कितने लोग हैं, जो राजनीतिक इतिहास में जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, इंदिरा गांधी या अटल बिहारी वाजपेयी की तरह, कालजयी-सी, ज़रा दीर्घकालीन पहचान बना पाते हैं? (मैं महात्मा गांधी को इससे इसलिए बाहर रख रहा हूं कि वे रोज़मर्रा की प्रबंधन-सियासत के बजाय सामाजिक परिवर्तन के बीज बोने का उद्यम करते रहे।) बाकी सब तो राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री तक बन जाने के बावजूद दस-बीस-तीस साल में जन-स्मृति के परदे से गायब हो जाते हैं। ऐसा आख़िर क्यों होता है?
हमारे मौजूदा राष्ट्रपति का क्रम पंद्रहवां है। क्या आप पहले के चौदहों राष्ट्रपतियों के नाम बिना सांस लिए बता सकते हैं? हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री का क्रम चौदहवां है। क्या आप बाकी के तेरहों प्रधानमंत्रियों के नाम एक सांस में बता सकते हैं? तो जब जुम्मा-जुम्मा पचहत्तर साल में, अब के पहले हुए, कुल जमा 27 राश्ट्रपतियों-प्रधानमंत्रियों के चेहरे, अपनी पेशानी पर बल डाले बिना हमारी यादों के झरोखे में आकार नहीं ले पाते हैं तो राजनीतिक पहचान के इतने अल्पजीवी होने के बावजूद सियासी तहखाने में इतनी मारामारी क्यों रहती है?
क्या आप बता सकते हैं कि आज़ादी हासिल करने के बाद देश की केंद्रीय मंत्रिपरिषद में कितने लोग मंत्री रह चुके हैं? मुश्क़िल है न? मैं ने हिसाब लगाया। नरेंद्र भाई मोदी की मौजूदा मंत्रिपरिषद में अभी 28 काबीना मंत्री हैं, स्वतंत्र प्रभार वाले 2 राज्य मंत्री हैं और 47 राज्य मंत्री हैं। इससे पहले की तमाम सरकारों में 1947 से अब तक कुल मिला कर 5 उप-प्रधानमंत्री, 302 काबीना मंत्री, 8 काबीना दर्ज़ा प्राप्त ऐसे मंत्री जो व्यावहारिक तौर पर कैबिनेट का हिस्सा नहीं थे, 61 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री, 323 राज्य मंत्री और 69 उप-मंत्री/संसदीय सचिव हो चुके हैं। सब जोड़जाड़ कर यह संख्या 859 होती है। इनमें कई ऐसे हैं, जो राज्यमंत्री भी रहे, कैबिनेट मंत्री भी, उप-प्रधानमंत्री भी और प्रधानमंत्री भी। सो, मान लें कि 1947 के बाद से तक़रीबन 600 व्यक्ति अलग-अलग समय पर केंद्रीय मंत्रिपरिषद के सदस्य रहे हैं।
राजनीति के कंचे खेलते-खेलते केंद्रीय मंत्रिपरिषद तक पहुंच जाने को क्या आप मामूली उपलब्धि मानेंगे? नहीं न? सियासी भूलभुलैया के कोल्हू में पिसते-पिसते इस मुक़ाम तक पहुंचने पर तो हर एक ने अपने को धन्यभाग्य ही समझा होगा? आख़िर तो करोड़ों-करोड़ की सदस्यता वाले राजनीतिक दलों के मुल्क़ में छह सौ की तादाद उंगलियों के पोरों पर गिन लेने जैसी ही है। सोचिए कि जिस दौड़ में हज़ारों-लाखों लोग अपने दिन-रात खपा कर अनवरत हिस्सा ले रहे हों, उसमें पांच-छह सौ लोगों के जीतने पर तो उन सभी की तस्वीरों के फ्रेम जन-मन की स्मृति का अमिट हिस्सा बन जाने चाहिए! मगर ऐसा क्यों है कि सौ-पचास को गिनने में ही हमारी उंगलियां थक जाती हैं?
