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जगदीप धनखड़ और सियासी मोहिनीअट्टम

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जगदीप धनखड़ और सियासी मोहिनीअट्टम
द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति भवन में और जगदीप धनखड़ का उपराष्ट्रपति भवन में प्रवेश सियासी संधिकाल में हुआ है। दोनों के कार्यकाल का सूरज जब सिर पर आ रहा होगा, तब भारतीय राजनीति हलकी करवट और फुलकी अंगड़ाई के मोहिनीअट्टम से गुज़र रही होगी। देश विचार-यात्रा का एक दशक पूरा कर दूसरे दशक में प्रवेश की तैयारी कर रहा होगा। तब यह तय होगा कि आगे का सफ़र स्थिरता, सौम्यता, समावेशिता, उदारता और प्रगति के लिहाज़ से कैसा रहने वाला है। इस बृहस्पतिवार की दोपहर महामहिम जगदीप धनखड़ ने शपथ लेने के बाद, कोई एक पखवाड़े पहले शपथ ले चुकीं महामहिम द्रौपदी मुर्मू के पास जा कर अभिवादन करते समय धीमे विनम्र स्वर में कहा, ‘आपका मार्गदर्शन मिलता रहे!’ उतनी ही विनम्र मुख-मुद्रा के साथ राष्ट्रपति ने उपराष्ट्रपति की तरफ देख कर थोड़े विस्मय से अपना सिर हिलाया। फिर धनखड़ पदभार संभालने के लिए दस्तख़त करने बैठ गए। स्थूलतः यह प्रसंग सामान्य है। लेकिन यह भाव-प्रदर्शन असामान्य है। इससे उम्मीद बंधती है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी आसंदी पर अगले पांच बरस के लिए हम एक प्रतिमा को नहीं, प्राण-प्रतिष्ठित और जीवंत व्यक्तित्व को क्रियाशील देखेंगे। जगदीप धनखड़ का 14 वां उपराष्ट्रपति बनना कई कारणों से भारतीय राजनीति की एक ख़ासी महत्वपूर्ण घटना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने भले ही उन्हें इस पद पर बैठाने का फ़ैसला उन में इसलिए ‘किसान-पुत्र’ की छवि देख कर किया हो कि इससे किसान-आंदोलन के ज़िद्दी-कुप्रबंधन का पाप थोड़ा कम हो जाएगा, लेकिन धनखड़ मुझे अपनी साख के इतने धनी तो लगते ही हैं कि ख़ुद के चक्कर में किसान-हित से कभी आंख नहीं फेर सकते हैं। नरेंद्र भाई ने भले ही उन्हें उपराष्ट्रपति की कुर्सी इस सियासी दांव के चलते भी सौंप दी हो कि इस से जाटों के एक बड़े नेता सत्यपाल मलिक के वे अनवरत प्रहार भोंथरे हो जाएंगे, जो वे लगातार टप्पे खा रहे राज्यपाल के अपने सिंहासन से बिना हिलेडुले करते ही चले जा रहे हैं। सो, राज्यपाल न रहने के बाद घूमने वाली उन की बनैटी के अंदेशे को यह फ़ैसला चित्त कर देगा। लेकिन मुझे धनखड़ में जाट-बुद्धि का ऐसा कोई छींटा दूर-दूर तक नज़र नहीं आता है, जो उन्हें किसी जाति-बिरादरी के खांचे में चस्पा कर दे। धनखड़ के चार दशक के सियासी सफ़र से जो वाकिफ़ हैं, वे जानते हैं कि बावजूद इसके कि उन्होंने समय-समय पर अलग-अलग राजनीतिक निर्णय लिए, उनका राजनीतिक आचरण-व्यवहार टटपूंजिएपन से हमेशा परे रहा। देवीलाल के सबसे भरोसे के लोगों में वे थे। चंद्रशेखर के मंत्रिमंडल में संसदीय कार्य राज्य मंत्री के तौर पर सब उनकी व्यवहारकुशलता के मुरीद थे। तब महज़ सात महीने चली सरकार में उन्होंने अपने वरिष्ठ मंत्री सत्यप्रकाश मालवीय के साथ काम करते अपनी चपल-गंभीर छाप संसद की दीवारों पर उकेर दी थी। फिर वे कांग्रेस में चले गए। तब गए, जब कांग्रेस सत्ता से बाहर थी। कांग्रेस में धनखड़ के प्रवेश में राजेश पायलट और एकाध अन्य चेहरों ने भूमिका अदा की थी। राजीव गांधी उन्हें कांग्रेस में लाए, मगर उनके साथ सियासी सफ़र तय करने का अवसर धनखड़ को नहीं मिला। बाद में सोनिया गांधी का निजी विश्वास उन्हें मिला और वे 1993 से 1998 तक राजस्थान में कांग्रेस के विधायक रहे। सीताराम केसरी के बाद सोनिया कांग्रेस अध्यक्ष बनीं तो उन्होंने धनखड़ को झुंझनू से लोकसभा का चुनाव लड़ाया, मगर कांग्रेस का उम्मीदवार न बनाए जाने से नाराज़ सीसराम ओला बाग़ी हो कर खड़े हो गए तो धनखड़ जीत नहीं पाए। बारह बरस धनखड़ पूरी गरिमा और मर्यादा के साथ कांग्रेस में रहे। इनमें से आधा वक़्त ऐसा था, जो उनके लिए बहुत ऊबड़-खाबड़ था। कांग्रेस की महल-मंडली को सोनिया तक धनखड़ की पहुंच चुभती थी। सो, जैसा कि सियासत में होता है, कांग्रेसी धुरधरों ने धनखड़ को पृथकवास के हवाले कर दिया। उस दौर में वे ख़ामोशी से सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते रहे। चार बरस मोहभंग की ऊहापोह के थेपेड़े खाते रहे। