अगर एलएसी के अस्तित्व को ठुकराने की बात में थोड़ी भी सच्चाई है, तो फिर भारत-चीन सीमा विवाद के जुड़े लगभग सारे धागे खुल जाएंगे। उस हाल में बात घूम फिर कर मैकमोहन लाइन और उसकी वैधता पर जा टिकेगी। चीन इस लाइन को नहीं मानता। तो उसकी निगाह में बात उस जगह पर पहुंच जाएगी, जहां वह 1962 के युद्ध के पहले- दरअसल 1959 में थी।।।। तमाम प्रश्न अनुत्तरित हैं। इन तमाम मुद्दों को लेकर भ्रम कायम है। स्पष्टता का अभाव है। तो सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर इस उलझन की जड़ें कहां हैं? Indias China Policy confusion
उन्नीस जून 2020 को हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान को सुन कर सारा देश सन्न रह गया था कि लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर ‘ना तो कोई भारत के अंदर घुसा है, ना कोई घुसा हुआ है और ना ही कोई हमारी किसी चौकी को कब्जा करके बैठा हुआ है।’ चार दिन ही पहले गलवान घाटी में चीनी फौजियों के साथ लड़ाई में 20 भारतीय सैनिकों की जान चली जाने की खबर से तब देश आहत था। उसके लगभग डेढ़ महीने पहले से लगातार यह खबर आ रही थी कि लद्दाख क्षेत्र में कई स्थलों पर चीनी फौजी एलएसी पार करके भारतीय क्षेत्र में आ घुसे हैं। गलवाल घाटी के अलावा पैंगोग सो, घोगरा, देसपांग आदि जैसे क्षेत्रों में घुसपैठ की चर्चा थी। उन खबरों की भारत सरकार ने ना तो पुष्टि की थी, ना ही उनका खंडन किया था। लेकिन गलवान घाटी की घटना के बाद प्रधानमंत्री के बयान से संकेत मिला कि भारत सरकार ने सिरे से घुसपैठ की बात नकार दी है।
उसके डेढ़ साल बाद अब तक भारत सरकार का जो रुख सामने आया है, उससे यह संकेत मिलता है कि चीन के साथ एलएसी के अस्तित्व को ही भारत सरकार अब नकार रही है। अगर यह बात सच है, तो फिर एलएसी के आधार पर अतीत में- खास कर 1988 के बाद से हुए तमाम समझौतों का अस्तित्व अपने आप खत्म हो जाता है। उसके बाद बात सीमा विवाद पर जा ठहरती है, जिसकी कहानी एक सदी से अभी अधिक पुरानी हो चुकी है।
जाहिर है, अगर एलएसी के अस्तित्व को ठुकराने की बात थोड़ी भी सच्चाई है, तो फिर भारत-चीन सीमा विवाद के जुड़े लगभग सारे धागे खुल जाएंगे। उस हाल में बात घूम फिर कर मैकमोहन लाइन और उसकी वैधता पर जा टिकेगी। चीन इस लाइन को नहीं मानता। तो उसकी निगाह में बात उस जगह पर पहुंच जाएगी, जहां वह 1962 के युद्ध के पहले- दरअसल 1959 में थी। गौरतलब है कि 1959 में चीन ने सीमा विवाद पर अपना दावा पेश किया था।
भारत-चीन सीमा विवाद पर भारत सरकार के रुख में बुनियादी बदलाव आ गया है, यह शक पिछले डेढ़ साल में चीनी घुसपैठ पर भाजपा सरकार की तरफ से जारी बयानों से पैदा हुआ है। जो रुख इन बयानों में जाहिर हुआ है, उसे ही सरकार समर्थक प्रचार तंत्र और भारत के मेनस्ट्रीम मीडिया ने भी आगे बढ़ाया है। इस बात को बारीकी से समझने की जरूरत है।
इस साल के पहले दिन गलवान घाटी में चीनी फौजियों की तरफ से चीन का झंडा फहराने और “अपनी जमीन” के एक-एक इंच की रक्षा करने का प्रण लेते हुए चीनी सैनिकों का एक वीडियो सर्कुलेट हुआ। उसके बाद तुरंत बाद खबर आई कि चीन पैंगोग सो झील के पास एक ऐसा पुल बना रहा है, जिससे वहां चीनी फौज के पहुंचने की दूरी लगभग 180 किलोमीटर कम हो जाएगी। भारत सरकार समर्थक प्रचार तंत्र ने गलवान घाटी वाली खबर को चीनी दुष्प्रचार का हिस्सा बताया। यह भी कहा गया कि चीनी फौजियों ने अपना झंडा अपनी सीमा के अंदर फहराया है। उसके बाद नए पुल निर्माण के बारे में भारत सरकार का आधिकारिक बयान आया। उसका लब्बोलुआब यह रहा कि चीन यह निर्माण उस क्षेत्र में कर रहा है, जिस पर साठ साल पहले (यानी 1962 के युद्ध में) उसने कब्जा कर लिया था।
