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संकट में नेता हो तो लिंकन जैसा पर आज...

ByV Vinayak,
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संकट में नेता हो तो लिंकन जैसा पर आज...
पिछले हफ्ते अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने लिंकन मेमोरियल में लिंकन की मूर्ति के आगे बैठ फॉक्स न्यूज को इंटरव्यू दिया। ट्रंप ने राष्ट्रपति लिंकन से तुलना करते हुए उन जैसा अपने को पेश किया। उस पर अमेरिका में बवाल हुआ। भला कहां लिंकन और कहां ट्रंप! लेकिन ट्रंप पहले अमेरिकी या वैश्विक नेता नहीं हैं, जिन्होने संकट काल में अपने को लिंकन जैसे नेता होने या उनके कद का दावा किया। मार्गरेट थैचर से लेकर रोनाल्ड रीगन, विंस्टन चर्चिल, रिचर्ड निक्सन आदि ने भी अपने को किसी न किसी रूप में लिंकन को देखने-दिखलाने की कोशिश की। थैचर जहां लिंकन के उदाहरण देने के लिए मशहूर थी वहीं चर्चिल ने लिंकन को अपना प्रेरणा स्रोत बना लिया था, जिनकी प्रेरणा से उन्होंने 1956 में ‘हिस्ट्री ऑफ इंगलिश स्पीकिंग पीपल्स’ लिखी थी। ट्रंप के पूर्ववर्ती और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता बराक ओबामा ने भी अब्राहम लिंकन को एक देवतातुल्य मानते थे और मन ही मन उनकी तरह याद किया जाना चाहते थे। भला क्यों? इसलिए कि लिंकन ने अमेरिकी इतिहास के सर्वाधिक विकट वक्त, गृहयुद्ध जैसे संकट में से देश को बाहर निकालने, देश को बनाने वाली लीडरशीप दी थी। उनके नेतृत्व के गुण वैश्विक प्रतिमान में, लीडरशीप क्वालिटी में कसौटी हैं। लिंकन पर सबसे ज्यादा काम करने वालों में से एक नाम डॉरिस केर्न्स गुडविन का हैं, जिन्हें पुलित्जर सम्मान मिला हुआ है। उन्होंने आठ सौ पेज की किताब टीम ऑफ राइवल्स : द पॉलिटिकल जीनियस ऑफ अब्राहम लिंकन लिखी है, जिसमें अमेरिका के गृहयुद्ध के बारे में विस्तार से बताया गया है। यह किताब हमें लिंकन के भीतर के कौशल और उनकी राजनीतिक चतुराई के बारे में विस्तार से बताती है। उनका निज कौशल और राजनीतिक चतुराई, ये दो गणु हैं, जो लिंकन को महान बनाने वाले मुख्य कारण हैं।लिंकन के बारे में दिए एक इंटरव्यू में उनकी जीवनी के लेखक ने कहा है- तब लिंकन जिस रास्ते पर चल रहे थे, उसे मैं राजनीतिक जीवन में असाधारण मानता हूं, वे भावनात्मक तौर पर मजबूत थे, जिसे आज हम भावनात्मक बुद्धिमता कह सकते हैं। सो, जब जब ऐसे लोगों में सभी प्रकार की प्रतिद्वंद्विता छिड़ती है और फिर जैसे एक दूसरे के खिलाफ बोला जाता है, कैबिनेट में भी, आज के हिसाब से झूठे, विश्वासघाती, चोर– लेकिन वह (लिंकन) किसी तरह उस तूफान के केंद्र में रहते हुए इसका सामना करने में सक्षम, समर्थ थे। इस सबसे जब भी वे आहत होते तो ये कहते हुए एक पत्र लिख देते थे कि अगर मैंने किसी भी रूप में आपको कोई ठेस पहुंचाई हो तो मेरा उद्देश्य ऐसा करना नहीं था। मैं जल्दबाजी में जो कुछ कर गया, उसके लिए मुझे माफ कर दें। जब वे किसी से परेशान होते तो गुस्से में खत लिखते और उसे एक तरफ रखे रहते जब तक कि गुस्सा एकदम शांत न हो जाता और फिर उसे न भेजते, न उस पर दस्तखत करते। लोग लिंकन के प्रति सिर्फ दयालु और संवेदनशील होने का भाव रखते थे। अगर किसी को लग रहा होता कि वे किसी अन्य व्यक्ति को बहुत ज्यादा समय दे रहे हैं तो वे उस व्यक्ति को छोड़ ऐसा सोचने वाले के साथ हो लेते और फिर साथ घूमते या उसके साथ सवार हो लेते। इसलिए लिंकन के स्वभाव में वह सब था, और वह सब किया जो एक महान राजनीतिज्ञ करता है, अपनी राजनीतिक सफलता के लिए मानवीय रिश्ते को केंद्र में रखना, किसी न किसी तरह से लोगों को साध लिया करना। दुनिया आज कोविड-19 से भयावह संकट में है। तभी आज के वक्त यह कौतुक भी है कि ट्रंप, पुतिन, बोसोनारो और दुतेर्ते जैसे नेताओं के जमाने में कौन लिंकन की तुलना में है? किसे लिंकन के बराबर रख कर देखा जा सकता है। और यह उत्सुकता आजाद भारत की राजनीति में भी सवाल पैदा करती है। 