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दुनिया को किस नजर से देख रहा है चीन?

दुनिया में चीन का बढ़ रहा प्रभाव एक हकीकत है। इस हकीकत और उसके पहलुओं को अवश्य समझा जाना चाहिए। बेशक चीन का प्रभाव बढ़ने की एक प्रमुख वजह उसका आर्थिक महाशक्ति के रूप उभरना है। चूंकि आज वह दुनिया के 130 से भी ज्यादा देशों का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है, इसलिए उचित ही है कि विभिन्न देशों से उसका और उन देशों का उसके साथ स्वार्थ जुड़ गया है। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है।

इस समय दुनिया में Sino-forming शब्द चर्चा में है। इसका इस्तेमाल इस अर्थ में किया जा कहा है कि दुनिया चीन के रूप में ढल रही है। अथवा चीन दुनिया को अपने अनुरूप ढालने की कोशिश कर रहा है। वैसे तो इस संदर्भ की चर्चा दशक भर पहले ही शुरू हो गई थी, लेकिन हाल में इस पर खास जोर डाला जाने लगा है। बीते 10 मार्च को जब चीन की मध्यस्थता में सऊदी अरब और ईरान के बीच मेलमिलाप का सबको हैरत में डालने वाला समझौता संपन्न हुआ, तो एक बार फिर खासकर पश्चिमी मीडिया में कहा गया कि Sino-forming प्रक्रिया ने एक नया और बड़ा मुकाम तय कर लिया है।

Sino-forming की चर्चा दरअसल पश्चिमी सोच से ही निकली है। दुनिया में पिछले चार-पांच सौ साल उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के रहे हैं, जिसके केंद्र में पहले यूरोप और फिर उत्तर अमेरिका रहा। 20वीं सदी में साम्राज्यवाद का केंद्र ब्रिटेन से खिसक कर संयुक्त राज्य अमेरिका चला गया। तब पश्चिमी विमर्श में Pax Americana शब्द प्रचलित हुआ। इसका अर्थ रहा है कि अमेरिका के बनाए नियमों और अमेरिका की निगरानी में चलने वाली दुनिया।

अपनी साम्राज्यवादी जड़ों के कारण पश्चिमी सोच हमेशा जीत-हार की भावना (zero sum game) से प्रेरित रहती है, जिसमें यह समझा जाता है कि अगर किसी एक को लाभ हुआ, तो वह अनिवार्य रूप से दूसरे की हानि की कीमत पर ही होगा। ऐसे में अगर आज चीन का प्रभाव बढ़ रहा है, तो पश्चिम में समझ लिया गया है कि ऐसा अनिवार्य रूप से पश्चिम को नुकसान पहुंचाते हुए ही होगा। इसलिए वहां के कई टीकाकारों को महज Sino-forming शब्द से संतोष नहीं है। तो वे आज जो हो रहा है, कई टीकाकार उसे Pax Sinicaभी कह रहे हैं।

बहरहाल, इन दोनों ही शब्दों में भले कोई सार ना हो, लेकिन दुनिया में चीन का बढ़ रहा प्रभाव एक हकीकत है। इस हकीकत और उसके पहलुओं को अवश्य समझा जाना चाहिए। बेशक चीन का प्रभाव बढ़ने की एक प्रमुख वजह उसका आर्थिक महाशक्ति के रूप उभरना है। चूंकि आज वह दुनिया के 130 से भी ज्यादा देशों का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है, इसलिए उचित ही है कि विभिन्न देशों से उसका और उन देशों का उसके साथ स्वार्थ जुड़ गया है। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। असल में अगर बात इतनी भर होती, तो अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश उसके खिलाफ वैसा शीत युद्ध नहीं छेड़ते, जिसके वास्तविक युद्ध में बदलने की आशंका रोज अधिक गंभीर होती जा रही है।

