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ब्रिटिश इतिहास की सबसे शर्मनाक घटना

ब्रिटिश इतिहास की सबसे शर्मनाक घटना

मात्र दस मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहाँ तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया। बाग में लगी पट्टिका के अनुसार 120 शव तो सिर्फ कुएं से ही मिले। शहर में क‌र्फ्यू लगा होने से घायलों को इलाज के लिए भी कहीं ले जाया नहीं जा सका। लोगों ने तड़प-तड़प कर वहीं दम तोड़ दिया।

13 अप्रैल- जलियांवाला बाग़ हत्याकांड: 13 अप्रैल 1699 के दिन सिखों के दसवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। इसीलिए इस दिन बैसाखी नामक पर्व पंजाब, हरियाणा और आस-पास के प्रदेशों में धूमधाम के साथ सबसे बड़े त्योहार के रूप में मनाया जाता है। सिख इसे सामूहिक जन्मदिवस के रूप में मनाते हैं। 13 अप्रैल 1919 को भी बैसाखी का दिन था, और पूरा भारत अपना प्रमुख त्यौहार बैसाखी मना रहा था। भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में भी 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन सैंकड़ों वर्षों से लगते आ रहे एक मेले में हज़ारों लोग दूर-दूर से हरमन्दिर साहिब गुरुदुवारे में गुरुजी के दर्शन करने और बैसाखी का त्यौहार मनाने पहुंचे थे। स्वर्ण मन्दिर के निकट अवस्थित जालियांवाला बाग में भी बहुत सारे बच्चे- बूढ़े,  महिलाएं इकट्ठे हो प्रसन्नतापूर्वक बैसाखी मना रहे थे। लेकिन बैसाखी मना रहे लोगों पर रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एकत्रित होने का आरोप लगाकर जनरल डायर नामक एक ब्रिटिश अधिकारी ने अकारण ही गोलियाँ चलवा दीं, जिसमें चार सौ से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी और दो हजार से अधिक लोग घायल हो गए थे।

अंग्रेजों के द्वारा सभा की भीड़ में गोली चालन कर अकारण ही नृशंस रूप से चार सौ से अधिक भारतीयों को गोली मार हत्या कर देने और दो हजार से अधिक लोगों को घायल कर देने की घटना ने भारतीय मानस को व्यापक रूप से प्रभावित किया। अंग्रेजों के प्रति भारतीयों का मन घृणा से भर गया, और वे विदेशी शासन से मुक्ति के लिए हर सम्भव प्रयास करने को तैयार होने लगे। इतिहासकारों के अनुसार भारतीय स्वाधीनता संग्राम की सघर्ष कथा, घटनाएँ, आंदोलन, जनश्रुति, किम्बदन्ति तो अनन्त हैं, परन्तु यदि किसी एक घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था, तो वह घटना जालियाँवाला बाग जघन्य हत्याकांड ही था, जो भारत में ब्रिटिश शासन के अंत की शुरुआत बनी। यही कारण है कि इस घटना को भारतीय इतिहास में जालियांवाला बाग जघन्य हत्याकांड के नाम से स्मरण किया जाता है, और प्रतिवर्ष 13 अप्रैल के दिन को भारतीय जालियांवाला बाग़ स्मृति दिवस के रूप में स्मरण कर ब्रिटिश शासकों को कोसते हुए इस जघन्य हत्याकांड में मृत्यु को प्राप्त लोगों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। और अब तो यह कार्य ब्रिटिश भी अमृतसर पहुंचकर करने लगे हैं। अर्थात इसे सर्वस्वीकार्यता मिलने लगी है। यही कारण है कि 1997 में महारानी एलिज़ाबेथ जालियाँवाला बाग में बने शहीद स्मारक पर मृतकों को श्रद्धांजलि देने के लिए आने को विवश हुई थी। और 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी इस स्मारक पर आकर विजिटर्स बुक में इस जघन्य हत्याकांड के विषय में – ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी। लिखने को बाध्य हुए।

उल्लेखनीय है कि ईस्वी सन 1914-1918 में हुए प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय नेताओं और जनता ने खुल कर ब्रिटिश सरकार का साथ दिया था। इस युद्ध में 13 लाख भारतीय सैनिक और सेवक यूरोप, अफ़्रीका और मिडल ईस्ट में ब्रिटिश सरकार की तरफ़ से तैनात किए गए थे, जिनमें से 43,000 भारतीय सैनिक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। युद्ध समाप्त होने पर भारतीय नेता और जनता ब्रिटिश सरकार से सहयोग और नरमी के रवैये की उम्मीद कर रहे थे, परन्तु लोगों की भावना के विपरीत ब्रिटिश सरकार ने मॉण्टेगू चेम्सफ़ोर्ड सुधार लागू कर दिए। प्रथम विश्व युद्ध के समय पंजाब के कुछ क्षेत्र में हो रहे अंग्रेजों के विरोध को भारत प्रतिरक्षा विधान 1915 लागू कर कुचल दिया गया था। उसके बाद 1918 में एक ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में भारत में विशेषकर पंजाब और बंगाल में हो रहे ब्रिटिश सरकार के विरोध को सहायता देने वाले विदेशी शक्तियों की पहचान हेतु अध्ययन के लिए एक सेडीशन समिति नियुक्त की गई थी।