स्पष्टतः भारत सरकार ने यह कहा कि हाल में- यानी अप्रैल 2020 के बाद उस क्षेत्र में कोई चीनी कब्जा नहीं हुआ है। गुजरे महीनों में ऐसी खबरें भारतीय मीडिया में आईं, जिनके मुताबिक चीन ने अरुणाचल प्रदेश के हिस्से में नई बस्तियां बसाई हैं। उन बस्तियों की सैटेलाइट तस्वीरें भी मीडिया में छपी हैं। लेकिन उन सभी मौकों पर भारत सरकार ने कही कहा है कि वे बस्तियां उन गांवों में बसाई गई हैं, जहां चीन ने साठ साल पहले कब्जा कर लिया था। इस तरह नरेंद्र मोदी सरकार लद्दाख या अरुणाचल प्रदेश में हाल में किसी प्रकार की चीनी घुसपैठ की बात का खंडन करती रही है। लेकिन सामान्य स्थितियों में इन खंडनों से निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलतेः
- अगर कोई घुसपैठ नहीं हुई है, तो फिर गलवान घाटी में आखिर भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़प किसलिए हुई थी, जिसमें 20 भारतीय और (चीन के आधिकारिक बयान के मुताबिक) चार चीनी फौजी मारे गए थे?
- अगर 2020 से लेकर कोई चीनी घुसपैठ नहीं हुई, तो दोनों देशों की सेना के बीच एलएसी पर तनाव घटाने के लिए 14 दौर की वार्ता किसलिए हुई है?
- अगर चीन ने भारतीय क्षेत्र पर कोई कब्जा नहीं जमाया है, तो जून 2020 में दर्जनों चीनी मोबाइल ऐप्स पर भारत में प्रतिबंध किसलिए लगाया गया था?
- फिर अगस्त 2020 में भारतीय सैनिकों ने कैलाश रेंज की चोटी पर कब्जा क्यों किया था? इस कब्जे को भारतीय सेना की महत्त्वपूर्ण सफलता माना गया। 2021 में तनाव घटाने की प्रक्रिया के तहत जब चीनी फौज कुछ बिंदुओं से पीछे गई, तो भारतीय सेना ने भी कैलाश रेंज खाली कर दिया। लेकिन प्रश्न है कि अगर कोई चीनी घुसपैठ नहीं हुई, तो ये सारा घटनाक्रम क्यों हुआ?
- फरवरी 2019 में बालाकोट पर हवाई हमला। उस हमले से क्या हासिल हुआ, यह अलग आकलन का विषय है। लेकिन उससे दुनिया- खास कर पास-पड़ोस को यह संदेश जरूर गया कि भारत ने hot pursuit की नीति अपना ली है। इसके तहत वह अंतरराष्ट्रीय सीमा का बिना ख्याल किए अपने रणनीतिक मकसदों को पूरा करने के लिए सैन्य कार्रवाई कर सकता है।
- दूसरी बड़ी घटना 5 अगस्त 2019 को हुई, जब भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया। उसके साथ ही इस राज्य को विभाजित करते हुए लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। चीन की निगाह में हमेशा से जम्मू-कश्मीर एक विवादित प्रदेश रहा है। लद्दाख के साथ खुद उसके अपने रणनीतिक दावे जुड़े हैं। दरअसल, उसने कश्मीर के पाकिस्तान के कब्जे वाले हिस्से (PoK) में अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव प्रोजेक्ट के तहत अरबों डॉलर का निवेश कर वहां भी अपने दीर्घकालिक हित बना लिए हैं। ऐसे में जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में हुए बदलाव को चीन और पाकिस्तान जैसे देशों में भारत की hot pursuit नीति का ही विस्तार समझा गया। यह माना गया कि भारत का “विवादित” क्षेत्रों को लेकर जो दावा है, उसने अब सैन्य ताकत के इस्तेमाल से उसे हासिल करने की नीति अपना ली है।