एक आर्थिक ताकत के रूप में चीन के उदय की अभी डेढ़ दशक पहले तक पश्चिम में प्रशंसा की जाती थी। यह कहानी तब बदली जब पश्चिमी देशों को अहसास हुआ कि चीन जो कामयाबियां हासिल कर रहा है, वह ऐसा अपने एक खास विकास मॉडल की रक्षा करते हुए और उसके साथ कर रहा है। पश्चिम में भय यह पैदा हुआ कि चीन के इस मॉडल के लिए दुनिया में आकर्षण बढ़ा, तो यह पश्चिमी नव-उदारवादी आर्थिक ढांचे के लिए खतरा बन सकता है। एक समय चीन अपने मॉडल को परदे के अंदर रखने की रणनीति पर चलता था। ऐसा वह देंग श्योओ पिंग के दिए “Hide your strength, bide your time” के मंत्र के तहत कर रहा था।

लेकिन आज चीन अपने और पश्चिमी मॉडल के बीच के फर्क को खुल कर प्रचारित कर रहा है। इससे दुनिया में एक वैचारिक संघर्ष की स्थिति बन गई है, जिसे अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन “लोकतंत्र बनाम तानाशाही” के रूप में पेश कर रहे हैं। इस तरह बाइडेन ने सभ्यताओं के संघर्ष की उस धारणा को आगे बढ़ा रहे हैं, जिसके जरिए अमेरिका और उसके साथी देश सोवियत संघ के विघटन के बाद से दुनिया को समझने और गढ़ने की कोशिश करते रहे हैं।

सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका में प्रकाशित हुई दो किताबों ने पश्चिमी साम्राज्यवाद को नई परिस्थितियों में नैतिक तर्क देने के लिए नई अवधारणाएं पेश की थीँ। इनमें एक किताब फ्रांसिस फुकुयामा की 1992 में प्रकाशित The End of History and the Last Man थी, जिसमें दावा किया गया कि वैचारिक युद्ध में पश्चिम के पूंजीवादी उदार लोकतंत्र की अंतिम और निर्णायक रूप से जीत हो गई है। इस तरह विचारों के संघर्ष का इतिहास समाप्त हो गया है। आगे अब सारी दुनिया को पूंजीवादी उदारवादी लोकतंत्र को ही अपनाना होगा।

उसके एक साल बाद यानी 1993 में सैमुएल पी। हटिंगटन की किताब The Clash of Civilizations आई। इसमें कहा गया कि शीत युद्ध के बाद की दुनिया में लोगों की सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिताएं टकराव का प्रमुख स्रोत होंगी। हटिंगटन ने दावा किया कि अब आगे युद्ध देशों के बीच नहीं, बल्कि संस्कृतियों के बीच होगा। जिन संस्कृतियों/धर्मों के बीच उन्होंने युद्ध या संघर्ष की संभावना देखी, वे हैं- पश्चिमी, कंफ्यूशियन, जापानी, इस्लामिक, हिंदू, स्लाव-ऑर्थोडॉक्स, लैटिन अमेरिकन और अफ्रीकन।

यह याद किया जाना चाहिए कि सोवियत संघ के पृष्ठभूमि से हटने के बाद 1990 के दशक में अचानक पश्चिमी देशों की तरफ से इस्लाम का हौव्वा खड़ा किया जाने लगा। इस्लामी व्यवस्थाओं की कथित बुराइयां चर्चा में ले आई गईं। इस्लाम के अंदर महिलाओं और आम तौर पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हनन, पश्चिमी ढंग के लोकतंत्र के अभाव और मानव अधिकारों का सम्मान ना करने के आरोपों को प्रचारित किया जाने लगा। नतीजा टकराव के रूप में सामने आया, जिसका भयंकर उदाहरण 9/11, उसके बाद “आतंक के खिलाफ युद्ध”, अफगानिस्तान पर भीषण हमले, और इराक पर अकारण एवं आपराधिक हमले के रूप में सामने देखने को मिला।

बहरहाल, 2010 का दशक आते-आते चीन की व्यवस्था से पश्चिमी नव-उदारवादी मॉडल के लिए पेश आने वाली वैचारिक चुनौतियां स्पष्ट होने लगीं। तब एक बार फिर, प्रचार तंत्र पर अपने लगभग पूरे नियंत्रण के कारण पश्चिमी देशों ने दुनिया में संघर्ष की प्राथमिकता बदलने की कोशिश की। अब इस्लाम का हौव्वा घटाया गया और चीन को उसकी जगह पर निशाने पर लिया गया। तो कुल मिला कर 1990 के दशक से लेकर अब तक दुनिया सभ्यताओं के बीच संघर्ष की पश्चिम की समझ से प्रभावित रही है।

