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उत्तराखंड

धीरे-धीरे गाड़ी हांको मेरे राम गाड़ी वाला……

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उत्तराखंड के जोशीमठ में अचानक ही भू-धंसाव नहीं हो रहा है। पर्यावरण प्रेमी अनुपम मिश्र ने ऐसे ही विकास को अच्छे विचार और अच्छे कामों का अकाल कहा था। अकाल से पहले अच्छे विचार और अच्छे कामों का अकाल आता है। उत्तराखंड में विचार के इसी अकाल का विनाश चलाया गया। जो आज भी चलाया जा रहा है। कुछ लोगों के स्वार्थी विचारों के ही कारण विकास के विनाश का खेल चल रहा है।

यदि हम धरती पर यह मान कर जीते हैं कि हमारे जीने से धरती पर फर्क पड़ता है, तो चिंता की कोईबात नहीं है। लेकिन अगर हम यह मान कर धरती पर जीते हैं कि हमारे कैसे भी जीने से कोई भी फर्क नहीं पड़ता, तो फिर बहुत चिंता की बात है। क्योंकि हमारे जीने के तरीके से ही हमारे जीवन की प्रकृति भी तय होती है। प्रकृति से सामंजस्य बैठा कर ही सस्टेनेबल लिविंग या संपोषणीय जीवन चल सकता है। धरती सभी की है इसलिए इस पर किया जाने वाला विकास सतत और टिकाऊ होना चाहिए। हम सभी को अपने अधिकारों का निर्वाह करते हुए अपना उत्तरदायित्व निभाना सीखना होगा।

सतत और टिकाऊ विकास वह विकास है जो आज की जरूरतों को पूरा करते हुए आने वाली पीढ़ी की जरूरत को भी ध्यान में रखे। आज के अतिभोग में कल के उपभोग की भी गुंजाईश रहे। प्रकृति का उपभोग हो। मगर लूट-पाट या दोहन नहीं। पांच-छह सौ साल पहले कबीर ने यही अपने अंदाज में कहा था। “धीरे-धीरे गाड़ी हांको मेरे राम गाड़ी वाला …….।” कबीर ने प्रकृति के द्वारा समाज को सांसारिकता समझाने का प्रयास किया था। इसी कबीर वाणी को प्रह्लाद सिंह टिपाणिया पिछले कई वर्षों से गा कर सुनाते आ रहे हैं।

लगातार रंग-रंगीले जीवन की आशा में हम अपनी गाड़ी को लाल-गुलाल रफ्तार से चलाने में लगे हैं। अपने मन की गाड़ी को किसी छैल-छबीली से चलाने के चक्कर में भूल जाते हैं कि उसमें बैठने वाला राम ही है। धीरे-धीरे चलने से ही धर्मी पार उतरते हैं। और पापी तो चकनाचूर होते ही हैं, मगर हम आने वाली पीढ़ी को बचाने में भी अक्षम हो जाते हैं। हम सब को याद यह भी रखना चाहिए कि जब राम के घर से टूटती है तो कोई जड़ी-बूटी भी काम नहीं आती।

सतत और टिकाऊ जीवनशैली ही जीवन जीने का एकमात्र तरीका है। प्रकृति से प्राप्त होने वाली चीजों का हम कम से कम दोहन करते हुए ही विकास का पहिया चलाएं। इंसान खुद को प्रकृति का पिता न मान ले। बल्कि प्रकृति को ही ईश्वर मानते हुए अपनी रोज़मर्रा जीवनशैली चलाए। प्रकृति के प्रति सद्भाव रखते हुए ही हम विकास की बुलट ट्रेन का सपना देखने में लगें। कुछ एक की अंधाधुंध रफ्तार के लिए पूरे समाज को अंधकार में झोंकने का विकास न अपनाएं। समाज के टिकने पर ही विकास भी सुहा सकता है। प्रकृति तो सभी जीवों की है। मानव को स्वार्थ के अर्थ की प्रवृत्ति से प्रकृति चलाने की इच्छा छोड़नी होगी।

उत्तराखंड के जोशीमठ में अचानक ही भू-धंसाव नहीं हो रहा है। पर्यावरण प्रेमी अनुपम मिश्र ने ऐसे ही विकास को अच्छे विचार और अच्छे कामों का अकाल कहा था। अकाल से पहले अच्छे विचार और अच्छे कामों का अकाल आता है। उत्तराखंड में विचार के इसी अकाल का विनाश चलाया गया। जो आज भी चलाया जा रहा है। कुछ लोगों के स्वार्थी विचारों के ही कारण विकास के विनाश का खेल चल रहा है। जोशीमठ के घरों में अचानक आयी दरारों ने विकास के नाम पर हो रहे विनाश को संसार के सामने लाया है। प्रकृति के साथ सामंजस बैठाए बिना कोई सभ्यता टिकी नहीं रह सकती। लोकतंत्र का यही दुर्भाग्य है जब समाज खुद के आत्मिक, आध्यात्मिक और आर्थिक विकास को सत्ता के भरोसे छोड़ देता है। स्वार्थी सत्ता विकार के व्यभिचार से विनाश का विकास गढ़ती है। और आध्यात्मिकता के जोशीमठ को पर्यटन की आर्थिका का स्थल बनने दिया जाता है।

प्रकृति से सामंजस बैठा कर जीने के लिए ही महात्मा गांधी ने कहा था की “धरती पर सभी के जीने की जरूरत के लिए पर्याप्त है, मगर एक के भी लालच के लिए कम है”। हमारी ही स्वार्थी लालसाएं है जो हमें विनाश का विकास करने के लिए प्रेरित करती हैं। इस तीस जनवरी को विनाश के ऐसे विकास को रोकने का एक प्रण भी लिया जाए।

समाज की सामूहिक जागरूकता से ही इस विनाश के विकास पर लगाम लगाई जा सकती है। जोशीमठ में उभरी दरारों के द्वारा प्रकृति ने अपना मत समझा दिया है। अब सत्ता के मठाधीशों को भी समझाया जाए।

By संदीप जोशी

स्वतंत्र खेल लेखन। साथ ही राजनीति, समाज, समसामयिक विषयों पर भी नियमित लेखन। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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