बेबाक विचार

मेलोनी और ओर्बान नहीं हैं नरेंद्र भाई

Byपंकज शर्मा,
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मेलोनी और ओर्बान नहीं हैं नरेंद्र भाई
नेतन्याहू परिवर्तनशील वैश्विक राजनीति के अलग-अलग दौर में अमेरिकी दूध के जले होने का अहसास समेटे बैठे हैं। सो, अब हर छाछ को फूंक-फूंक कर पीना सीख ही गए होंगे। अपने निजी दोस्त की वापसी पर नरेंद्र भाई का लट्टू होना अलग बात है, लेकिन वे भी राजनय की गलियों-चौबारों पर विचरने की कला अब खूब सीख गए हैं। इसलिए मुझे तो यही लगता है कि मेलोनी और ओर्बान जैसे अतिउत्साही कुछ भी करें, भारत के प्रधानमंत्री होने के नाते नरेंद्र मोदी तो नेतन्याहू से उतनी ही पींगें बढ़ाएंगे, जितनी देश के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित न हों। भूमध्य सागर के पूर्वी छोर पर पैर पसारे पड़े-पड़े अर्रा रहे इज़राइल के फिर प्रधानमंत्री बन रहे बैंजामिन नेतन्याहू के स्वागत में अपने छज्जे पर आ कर इतने ज़ोरशोर से ताली-थाली बजाते दुनिया के सिर्फ़ तीन शासन-प्रमुख को मैं ने कल देखा। एक, हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी। दूसरी, इटली की अभी-अभी बनीं प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी। और तीसरे, हंगरी के विक्टर ओर्बान। बाकी सब ने बधाई की राजनयिक औपचारिकता पूरी की। नरेंद्र भाई ने हिब्रू और अंग्रेज़ी में ‘मेरे मित्र नेतन्याहू को मेज़लटोव’ कह-कह कर मुबारकबाद दी और भारत-इज़राइल ‘रणनीतिक भागीदारी’ को ‘और सघन’ बनाने के संयुक्त प्रयासों को जारी रखने की कामना की। नरेंद्र भाई के इस उछाह में मुझे कुछ भी ग़लत नहीं लगता है। नेतन्याहू उनके पुराने मित्र हैं। 2017 की जुलाई में नेतन्याहू ने तेल अवीव में उनकी बेहद गर्माहट से भरी अगवानी की थी। 70 साल में कोई भारतीय प्रधानमंत्री तब पहली बार इज़राइल गया था। महज़ बीस-बाईस हज़ार वर्ग किलोमीटर और एक करोड़ की आबादी वाला कोई और मुल्क़ दुनिया में इतना ताक़तवर और ख़ुराफ़ाती नहीं माना जाता है। भारत ने इज़राइल को भले ही मान्यता 72 बरस पहले दे दी थी, लेकिन उससे पूर्ण राजनयिक संबंध अभी 30 साल पहले ही स्थापित किए। उसके बाद भी 25 साल तक हुए भारत के पांच प्रधानमंत्रियों में से कोई भी इज़राइल की यात्रा पर नहीं गया। अटलबिहारी वाजपेयी भी नहीं। ऐसे में नरेंद्र मोदी का इज़राइल जाना हर लिहाज़ से ऐतिहासिक था। सो, नेतन्याहू-मोदी के बीच विशिष्ट भावभीने संबंध बनने स्वाभाविक थे। इससे क्या होता है कि इज़राइल की राजनीति इतने अस्थिर दौर से गुज़र रही है कि वहां पिछले चार साल में पांच चुनाव हो चुके हैं। इससे भी कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि 120 सदस्यों वाली संसद में नेतन्याहू की पार्टी को ताजा चुनाव में सिर्फ़ 32 सीटें मिली हैं। अहमियत तो इस बात की है कि अपने दक्षिणपंथी सहयोगियों के साथ जोड़तोड़ में उनके गठबंधन को सरकार बनाने लायक बहुमत से 3 सीटें ज़्यादा मिल गई हैं। विदा हो रहे कार्यवाहक प्रधानमंत्री याइर लेपिड के समूह को 51 सीटें मिली हैं। सो, 15 साल प्रधानमंत्री रह चुके नेतन्याहू इस बार इज़राइल की अब तक की सबसे चरम-दक्षिणपंथी हुकूमत की सदारत करने के लिए लौट रहे हैं। ज़ाहिर है कि इससे भी कुछ नहीं होता है कि यह वापसी उन पर मंडरा रहे भ्रष्टाचार के श्यामल बादलों के बीच हो रही है, जिन्हें वे पूरी तरह नकारते हैं। भ्रष्टाचार के इन आरोपों को तकनीकी तौर पर संजीदा माना जा सकता है, मगर हैं वे बचकाने किस्म के। मसलन, एक कारोबारी से नेतन्याहू नियमित तौर पर सिगार के डिब्बे और शैंपेन की बोतलें लिया करते थे और उनकी कीमत क़रीब डेढ़ करोड़ रुपए होती है। बेहतर होता कि ऐसे उलूलजुलूल छींटों के भीतर झांकने के बजाय इज़राइली एजेंसियां इस बात की जांच करतीं कि भारत से हुए क़रीब डेढ़ खरब रुपए के हथियार सौदे में क्या मोबाइल फ़ोन और कंप्यूटर की जासूसी करने वाले सॉफ्टवेयर ‘पेगासस’ की ख़ामोश-आपूर्ति भी शामिल थी? आख़िर यह कोई मामूली मसला नहीं है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय को पेगासस मामले की जांच के लिए एक समिति गठित करनी पड़ी और थक-हार कर सुप्रीम कोर्ट को यह तक कहना पड़ा कि सरकार ने