इसी पृष्ठभूमि के कारण चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ताजा ‘विश्व सभ्यता पहल’ (Global Civilization Initiative – GCI) एक महत्त्वपूर्ण वैचारिक हस्तक्षेप के रूप में सामने आई है। शी ने बीते 15 मार्च को बीजिंग में 150 देशों से आए लगभग 500 पार्टियों और संगठनों के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए ये पहल दुनिया के सामने रखी। इस दौरान उन्होंने कहा- ‘एक फूल का खिलना वसंत नहीं है, लेकिन अगर एक साथ सौ फूल खिलें, तो उससे बगान में वसंत आ जाता है।’ इसके बाद उन्होंने कहा- ‘आज जबकि सभी देशों का भविष्य और नियति निकटता से आपस में जुड़ गए हैं, विभिन्न सभ्यताएं मिल कर सह-अस्तित्व में हैं, वे एक दूसरे से संवाद करते हुए सीख रही हैं, मानव समाज के आधुनिकीकरण में वे अपरिहार्य भूमिका निभा रही हैं और सभ्यताओं के वैश्विक बगीचे को समृद्ध बना रही हैं, मैं विश्व सभ्यता पहल का प्रस्ताव आपके सामने रख रहा हूं।’

सभ्यताओँ के संघर्ष की धारणा से दुनिया में जैसा माहौल रहा है, उसके बीच ये बातें ताजा हवा की तरह महसूस हुई हैं। बहरहाल, इससे इस बात संकेत भी बताया गया है कि दुनिया में छिड़े वैचारिक संघर्ष के बीच चीन एक अलग समझ पेश कर कथित तौर पर Sino-forming कर रहा है। इस प्रक्रिया में GCI एक ताजा पहल है, जिसे इसके पहले की गई कई ऐसी initiatives के साथ जोड़ कर देखा और समझा जा सकता है।

शी जिनपिंग ने गुजरे वर्षों के दौरान चीन में इस समझ को लोकप्रिय बनाया है कि ‘आधुनिकीकरण का मतलब पश्चिमीकरण नहीं है।’ बल्कि अब जबकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) आधुनिकीकरण की बात करती है, तो westernization से उसके फर्क पर खास जोर डालते हुए करती है। वह इस बात पर जोर डालती है कि पश्चिमी आधुनिकीकरण अनिवार्य रूप से पूंजीवाद के उदय से जुड़ा रहा है, जबकि चीन में socialist modernization यानी समाजवादी आधुनिकीकरण का प्रयोग किया जा रहा है। इस व्याख्या में पश्चिम और पश्चिमी सोच को चुनौती देने के इरादे के संकेत देखे जा सकते हैँ।

अब यह माना जा सकता है कि GCI के साथ चीन ने clash of civilizations की सोच को चुनौती दी है। शी जिनपिंग ने इन चार उसूलों को इस पहल का हिस्सा बतायाः

  • विश्व सभ्यताओं की विभिन्नता (या बहुलता) का सम्मान
  • पूरी मानवता के लिए समान उसूल
  • सभी देशों के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का सम्मान
  • अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सहयोग

 

इसके पहले चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने एक प्रस्ताव में ‘मानवता के साझा समुदाय’ की बात करते हुए ‘पूर्वाग्रहों से मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था’ बनाने की वकालत कर चुकी है। दरअसल, यह लक्ष्य अब चीन के संविधान में भी शामिल कर दिया है। इस वैचारिक पहल की शुरुआत शी जिनपिंग ने 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए भाषण में की थी, जब उन्होंने ‘समान भागीदारी, एक नया सुरक्षा ढांचा, साझा विकास, सभ्यताओं में आपसी आदान-प्रदान, और ग्रीन विकास’ की बात रखी थी।