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। 2003 में धनखड़ भारतीय जनता पार्टी में चले गए। वहां उनके संयम का इम्तहान पूरे 16 साल चला। आख़िर जुलाई-2019 में नरेंद्र भाई मोदी उन्हें प्रतीक्षालय से बाहर लाए और वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने। मुझे नहीं लगता कि तीन साल का धनखड़ का राज्यपाल-कार्यकाल रोज़-ब-रोज़ जितना कोलाहली रहा, कभी किसी और राज्यपाल का रहा होगा। सही-ग़लत, उन्हें ‘जनोन्मुखी-राज्यपाल’ कहा जाने लगा। ममता बनर्जी डाल-डाल रहीं तो धनखड़ ने भी पात-पात रहने का अपना फ़र्ज़ खूब निभाया। नरेंद्र भाई को ऐसे लोग बहुत पसंद आते हैं, जो हंसते-हंसते अपना कमाल दिखा जाएं। इसलिए मैं ने सात महीने पहले जनवरी में ही लिख दिया था कि कोई माने-न-माने, धनखड़ अगले उपराष्ट्रपति हो सकते हैं। तब मेरी बात पर कोई ऐसा नहीं था, जो न हंसा हो। अब जब वे पिछले छह उपराष्ट्रपतियों में सबसे ज़्यादा वोट हासिल कर शपथ ले चुके हैं, मेरा आकलन है कि वे अपने कार्यकाल में एक अलग मानक स्थापित करेंगे। उन में बीस साल पहले उपराष्ट्रपति बने राजस्थान के ही उनके बिरादर भैरोंसिंह शेखावत की ही तरह समावेशी, जनप्रिय और दरवेशी होने के सकारात्मक लक्षण हैं। आपको अभी नहीं दिखता होगा, लेकिन मुझे धनखड़ में उनके पूर्ववर्ती - ज़ाकिर हुसैन, रामस्वामी वेंकटरामन, शंकरदयाल षर्मा, के. आर. नारायणन, कृष्णकांत और एम. वेंकैया नायडू - की छह आत्माओं का संगम नज़र आता है। इसलिए कोई लाख कुछ भी कहे, मैं आश्वस्त हूं कि संवैधानिक बारादरी की चौहद्दी का सम्मान करते हुए धनखड़ के अंतर्मन में मोरध्वज-संस्कार सदा महफ़ूज़ रहेंगे। उद्दंडता उन का स्वभाव नहीं है, लेकिन उन से रोबोट का उपरूप बनने की उम्मीद लगाने वाले भी अपने को अंततः निराश पाएंगे। द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति भवन में और जगदीप धनखड़ का उपराष्ट्रपति भवन में प्रवेश सियासी संधिकाल में हुआ है। दोनों के कार्यकाल का सूरज जब सिर पर आ रहा होगा, तब भारतीय राजनीति हलकी करवट और फुलकी अंगड़ाई के मोहिनीअट्टम से गुज़र रही होगी। देश विचार-यात्रा का एक दशक पूरा कर दूसरे दशक में प्रवेश की तैयारी कर रहा होगा। तब यह तय होगा कि आगे का सफ़र स्थिरता, सौम्यता, समावेशिता, उदारता और प्रगति के लिहाज़ से कैसा रहने वाला है। दो सर्वोच्च सिंहासनों की नैतिक, आत्म्य और रूहानी भूमिका तब, कितनी ही अप्रत्यक्ष हो, हमारे भावी राष्ट्रीय-दर्शन की दिशा तय करेगी। कभी-कभी वाल्मीकि के वाल्मीकि हो जाने में भी परिवर्तन का आरंभ छुपा होता है। बदलाव चेहरा बदलने से ही नहीं आते हैं और हालांकि मनमानी की आदत वाले मन को बदलना आसान नहीं होता है, फिर भी अगर मन बदल जाए तो पांव अर्थवान दिशा की तरफ़ बढ़ जाते हैं। बावजूद इसके कि मौजूदा माहौल में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की कारगर भूमिकाओं को ले कर राजनीतिक पंडितों के एक बड़े वर्ग में तरह-तरह के संशय-भाव हैं, मैं मानता हूं कि सकारात्मक संभावनाओं का क्षितिज उतना धूसर नहीं है। संवैधानिक ज़िम्मेदारियों की आध्यात्मिक मनःस्थिति के सामने वैयक्तिक गणनाएं गौण हो जाती हैं। बहुत कम लोगों में यह ढीठता होती है कि व्यापक प्रश्नों के सामने हाथ बांध कर खड़े हो जाएं और अपनी कर्तव्यपरायणता को निर्लज्जता की खूंटी पर लटका दें। ऐसा करने वाले जानते हैं कि इतिहास का अगर एक ख़ुबसूरत ग़ुलदान है तो उसका एक कुरूप कूड़ेदान भी है। उपलब्धियों की सबसे ऊपरी एक-दो पायदानों पर बैठने के बाद कौन इतना मूढ़ हो सकता है कि जानबूझ कर कचरादानी के हवाले होना चाहे? सो, आइए, सब की सन्मति के यज्ञ में अपनी समिधा भी अर्पित करें!लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।
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