मनुस्मृति के इस श्लोक के अनुसार-सनातन ब्रह्म ने यज्ञों की सिद्धि के लिए अग्नि, वायु एवं सूर्य से ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद को व्यक्त किया।अथर्ववेद के संबंध में मनुस्मृति के अनुसार इसका ज्ञान सबसे पहले महर्षि अंगिरा को हुआ। अर्थात मनुस्मृति में प्रथम तीन वेदों को अग्नि, वायु एवं सूर्य से जोड़ा गया है। इन तीनों नामों के ऋषियों से इनका संबंध बताया गया है, क्योंकि इसका कारण यह है कि अग्नि उस अंधकार को समाप्त करती है, जो अज्ञान का अंधेरा है। इस कारण यह ज्ञान का प्रतीक माना गया है।
ऐसी मान्यता है कि वेद प्रारम्भ में एक ही था और उसे पढ़ने के लिए सुविधानुसार चार भागों में विभक्त कर दिया गया। ऐसा श्रीमद्भागवत में उल्लेखित एक श्लोक द्वारा भी स्पष्ट होता है। इन वेदों में हज़ारों मंत्र और ऋचाएँ हैं, जो एक ही समय में संभवतः नहीं रची गई होंगी और न ही एक ऋषि द्वारा। इनकी रचना समय-समय पर ऋषियों द्वारा होती रही और वे एकत्रित होते गए। परन्तु ध्यान देने की बात यह भी है कि शतपथ ब्राह्मण के श्लोक के अनुसार अग्नि, वायु एवं सूर्य ने तपस्या की और ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद को प्राप्त किया। मनुस्मृति भी कहता है-
अग्निवायुरविभ्यस्तुत्नयं ब्रह्म सनातनम।
दुदोह यत्रसिद्वद्धथमृग्यजुः सामलक्षणम्।।
मनुस्मृति के इस श्लोक के अनुसार-सनातन ब्रह्म ने यज्ञों की सिद्धि के लिए अग्नि, वायु एवं सूर्य से ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद को व्यक्त किया।
अथर्ववेद के संबंध में मनुस्मृति के अनुसार इसका ज्ञान सबसे पहले महर्षि अंगिरा को हुआ। अर्थात मनुस्मृति में प्रथम तीन वेदों को अग्नि, वायु एवं सूर्य से जोड़ा गया है। इन तीनों नामों के ऋषियों से इनका संबंध बताया गया है, क्योंकि इसका कारण यह है कि अग्नि उस अंधकार को समाप्त करती है, जो अज्ञान का अंधेरा है। इस कारण यह ज्ञान का प्रतीक माना गया है। वायु प्रायः चलायमान है। उसका काम चलना (बहना) है। इसका तात्पर्य है कि कर्म अथवा कार्य करते रहना। इसलिए यह कर्म से संबंधित है। सूर्य सबसे तेजयुक्त है, जिसे सभी प्रणाम करते हैं, नतमस्तक होकर उसे पूजते हैं। इसलिए कहा गया है कि वह पूजनीय अर्थात् उपासना के योग्य है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार ब्रह्माजी के चार मुखों से चारों वेदों की उत्पत्ति हुई।
प्राचीन काल में महर्षि पराशर के पुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यासजी थे। वे बहुत तेजस्वी थे। उन्होंने वेदों के मंत्रों को एकत्रित कर उन्हें चार अलग-अलग वेदों की उनकी विशेषतानुसार संगृहीत किया। उन्होंने इन मंत्रों को संगृहीत कर निम्न चारों वेदों की रचना की और वे इसी कारण वेद व्यास अर्थात् वेदों को विस्तार देने वाले, बाँटने वाले कहलाए।
वेदों की संख्या चार- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं । वेद 1,97,29,40,118 वर्ष पूर्व उद्भूत हुए, क्योंकि भारतीय गणना के अनुसार सृष्टि की आयु 1 अरब 95 करोड, 58 लाख, 85 हजार एक सौ 19 वर्ष हो चुकी थी, और ईश्वर ने वेदों के रूप में ऋषियों को यह ज्ञान तभी दिया। वेद कहता है –
सर्वेषा तु सा नामानि कर्माणि च पृथक्पृथक।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथ्क्संस्थाश्च निर्ममे।।
अर्थात- जब सृष्टि की रचना हुई तो उसके साथ ही वेद के शब्दों द्वारा सभी नाम अलग-अलग नियत किए गए और उनकी संस्थाएँ भी अलग-अलग नियत की गईं।
स्पष्ट है कि जब सृष्टि की रचना हुई तब वेदों में सभी के लिए नाम, उनके कर्म, उनकी संस्थाओं को अलग-अलग बनाया गया जिससे सभी अपनी-अपनी संस्था, नाम आदि के अनुसार कर्म करें। परमेश्वरोक्त ग्रन्थ वेद के अंदर वह ज्ञान, वह शक्ति है जो सम्पूर्ण मानव जाति के लिए उपयोगी है। अर्थात वेद प्राणी के कल्याण को सर्वोपरि मानकर उसके कल्याण की ही शिक्षा देते हैं।
वेदों की उत्पति का पौराणिक वर्णन भी उपलब्ध है। पौराणिक विवारणानुसार ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के समय देवों और मनुष्यों के साथ असुरों की भी रचना की । इन असुरों में देवों के विपरीत आसुरी गुणों का समावेश था, इस कारण ये स्वभाव से अत्यंत क्रूर, अत्याचारी और अधर्मी हो गए। ब्रह्मा ने देवगण के लिए स्वर्ग और मनुष्यों के लिए पृथ्वी की रचना की, और असुरों की आसुरी मानसिकता का ज्ञान हुआ तो उन्होंने असुरों को पाताल में निवास करने के लिए भेज दिया।