अब बीते दो वर्षों में चीन ने तीन पहल (initiatives) के जरिए उस विचार को ठोस कार्यक्रम के रूप में पेश किया है। GCI उनके बीच सबसे ताजा पहल है। उससे पहले 2021 में चीन ने विश्व विकास पहल (Global Development Initiative- GDI) औप 2022 में विश्व सुरक्षा पहल (Global Security Initiative- GSI) का प्रस्ताव दुनिया के सामने रखा था। दरअसल, इस सबको अगर कथित Sino-forming के हिस्से के रूप में देखा जाए, तो फिर इस परिघटना की शुरुआत को 2013 में शुरू किए गए बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) से जोड़ कर देखना होगा।

BRI के जरिए चीन ने दुनिया भर में इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने और प्राचीन काल में ‘सिल्क रूट’ के नाम से मशहूर रहे अंतरराष्ट्रीय व्यापार मार्ग को आज के दौर में बनाने की पहल की थी। इसके जरिए विकासशील देशों को कर्ज जाल में फंसाने के उस पर लगे तमाम आरोपों के बावजूद आज हकीकत यह है कि तकरीबन 140 इस परियोजना में शामिल हो चुके हैँ। इसी वर्ष चीन BRI फोरम के तहत इन देशों का तीसरा सम्मेलन बीजिंग में आयोजित करने वाला है। अगर सीपीसी बीआरआई को ‘अंतरराष्ट्रीय संबंध बनाने का एक नया मॉडल’ बताती है। एशिया से अफ्रीका और यूरोप से लैटिन अमेरिका तक इस मॉडल को लेकर देश आकर्षित हुए हैं। कोरोना महामारी के दो वर्षों में इस परियोजना को काफी झटका लगा। लेकिन परियोजना और उसके साथ पेश की गई अवधारणा पहले की तरह ही मौजूद है। BRI के तहत चीन ने पांच तरह के सहयोग की योजनाएं पेश की हैं। ये क्षेत्र हैं-

  • BRI में शामिल देश की सरकार और चीन सरकार के बीच नीति समन्वय
  • व्यापार बाधाओं को कम करना
  • (इन्फ्रास्ट्रक्चर) कनेक्टिविटी। इसके तहत अब डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर को अधिक तरजीह दी जा रही है।
  • वित्तीय जुड़ाव
  • जनता के स्तर पर आदान-प्रदान

 

BRI की शुरुआत 2013 में हुई थी। उसके बाद चीन ने अगली पहल 2021 में विश्व विकास पहल यानी GDI के साथ की। ऑस्ट्रेलियाई थिंक टैंक लॉवी इंस्टीट्यूट ने हाल में इस पहल का एक विश्लेषण पेश किया। उसमें कहा गया- ‘GDI में क्या शामिल होगा, इसको लेकर अस्पष्टता के बावजूद 100 से ज्यादा देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने इस पहल का हिस्सा बनने की इच्छा जताई है। 50 देश संयुक्त राष्ट्र में बने समूह- ‘फ्रेंड्स ऑफ GDI’ में शामिल हो चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटारेस और संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियों ने इस पहल का स्वागत किया है। साथ ही कई अन्य देशों के साथ चीन के साझा वक्तव्यों में GDI का उल्लेख हो रहा है।’

GDI में इन क्षेत्रों को प्राथमिकता दी गई है-

 

  • गरीबी उन्मूलन
  • खाद्य सुरक्षा
  • महामारी से निपटने के उपाय और वैक्सीन
  • विकास के लिए धन जुटाना
  • जलवायु परिवर्तन
  • ग्रीन विकास
  • औद्योगिकीकरण
  • डिजिटल अर्थव्यवस्था और डिजिटल युग के मुताबिक कनेक्टिविटी

दरअसल GDI को संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलमेंट गोल्स (SDGs) के दायरे में तैयार किया गया है, इसलिए इस पर कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ। बल्कि विभिन्न देशों ने इसे धनी होते चीन की एक ऐसी पहल के रूप में देखा है, जिसमें चीन अपनी समृद्धि को दूसरे देशों के साथ साझा करना चाहता है।

