भाजपा में केन्द्रीय नेतृत्व की निर्णायक भूमिका होती है।
Published

और पढ़ें