इस सेडीशन समिति के सुझावों के अनुसार भारत के स्वाधीनता संग्राम के आंदोलनों पर रोक लगाने के लिए भारत प्रतिरक्षा विधान 1915 का विस्तार कर पूरे भारत में रॉलेट एक्ट लागू किया गया था। इस रॉलेट एक्ट के अंतर्गत प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकने,, नेताओं को बिना मुकदमें के जेल में रखने, लोगों को बिना वारण्ट के गिरफ़्तार करने, उन पर विशेष ट्रिब्यूनलों और बंद कमरों में बिना जवाबदेही दिए हुए मुकदमा चला सकने जैसे और अधिक अधिकार ब्रिटिश सरकार को प्राप्त हो गए थे। इसके विरोध में पूरा भारत उठ खड़ा हुआ था, और देश भर में लोग गिरफ्तारियां दे रहे थे।

इस समय तक मोहनदास करमचंद गाँधी का दक्षिण अफ़्रीका से भारत आगमन हो चुका था, और धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। उन्होंने भी रोलेट एक्ट का विरोध करने का आह्वान किया। जिसके कारण विरोध की गति और तीव्र हुई, जिसे कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने अनेक नेताओं और जनता को रोलेट एक्ट के अंतर्गत गिरफ़्तार कर लिया, और कड़ी सजाएँ दीं। इससे जनता का आक्रोश बढ़ा और लोगों ने रेल और डाक तार-संचार सेवाओं को बाधित कर दिया। अप्रैल के पहले सप्ताह में ही आंदोलन अपने चरम पर पहुँच रहा था। लाहौर और अमृतसर की सड़कें लोगों से भरी रहती थीं। जालियांवाला बाग़ में नित्य हो रही भीड़ को देखकर ब्रिटिश सरकार के कई अधिकारियों को यह 1857 के प्रथम संग्राम की पुनरावृत्ति जैसी परिस्थिति लग रही थी, जिसे न होने देने के लिए और कुचलने के लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार बैठे थे। आं

दोलन के दो नेताओं सत्यपाल और सैफ़ुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर कालापानी की सजा दे दी गई। 10 अप्रैल 1919 को अमृतसर के उप कमिश्नर के घर पर इन दोनों नेताओं को रिहा करने की माँग पेश की गई। परन्तु ब्रिटिश सरकार ने शांतिप्रिय और सभ्य तरीके से विरोध प्रकट कर रही जनता पर गोलियाँ चलवा दीं। जिसके कारण तनाव बहुत बढ़ गया और उस दिन कई बैंकों, सरकारी भवनों, टाउन हॉल, रेलवे स्टेशन में आगज़नी की गई। इस प्रकार हुई हिंसा में पांच यूरोपीय नागरिकों की हत्या हुई। इसके विरोध में ब्रिटिश सिपाही भारतीय जनता पर जहाँ-तहाँ गोलियाँ चलाते रहेने से 8 से 20 भारतीयों की मृत्यु हुई। अगले दो दिनों में अमृतसर तो शांत रहा पर हिंसा पंजाब के कई क्षेत्रों में फैल गई और तीन अन्य यूरोपीय नागरिकों की हत्या हुई। इसे कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने पंजाब के अधिकांश भाग पर मार्शल लॉ लागू कर दिया।

बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा रखी गई थी, जिसमें कुछ नेता भाषण देने वाले थे। शहर में कर्फ्यू लगा होने के बावजूद बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने के लिए हजारों लोग आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे। नेता बाग में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े हो कर भाषण दे रहे थे। उसी समय ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर हाथों में भरी हुई राइफलें लिए हुए 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा। लेकिन सैनिकों ने बाग को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। मात्र दस मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहाँ तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया। बाग में लगी पट्टिका के अनुसार 120 शव तो सिर्फ कुएं से ही मिले। शहर में क‌र्फ्यू लगा होने से घायलों को इलाज के लिए भी कहीं ले जाया नहीं जा सका। लोगों ने तड़प-तड़प कर वहीं दम तोड़ दिया। जालियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1800 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए। लेकिन घटना के बाद ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को भारतीयों की एक फ़ौज के द्वारा हमला कर दिए जाने के बाद बचने की कोशिश में गोली चालन किये जाने की गलत सूचना देकर अमृतसर और अन्य क्षेत्रों में मार्शल लॉ लगाने की माँग की जिसे वायसरॉय लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड नें स्वीकृत कर दिया।

परन्तु इस जघन्य हत्याकाण्ड की विश्वव्यापी निंदा होने के कारण दबाव में भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट एडविन मॉण्टेगू ने 1919 के अंत में इसकी जाँच के लिए हंटर कमीशन नियुक्त किया। कमीशन के सामने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने स्वीकार किया कि वह गोली चला कर लोगों को मार देने का निर्णय पहले से ही ले कर वहाँ गया था, और वह उन लोगों पर चलाने के लिए दो तोपें भी ले गया था जो उस संकरे रास्ते से नहीं जा पाई थीं। हंटर कमीशन की रिपोर्ट आने पर 1920 में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को पदावनत कर के कर्नल बना दिया गया और अक्रिय सूची में रख भारत से हटा दिया गया। हाउस ऑफ़ कॉमन्स ने उसका निंदा प्रस्ताव पारित किया, परन्तु हाउस ऑफ़ लॉर्ड ने इस हत्याकाण्ड की प्रशंसा करते हुए उसका प्रशस्ति प्रस्ताव पारित किया। बाद में विश्वव्यापी निंदा के दबाव में ब्रिटिश सरकार ने उसका निंदा प्रस्ताव पारित किया और 1920 में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को इस्तीफ़ा देना पड़ा। 1927 में प्राकृतिक कारणों से उसकी मृत्यु हो गई।

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Published by अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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