73 साल के आजाद भारत में किसे लिंकन के सियासी कौशल वाले खांचे में फिट किया जा सकता है। हम पंडित जवाहरलाल नेहरू को रख सकते हैं। आखिर भारत की आजादी की लड़ाई में उनकी भूमिका और उनके मिलनसार स्वभाव ने उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया था, हालांकि अमीरी और राजसी परिवारिक पृष्ठभूमि से वे लिंकन के सांचे में नहीं जमते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि नेहरू एक छात्र के बजाय शिक्षक के रूप में ज्यादा देखे-पहचाने जाते थे। वंश पंरपरा और चांदी का चम्मच जैसी बातें नेहरू-गांधी परिवार के लोगों के लिए कही जाती हैं और उससे नेतृत्व कौशल, मानवीय संबंधों में समानता के साथ सहज व्यवहार नहीं बनता। एक हद तक दिवंगत प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की तुलना लिंकन से की जा सकती है। एक साधारण किसान परिवार में जन्मे नरसिंह राव एक चतुर राजनीतिक थे। वे स्वतंत्रता सेनानी भी रहे। बाद में कांग्रेस में शामिल हुए और 1971 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इसके बाद राष्ट्रीय राजनीति में उनका तेजी से उदय होता गया और इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों में महत्त्वपूर्ण कैबिनेट मंत्री रहे। 1991 में वे भारत के प्रधानमंत्री बने। यह पहला मौका था जब नेहरू-गांधी परिवार के बाहर का भारत में कोई कांग्रेसी प्रधानमंत्री बना था। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने नांदियाल से लोकसभा का उपचुनाव लड़ा था और पांच लाख वोटों के अंतर से जीत का रिकार्ड बनाया था, जो गिनीज बुक में भी दर्ज हुआ। इतनी ताकत और भारत में पीएम के पद की शक्ति के बावजूद उन्होंने प्रधामंत्री पद के अपने प्रतिद्वंद्वी शरद पवार से लेकर अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी आदि सबको अपने साथ रखा। मंत्री बनाया। आर्थिक संकट की नजाकत में बाहर से लाकर डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया। इतना ही नहीं, विपक्षी नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी को श्रम मानक और अंतरराष्ट्रीय व्यापार आयोग का अध्यक्ष बनाया और अटल बिहारी वाजपेयी को जिनेवा में होने वाली संयुक्त राष्ट्र की बैठक में भारत का प्रतिनिधि बना कर भेजा था। राजनीतिक कौशल, चतुराई, मानवीय रिश्तों से राजनीति को उस तरह खेला, जिसने नेतृत्व को सकंटमोचक बनाया। नरसिंह राव का सबसे बड़ा योगदान तो यह रहा कि वे 1991 के आर्थिक संकट से भारत को बचा ले गए थे और आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे दुनिया के लिए उन्होंने खोले। हालांकि उन्हें उस वक्त चौतरफा इसका विरोध भी झेलना पड़ा था, लेकिन उन्होंने होशियारी से सबको साध लिया था। इसीलिए उन्हें भारत की आधुनिक आर्थिकी का पितामह माना जाता है। यहीं ऐसी खूबियां और काम हैं जो नरसिंह राव को लिंकन के समान कर देती हैं। और यह सिर्फ विगत को समझ सकने की योग्यता से ही संभव हो पाता है। अब सवाल है कि आज के विकट वायरस दौर में क्या भारत के राजनेताओं में से किसी को लिंकन के समान रख कर देख सकते हैं? यह सामान्य सी बात है, हर कोई जान-समझ रहा है कि केंद्र और ज्यादातर राज्य सरकारें आजकल एक व्यक्ति की मुट्ठी में सिकुड़ कर रह गई हैं। यानी ये सरकारें एक ही व्यक्ति का खेल होकर रह गई हैं। इसका उदाहरण हमारे प्रधानमंत्री और पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश, ओड़िशा के सभी मुख्यमंत्री के रूप में दिया जा सकता है। भारत के नेतृत्व वाले चेहरों के लिए मानवता, मिलनसारिता और प्रतिद्वंदियों से भावनात्मक बुद्धिमता, चतुराई