राजनीति की दुनिया इस ‘आए भी वो, गए भी वो, ख़त्म फ़साना हो गया’ वाली क्षणभंगुर पहचान के बारे में सोचने की फ़ुरसत किसी को नहीं देती है। सब को ऐसी आपाधापी का हिस्सा बना देती है कि वे आजीवन चकरघिन्नी बने रहते हैं। समाज के लिए कुछ करने और देश के लिए मर-मिटने का जज़्बा ले कर एक ज़माने में कुछ बेलौस नौनिहाल राजनीति में आया करते होंगे तो आया करते होंगे। अब तो नन्हे मुन्ने-मुन्नियों की आंखें भी सियासत के प्रसूतिगृह में पार्षद-विधायक के न्यूनतम सपने संजोए खुलती हैं। ऐड़ियां रगड़ते-रगड़ते, फ़र्शी सलामियां बजाते-बजाते और अपना ज़मीर कुचलते-कुचलते उनमें से कुछ इस सांप-सीढ़ी के सौ में से दस-बीस खानों का सफ़र तय कर पाते हैं। पहले ही झटके में मध्य कतार तक की सीढ़ी चढ़ जाने वाले ख़ानदानी भाग्यशालियों को छोड़ दें तो ज़्यादातर की गोटियां उसके बहुत पहले ही बिखर चुकी होती हैं।
मगर नए खून को मौक़ा देने का झक्कू साल-दर-साल सियासी महामंडलेश्वरों के लिए खाद-पानी का इंतजाम करता रहता है। एक पौध आती है, तन-मन-धन से अपना सर्वस्व न्यौछावर करती है, निचुड़ जाती है तो राजनीतिक मुमुक्षु भवन के हवाले हो जाती है। उसके अनुभवों से बाख़बरी को दरकिनार कर, जानबूझ कर बेख़बर बने रहने में डूबी, दूसरी पौध आती है, उन्हीं बरामदों से गुजरती है, खपती है और डंठल गति को प्राप्त हो विदा हो जाती है। इनमें से इक्कादुक्का सिंहासन के हाशियानशीनी पायों से लिपट पाने का आनंद ले पाते हैं और अपने उपयोगिता-काल में लोकनायक-मुद्रा में इतराते घूमने के बाद सियासी पर-धाम सिधार जाते हैं। इस दौरान कुछ अपने भौतिक सुखों की गठरी थोड़ी भारी कर लेते हैं। यही उनके लिए जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि है।
बावजूद इन तमाम पतनालों की उपस्थिति के सियासी संसार में सुक़ूनदायी झीलों की झलकियां भी देखने को मिलती हैं। जनखाकरण के इस उद्योग की खाई के किनारे ख़ुद्दारी के टीले भी सिर उठाए देखने को मिलते रहते हैं। कब किस केंचुए के लिजलिजाते बदन में रीढ़ की हड्डी उग जाएगी, इसकी भविष्यवाणी करने में बड़े-बड़ों की राजनीतिक पंडिताई गच्चा खाते आप ने भी देखी होगी। मैं भी चार दशक से ज़्यादा के अपने सक्रिय पत्रकारीय-राजनीतिक जीवन में अचानक एक सुबह किसी घीसू के उठ कर खड़े हो जाने की बीसियों छोटी-बड़ी गाथाओं का ग़वाह रह चुका हूं। बहुत-से मुगोंबोओं की हुंकार को मिमियाहट में तब्दील होते और कई लाहन्य भीकुओं को हेराक्लीज़ में बदलते मैं ने देखा है।
इसलिए राजनीतिक भूमिका की क्षणभंगुरता, नश्वरता और अल्पजीविता के होते हुए भी उठापटक की राजनीति से मेरा मोहभंग अभी नहीं हुआ है। यह अलग मुद्दा है कि मेरे जैसे लोग उठापटकीय-दुनिया के कितने क़ाबिल हैं कितने नहीं, मैं नहीं जानता। पर मारामारी कहां नहीं है? आपाधापी कहां नहीं है? राजनीति और कारोबार की दुनिया के तो ख़ैर ये बीज-मंत्र ही हैं, लेकिन क्या सामाजिक संसार इससे मुक्त है? क्या सांस्कृतिक संसार की संस्कृति इससे दूर है? क्या शिक्षा-जगत समानताधर्मी टापू है? क्या साहित्य के बगीचे में रातरानी ही खिल रही है? क्या पत्रकारिता के गुलाब में कांटे नहीं हैं? क्या धर्म-परिसर में सिर्फ़ केसर और जावित्री की महक है? सो, सब-कुछ कितना ही निरर्थक हो, इसका यह भी अर्थ नहीं है कि हम अपनी-अपनी कंदराओं में जा कर सो जाएं। ऐसे तो मनुष्य जन्म ही अनित्य है। तो क्या जन्मते ही आत्महत्या कर लें?
यह चूहा-दौड़ की होड़ में सबसे आगे निकलने के लिए सब-कुछ स्वाहा कर देने का दौर है। विवेक, स्वाभिमान, दीन-ईमान, ज़मीर – सब लुटा कर एकनाथ बनना है, बन जाइए; मुरलीगोपाल बनना है, बन जाइए; सूर्यकिरण बनना है, बन जाइए। अपने मन में जो बनना है, बन जाइए। मगर दुनिया की आंख आपको जिस रूप में देख रही है, वही सबसे महत्वपूर्ण है। अपने मन में आप स्वयं को तपस्वी समझ कर मस्त रहिए, दुनिया की निग़ाह आप के वस्त्रों के भीतर का सच जानती है तो जानती है। कोई कहे-न-कहे कि राजा नंगा है, मगर अगर वह है, तो है, और उसकी नंगई सब को दीखती है। और, राजा हर कबीले में है। अपने-अपने कबीले के सारे राजाओं की चरित्रावली में कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है। अपनी-अपनी प्रजा से उनके रिश्तों का समीकरण तय है। इस समीकरण की आधारशिला एक-सी है। सिर्फ़ राजाओं की दृग्विद्याएं भिन्न हैं। इसलिए भौतिक दृश्यों पर मत जाइए। उनका मर्म समझिए। तब आपको अहसास होगा कि आप फरिश्तों की तरह कितने मासूम हैं और आपको सचमुच कुछ नहीं मालूम!
लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।