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न्याय की देवी या देवता उसको क्यूं नहीं दिखता अन्याय…?

भोपाल। आजकल अनेक ऐसे मामले सामने आ रहे हैं कि न्याय की देवी या देवता के ऊपर से जनता के मन में अविश्वास होने लगा है! लोगों को लगता हैं कि पुलिस या अन्य जांच एजेंसियां गरीबों और सत्ता के आलोचकों के मुंह बंद कराने का ही काम कर रही है। परंतु वहीं अदालतों द्वारा इन जांच एजेंसियों के काम की कानूनी परख नहीं किए जाने से इस अन्याय में अदालातें भी अन्याय की भागीदार बनती जा रही हैं। इसके लिए क्या कानून की देवी की आंखों की पट्टी जिम्मेदार है ? कहते है कि सनातन धरम में न्याय के देवता शनि {एक ग्रह} हैं, अगर ऐसा हैं तब अधिकांश सनातनी समुदाय इस देवता के प्रकोप से भयभीत रहता हैं। इसीलिए सड़क और चौराहों तथा बाजारों में शनिवार के दिन एक बाल्टी में एक काला पत्थर जो की सरसों के तेल में डूबा रहता है –उसे लेकर एक लड़का या आदमी शनिदेव शनिदेव की गुहार लगाता हुआ सभी स्त्री –पुरुषों के आगे पैसे के लिए तेल भरी बाल्टी आगे कर देता है फिर वे धरम भीरु लोग कुछ सिक्के निकाल कर उसमें दाल देते हैं ! बिना यह जाने समझे कि वह याचक क्या शनि के शमन का मंत्र को जनता भी है अथवा नहीं ! बस यह एक अंधश्रद्धा की परंपरा चलती जाती हैं। कहीं शाम को तेल और बाल्टी का ठेकेदार उस तेल और पैसे की वसूली करता हैं।

अब अगर हमारे न्याय के देवता का यही हाल हैं तब तो मौजूदा न्याय व्ययस्था का भी यही हाल है। अदालतों में पैसे का प्रयोग कुछ कानूनी और कुछ गैर कानूनी रूप से होता दिखाई पड़ता हैं। हमारे संविधान की उद्घोषणा में भारत के संघ की सीमा में रहने वाले सभी नागरिकों को धरम –जाती या वर्ग के भेदभाव के बिना न्याय देने की प्रतिज्ञा लिखी हुई हैं , परंतु ऐसा कभी होता नहीं दिखाई देता ! क्यू ऐसा होता है या ऐसा क्यूं हो रहा हैं यह सवाल कोचता रहता हैं।

वैसे तो अदालत या न्याय के मंदिर – बहुत ख़र्चीले और समय खाते हैं, वादी या याची के हिस्से में आती है, बस तारीख और वकील की फीस और अदालत के पेशकार को और पुलिस के सिपाही को रिश्वत ! शायद यही कारण हैं कि आजकल सनातनी समुदाय भी अपने आरध्य के दर्शन के लिए भी टिकट लेने पर बाध्य हैं। चाहे वह चार धाम की यात्रा हो अथवा त्रिवेन्द्रम का पद्मनाभ मंदिर हो, तिरुपति हो अथवा सुबरमानियम मंदिर हो आजकल सभी बड़े मंदिरो में टिकट से दर्शन होते हैं। अब यह उन लोगो के लिए सबक हैं जो मुगलों द्वारा सनातनी लोगों की धरम यात्रा पर जजिया कर लगता था बस फर्क इतना हैं कि तब कर का पैसा राज्य को जाता था अब टिकट का पैसा मंदिर की प्रबंधकरिणी को मिलता हैं ! सवाल यह हैं कि हमारे धरम शास्त्रों में जब सभी जातियों के श्राद्धलुओं को निर्बाध दर्शन के अधिकार भावना हैं , तब टिकट क्यूं ? आज़ादी के पहले काफी मंदिरों में अनुसूचित जाती के लोगों को मंदिर प्रवेश और दर्शन की अनुमति नहीं थी। तब संसद ने एक कानून पास करके मंदिर में प्रवेश को वर्जित करने को अपराध घोषित किया। परंतु अभी हाल में ही तमिलनाडू के एक इलाके में अनुसूचित जाति के मंदिर प्रवेश को लेकर किसी कट्टरपंथी ने पानी की टंकी मानव मल घोल दिया, जिसे कि दर्जनों बच्चों की तबीयत खराब हो गयी। जब जिला अधिकारियों ने जांच की पानी की तब यह राज़ खुला। परिणाम स्वरूप महिला कलेक्टर ने सब को समझाया तब अनुसूचित जातिको उनका न्याय पूर्ण अधिकार मिला।