स्वच्छंद आचरण करने वाले असुरों ने शीघ्र ही अपनी तपस्या के बल पर भगवान शिव को प्रसन्न कर वरदान में अनेक दिव्य शक्तियाँ प्राप्त कर लीं और पृथ्वी पर आकर ऋषि-मुनियों पर अत्याचार करने लगे। धीरे-धीरे ये अत्याचार बढ़ते गए। जिससे असुरों की आसुरी शक्तियों में भी वृद्धि होती गई। देवों की शक्ति का आधार भक्ति, सात्त्विकता और धर्म था, लेकिन स्वर्ग के भोग-विलास में डूबकर वे इसे भूल गए, जिससे उनकी शक्ति क्षीण होती गई। देवों को शक्तिहीन देखकर दैत्यों ने स्वर्ग पर अधिकार करने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया। सैकड़ों वर्षों तक देवों और असुरों में भीषण युद्ध हुआ, लेकिन शक्तिहीन होने के कारण अंत में देवों की पराजय हुई और वे प्राण बचाते हुए स्वर्ग से भाग खड़े हुए। इस प्रकार शक्तिसंपन्न असुरों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। इन्द्रादि देवगण अपनी रक्षा करने के लिए भगवान शिव के सम्मुख प्रकट हुए।
भगवान शिव ने जब देवों से वहाँ आने का कारण पूछा तो देवराज इंद्र बोले- भगवान ! आपके द्वारा वरदान प्रदान करने से असुर शक्तिशाली हो गए हैं। उन्होंने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया और हमें मारने का संकल्प किया है। आप हमारी रक्षा करें। देवों की करुण पुकार सुनकर शिव बोले-देवगण ! भोग-विलास और ऐश्वर्य में डूबे रहने के कारण तुम्हारी शक्तियाँ क्षीण हो गई हैं, जबकि असुर अपनी तपस्या के बल से परमबलशाली हो गए हैं। तुम्हारी रक्षा अब केवल माता गायत्री ही कर सकती हैं। अतः आप सब माता गायत्री की शरण में जाएँ। तब शिव सहित सभी देवगण भगवती गायत्री के सम्मुख उपस्थित हुए और उनकी विधिवत पूजा-अर्चना की। भगवती गायत्री के प्रसन्न होने पर भगवान् शिव बोले-हे माते ! तीनों लोकों में असुरों के अत्याचारों से हाहाकार मच गया है। आसुरी शक्तियाँ दैवीय शक्तियों से अधिक बलशाली हो गई हैं। देवों को शक्तिशाली बनाने के लिए यह आवश्यक है कि पृथ्वी पर भक्ति, सात्त्विकता, धर्म और सदाचार की स्थापना की जाए, जिससे दैवीय शक्तियों को बल प्राप्त हो और वे शक्तिशाली होकर आसुरी शक्ति को पराजित कर सकें। देवों की करुण विनती सुनकर भगवती गायत्री बोलीं- देवगण ! आप निश्चिंत रहें। मैं वैदिक और धार्मिक शक्तियों द्वारा चार वैदिक पुत्रों को जन्म दूँगी, जो भक्ति, धर्म, न्याय और सदाचार की स्थापना करते हुए देवों को शक्ति प्रदान, कर शक्तिसम्पन्न बनाएँगे। इतना कहने के बाद देवी गायत्री ने नेत्र बंद कर अपनी वैदिक और धार्मिक शक्तियों को मस्तिष्क में केन्द्रित किया। कुछ समय बाद उन्होंने अपने नेत्र खोले। नेत्रों के खुलते ही उनमें से एक दिव्य प्रकाश पुंज प्रकट हुआ।
उस प्रकाश पुंज में से निकलने वाली तेज किरणें सभी दिशाओं को आलोकित करने लगीं। वह प्रकाश पुंज इतना अधिक तेजयुक्त था कि ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण प्रकाश भी उसके समक्ष प्रभाहीन हो गया। तत्पश्चात् इस प्रकाश-पुंज में से चार दिव्य बालकों-ऋग्, यजु, अथर्व और साम का जन्म हुआ। भगवती गायत्री की वैदिक और धार्मिक शक्तियों के कारण ही उनका जन्म हुआ था, इसलिए ये चारों बालक वेद और भगवती गायत्री वेदों की माता कहलाईं। दिव्य बालकों के जन्म लेते ही भगवती गायत्री उनसे बोलीं-हे पुत्रों ! तुम्हारा जन्म सृष्टि के कल्याण के लिए हुआ है। आज से तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन पृथ्वी पर धर्म और भक्ति के प्रचार में व्यतीत होगा। जब तक संसार में तुम चारों का अस्तित्व रहेगा, तब तक पृथ्वी पर तामसिक शक्तियाँ श्रीहीन रहेंगी। असत्य पर सदा सत्य की विजय होगी। भगवती गायत्री से अपने जन्म का उद्देश्य जानकर चारों दिव्य बालक पृथ्वी की ओर प्रस्थान कर गए। कुछ ही दिनों के बाद वेदों के प्रभाव के कारण पृथ्वी पर सात्त्विक शक्तियों का प्रसार होने लगा। ऋषि-मुनि यज्ञ और अनुष्ठान करने लगे, जिनसे शक्ति प्राप्त कर देवगण शक्तिशाली होते गए। शीघ्र ही देवों ने असुरों पर आक्रमण कर दिया। इस बार असुरों की तामसिक शक्तियाँ देवों की सात्त्विक शक्तियों के समक्ष टिक न सकीं और असुरों को पराजित होकर पाताल में भागना पड़ा। स्वर्ग पर पुनः देवों का अधिकार हो गया।