जांच में सहयोग नहीं किया। नेतन्याहू की वापसी से अगर किसी व्यक्ति-विशेष के बजाय भारत के राष्ट्रीय हित सधते हों तो हमें उनके लौटने का स्वागत क्यों नहीं करना चाहिए? आख़िर आज़ादी के बाद कौन-सा ऐसा भारतीय प्रधानमंत्री हुआ है, जो नरेंद्र भाई के आगमन से पहले, बावजूद तमाम हिचक-फिचक के, इज़राइल के साथ छिपा-छिपाई न खेलता रहा हो? इज़राइल को एक स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर मान्यता तो 1950 में जवाहरलाल नेहरू ने ही दे दी थी। तब फ़लस्तीन के प्रति संपूर्ण झुकाव होते हुए भी वाम दलों ने इसका तब कोई विरोध नहीं किया था। 1955 में जावा के बांडुंग में बर्मा (अब म्यांमार), इंडोनेशिया, सीलोन (अब श्रीलंका), भारत और पाकिस्तान के शासन-प्रमुखों का शिखर सम्मेलन हुआ। उसकी तैयारियों के सिलसिले में 1954 की सर्दियों में हुई बैठक में नेहरू ने इज़राइल को भी शिखर सम्मेलन में बुलाने का प्रस्ताव रखा था। यह अलग बात है कि बात नहीं बनी। फिर इज़राइल के विदेश मंत्री रहे मोशे शारेट 1956 में गुपचुप भारत आए। तब वे किसी पद पर नहीं थे, मगर चंद महीनों पहले तक पूरे आठ साल इजराइल के विदेश मंत्री रहे थे। 1953 से 1955 तक दो साल वे प्रधानमंत्री के पद पर भी थे। जब वे दिल्ली आए थे तो स्वेज़ नहर का विवाद पूरे ज़ोरों पर था। मिसª ने नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। मिसª के राष्ट्रपति गमाल अब्देल नासेर गुटनिरपेक्ष आंदोलन में नेहरू के प्रमुख हमजोलियों थे। सो, 1956 के अक्टूबर महीने के अंतिम सोमवार को जब शारेट भारत की राजधानी में थे तो क्या उनके और नेहरू के बीच संदेशों का कोई आदान-प्रदान नहीं हुआ होगा? इंदिरा गांधी ने तो 1968 में रॉ-प्रमुख रामनाथ काव को इज़राइल की मोसाद से गुपचुप संबंध विकसित करने की खुली छूट ही दे दी थी। पाकिस्तान की लार चीन और उत्तर-कोरिया की मेहरबानियां पाने के लिए टपकने लगी थी तो इंदिरा जी को लगा कि भारत और इज़राइल की गुप्तचर संस्थाओं के बीच अच्छे तालमेल की ज़रूरत है। 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी तो जनसंघ उसका सबसे प्रभावशाली भागीदार थी और अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बन गए थे। तब तो इज़राइल के विदेश मंत्री मोशे दायां को हमारी सरकार रात के अंधेरे में ख़ामोशी से दिल्ली ही ले आई थी। वे गोपनीय तरीके से बंबई पहुंचे और वहां से भारतीय वायुसेना का एक विमान उन्हें चुपचाप दिल्ली लाया। दक्षिण दिल्ली में रॉ के एक गुप्त-आवास में उन्हें ठहराया गया और देसाई से उनकी लंबी बातचीत हुई। फिर 1992 में पामुलपर्ति वेंकट नरसिंहराव ने तो इज़राइल से पूर्ण राजनयिक संबंध बनाने का ऐलान भी कर दिया। ऐसे में अगर हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री अगर नेतन्याहू से अपने निजी रिश्तों के रसायन को गाढ़ा करने के लिए गाजे-बाजे के साथ उनकी जीत का ख़ैरमक़दम कर रहे हैं तो चिल्ल-पों मचाने की कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। हां, दोनों के बीच गाढ़ी होती इस चाशनी के तार अगर कभी भारतीय हितों के बजाय नरेंद्र भाई के निजी हितों को फ़ायदा पहुंचाते दिखें तो आपको ज़रूर आसमान सिर पर उठा लेने का हक़ है। मगर अभी से उलटा-पुलटा क्यों सोचना? नेतन्याहू 73 साल की उम्र में क्या इतने बालक-बुद्धि हैं कि उन्हें यह नहीं मालूम कि व्यक्ति से संबंध देश से संबंध का ज़रिया भर होते हैं, पूर्णविराम नहीं? आखि़र नेतन्याहू परिवर्तनशील वैश्विक राजनीति के अलग-अलग दौर में अमेरिकी दूध के जले होने का अहसास समेटे बैठे हैं। सो, अब हर छाछ को फूंक-फूंक कर पीना सीख ही गए होंगे। अपने निजी दोस्त की वापसी पर नरेंद्र भाई का लट्टू होना अलग बात है, लेकिन वे भी राजनय की गलियों-चौबारों पर विचरने की कला अब खूब सीख गए हैं। इसलिए मुझे तो यही लगता है कि मेलोनी और ओर्बान जैसे अतिउत्साही कुछ भी करें, भारत के प्रधानमंत्री होने के नाते नरेंद्र मोदी तो नेतन्याहू से उतनी ही पींगें बढ़ाएंगे, जितनी देश के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित न हों। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)
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