यह घटना लिखने का तात्पर्य यह हैं की संवैधानिक अधिकार को प्राप्त करना भारत में कितना मुश्किल हैं। तब न्याय के देवता आम जनता को किस प्रकार न्याय दिला पाएंगे ? यह सवाल इसलिए भी जरूरी हैं कि जो तथ्य या तर्क निचली अदालत में सज़ा का आधार होते हैं उनकी उच्च या उच्चतम न्यायालय गलत बता देता हैं ! तब क्या उस न्यायाधीश को कोई सज़ा मिलनी चाहिए? अथवा उसके फैसले को बिना विद्वेष के किया गया सहज कार्य मानकर छोड़ देना चाहिए ?

1. कुछ उदाहरण हैं जिनमे बड़ी अदालतों ने निचले अधिकारियों /या जजों के अवधारणाओं को कानून सम्मत नहीं होने पर गलत सिद्ध किया। इस संदर्भ में अभिनेता शाहरुख़ खान के बेटे की नारकोटिक ब्यूरो द्वारा गिरफ्तारी और मजिस्ट्रेट द्वरा उसको पुलिस रिमांड पर दिये जाने का आदेश था। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई में पाया कि नरकोटिक ब्यूरो ने मैजिस्ट्रेट के सामने ड्रग बरामदगी में साफ –साफ लिखा हुआ था कि आर्यन के पास से कोई भी ड्रग नहीं बरामद हुई। फिर भी मजिस्ट्रेट ने उसे रिमांड पर भेज दिया क्यूंकि ब्यूरो को शक था कि आर्यन को मालूम था की किसके पास ड्रग थी। अब यह तो ब्यूरो के वकील की बुद्धि थी और मजिस्ट्रेट की समझ कि एक बेगुनाह को दो माह जेल में रहना पड़ा ! इस पर ना तो बंबई हाइ कोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट ने उस मजिस्ट्रेट के विरुद्ध कोई कानूनी कारवाई नहीं की ? आखिर क्यूं ?

संविधान के अनुछेद 32 में सुप्रीम कोर्ट और 226 में हाई कोर्ट को निचली अदालतों के देखरेख {superntendens right } का हक़ हैं। अब लाखों बेगुनाहों को जेल के अंदर हवालाती यानि बिना सज़ा के लोगों की संख्या वनहा सज़ा काट रहे क़ैदियों से ज्यादा हैं !

2. कभी कभी बड़े हैसियतों अथवा रसूख वाले अभियुक्तों की सुनवाई के लिए काफी बड़े सुरक्षा इंतेजाम किए जाते रहे हैं। साथ के दशक में डाकू मानसिंह के बेटे तहसीलदार सिंह का मुकदमा जेल में सुना गया। हरियाणा के बाबा राम रहीम का मुकदमा भी जेल में सुना गया और जज जगदीप सिंह ने बाबा को 20 साल की सज़ा सुनाई।

परंतु जज लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत को सत्ता ने महज एक दुर्घटना करार दिया ! जबकि पूरा देश जानता हैं कि वे गुजरात से ट्रान्सफर किए गए बहुत ही संवेदनशील मामले की सुनवाई कर रहे थे। परंतु ना तो उन्हें सुरक्षा दी गयी और ना ही उनकी मौत की जांच के लिए तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट के जज साहबान राज़ी हुए। इतना ही नहीं सालों पुरानी ट्वीट के लिए सीबीआई न्यूज़ लांड्री के जुनैद्द को उत्तर प्रदेश और दिल्ली पुलिस ने दर्जनों एफ आई आर दर्ज कर गिरफ्तार करके जगह जगह पुलिस उन्हें घूमती रही। बाद में सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा कि पुलिस ने जानबूझ कर उन्हें परेशान किया। आखिर में सारे एफआईआर को क्लब किया गया और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हे रिहा कर दिया। पर सुप्रीम कोर्ट ने उन अफसरों के खिलाफ कोई कारवाई नहीं की जिन्होंने इस कार्रवाई को अंजाम दिया ! बात साफ है कि सत्ता में ही बैठे लोगों ने अपने खिलाफ बोलने वालों को सबक सिखाने के लिए कानूनी प्रक्रिया का सहारा लिया। अब जहां एजेंसियां और अदालतें इस बात की अनदेखी करती हैं तब न्याय के मंदिर शोषण का तीर्थ बने रहेंगे। जहां कानून भीरु लोग पिसते रहेंगे।

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