से गर्वनेंस कर सकना संभव ही नहीं है। तभी मौका किसी को कितना ही मिले, राजकाज नौ दिन चले अढ़ाई कोस का होता है। सकंट खत्म नहीं होते हैं, बल्कि देश को उनके साथ जीना होता है। मुख्यमंत्रियों की फिलहाल लिस्ट में दो नाम अवश्य हैं, जिन्हें अलग रखा जा सकता है। एक अशोक गहलोत और दूसरे शिवराज सिंह चौहान। दोनों मुख्यमंत्रियों की ऐसी कैबिनेट है या बनाई गई है, जिसमें उन्हें खुल कर चुनौती देने वाले लोग शामिल हैं। राजस्थान में दो साल पहले जिस तरह का घमासान मचा था और बागी सिर उठा रहे थे, तब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने मुखरतम प्रतिद्वंद्वी को उप मुख्यमंत्री बना कर उन्हें सार्वजनिक निर्माण, ग्रामीण विकास, पंचायती राज और विज्ञान प्रौद्योगिकी जैसे विभाग दिए। साथ ही उनके वफादारों को भी कैबिनेट में शामिल लिया गया। यह ठीक वैसा ही था जैसे लिंकन ने सीनेटर सेलमोन पी चेज को देश का वित्त मंत्री बनाया था। चेज राष्ट्रपति चुनाव में लिंकन के प्रतिद्वंद्वी थे। उन्होंने लिंकन के खिलाफ न सिर्फ जोरदार अभियान चलाया था, बल्कि लिंकन प्रशासन के बारे में वे लगातार अफवाहें फैलाते रहे। लेकिन फिर भी लिंकन उनके साथ खड़े रहे थे। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि लिंकन बहुत ही गरीब परिवार से थे और अपनी मेहनत से पढ़ते हुए ही वकील बने थे। जबकि चेज एक राजनीतिक परिवार में जन्मे थे और डथमाउथ कॉलेज से पढ़ थे। ठीक वैसी समानता अशोक गहलोत और उनके नबंर दो सचिन पायलट में है। इसी तरह शिवराज सिंह चौहान की मौजूदा कैबिनेट हैं। उन्होंने अपने चिर प्रतिद्वंद्वी डॉ. नरोत्तम मिश्रा को अपनी कैबिनेट में लिया और उन्हें गृह और स्वास्थ्य, परिवार कल्याण जैसे विभाग सौंपे, यह जानते हुए भी कि वे दिल्ली के प्रिय हैं और उन्हें मध्य प्रदेश की कुर्सी पर बैठाने की चाहना रही है। इससे भी बड़ी बात यह कि 2018 के चुनावों के बाद शिवराज सिंह चौहान खुद विपक्ष के नेता नहीं बने, बल्कि उन्होंने उन गोपाल भार्गव को यह पद सौंपा, जो उनके मुख्यमंत्री पद पर निगाह रखे रहे थे। और सबसे बड़ी मानवीय रिश्ते के कोर वाली बात जो उन्होंने यह दिखाई कि मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद भी पूर्व मुख्यमंत्री को उन्होंने मुख्यमंत्री निवास में रहने दिया। जब मीडिया का मामला आता है तो अशोक गहलोत और शिवराज सिंह चौहान दोनों को राष्ट्रीय अखबार और चैनल जिस तरह से दिखाते हैं, वह एक तरह की घोर उपेक्षा और तिरस्कार से कम नहीं है। इसी तरह का व्यवहार तब लिंकन और उनके प्रशासन के साथ न्यूयार्क टाइम्स और दूसरे अखबार किया करते थे। हालांकि गहलोत और चौहान ने कभी भी इसे लेकर कोई शिकायत नहीं की। दिल्ली के एक अंग्रेजी चैनल पर गहलोत अक्सर दिखाई देते हैं, यह जानते हुए भी कि इस चैनल ने खुलेआम उनके डिप्टी को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाने के लिए लॉबिंग की थी। इसी तरह मध्य प्रदेश में भी है। शिवराज सिंह चौहान हमेशा विनम्र बने रहे और किसी भी पत्रकार की मदद के लिए तैयार रहे, चाहे उसका संपादकीय या राजनीतिक झुकाव जैसा भी हो। इसलिए कोरोना के इस वक्त से आने वाले महीनों में यह देखना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि किस तरह से ये दोनों नेता कोरोना से जंग के वक्त में मानवता, मिलनसारिता और भावनात्मक समझ जैसी खूबियों से अपने को आगे बढ़ा पाते हैं। इन्हें लिंकन की किताब से सीख लेनी चाहिए और लिंकन के इन शब्दों को याद रखते हुए हर जिले को एक युद्ध क्षेत्र में बदलते हुए उनका मोर्चा संभालना चाहिए और लोगों के बीच जाना चाहिएआखिर अपने उद्देश्य के लिए, किसी को जीतने के लिए सबसे पहले आपको उसके दिल तक पहुंचना होता है।
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