GDI के बाद चीन ने अगली पहल ग्लोबल सिक्युरिटी इनिशिएटिव (GSI) के रूप में की।। हालांकि शी जिनपिंग ने इसका प्रस्ताव अप्रैल 2022 में बाओ फोरम के दौरान किया था, लेकिन इसका कॉन्सेप्ट पेपर इस वर्ष फरवरी में जारी किया गया। इस पहल को सामूहिक सुरक्षा की चीन की अवधारणा के रूप में देखा गया है। GSI में कुल छह पहलुओं को शामिल किया गया है। ये हैं-

  • साझा सुरक्षा (मतलब यह कि सभी देशों की सुरक्षा समान रूप से महत्त्वपूर्ण है।)
  • सभी देशों की संप्रभुता और प्रादेशिक अखंडता का सम्मान
  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर के मुताबिक विश्व व्यवस्था का संचालन
  • सभी देशों की सुरक्षा संबंधी वैध चिंताओं का सम्मान
  • सभी विवादों का बातचीत के जरिए और शातिपूर्ण ढंग से समाधान
  • परंपरागत और गैर-परांपरागत क्षेत्रों में सुरक्षा की गारंटी

उचित ही ईरान-सऊदी अरब समझौते में चीन की इस सोच की कामयाबी देखी गई है। रूस-यूक्रेन युद्ध खत्म कराने के उसके प्रस्ताव में भी साफ तौर पर इसकी झलक है।

बहरहाल, यह उचित ही है कि विश्व सभ्यता पहल (GCI) को इन सभी initiatives  के हिस्से में देखा जा रहा है। दरअसल, इन सभी पहल की जड़ शी जिनपिंग के काल में चीन में अपनाई गई ‘समग्र मानवता के समान मूल्य’ की अवधारणा में निहित है। इस दौर में ही समाजवादी आधुनिकीकरण और कॉमन प्रोस्परिटी (साझा समृद्धि) के विचार भी चीन में प्रचलित और लोकप्रिय हुए हैँ।

क्या इन विचारों का मकसद सचमुच Sino-forming है, जैसाकि पश्चिमी चर्चाओं में कहा जा रहा है? जाहिर है, इस बारे में राय अपनी-अपनी समझ और नजरिए के आधार पर बनाई जाएगी। लेकिन इस पहलू को अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए कि Pax Americana भी एक भ्रामक धारणा थी। अमेरिकी शासक वर्ग ने इस धारणा को हकीकत बनाने की कोशिश जरूर की। लेकिन दुनिया इतनी बड़ी और विभिन्नतापूर्ण तो अवश्य ही है कि उसे कभी किसी एक धारणा, एक रूप या एक रंग में ढालना संभव नहीं हो पाता है।

इसीलिए Sino-forming भी एक भ्रामक धारणा बनी रहेगी। मीडिया की चर्चाओं में ऐसी बातें जरूर आकर्षक लगती हैं, ऐसी बातों के जरिए कुछ विश्व शक्तियां भय फैलाने और अपने मकसद साधने की कोशिश में एक हद तक सफल भी हो सकती हैं, लेकिन उससे दुनिया की हकीकत को नहीं बदला जा सकता है। दरअसल, Pax Americana या Sino-forming भी धारणाएं इस सोच से निकलती हैं कि कोई ताकतवर देश कमजोर देशों और वहां के बाशिंदो को मनचाहे ढंग से प्रभावित कर सकता है। जबकि ऐसा होता नहीं है। असल में ऐसी बातें सोचना उन देशों और वहां के निवासियों के विवेक का अपमान है, जो किसी पहल से अपने हित का ख्याल करते हुए ही जुड़ते हैँ।

इसलिए Sino-forming जैसी बातों से आशंकित होने की जरूरत नहीं है। बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि विश्व सभ्यता पहल के विचार पर सकारात्मक ढंग से विचार किया जाए। संघर्ष की जगह सहयोग, संवाद या सहमति की पहल कहीं से होती दिखे, वह स्वागतयोग्य है।

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By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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