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इतना भी क्या चुनाव-पिपासु होना नरेंद्र भाई!

कर्नाटक का आज का रुख तय करेगा कि दक्षिण-विजय के नरेंद्र भाई के सपने का आगे क्या होने वाला है? दक्षिण में कर्नाटक से ज़्यादा उम्मीद भाजपा फ़िलहाल और कहां से लगा सकती है? अगर कर्नाटक ने भाजपा को आज नाउम्मीद कर दिया तो तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना क्यों उसे गले लगाने को हुलसेंगे? तब दक्षिण का रास्ता भाजपा के लिए आज के बाद और लंबा हो जाएगा।वैसे तो पिछले नौ साल में नरेंद्र भाई ने प्रादेशिक चुनावों के प्रचार में अपनी भागदौड़ की झड़ी लगा रखी है, मगर कर्नाटक में अपने प्रधानमंत्री का भीषण चुनाव-पिपासु रूप देख कर मैं भीतर तक हिल गया हूं।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के आज आने वाले नतीजों से तय होगा कि भारतीय जनता पार्टी का सियासी-गाल मतदाताओं के झन्नाटेदार झापड से झनझना रहा है या बावजूद तमाम अस्वीकार्यता के लोगों ने उसे फिर अपनी छाती से चिपका लिया है। तीन दृश्य आज सामने आ सकते हैं। एक, नरेंद्र भाई मोदी का पसीना बुरी तरह नाकाम हो जाए और भाजपा बेतरह पिछड़ जाए। दो, राजनीति-विज्ञानियों के सारे अनुमान खूंटी पर लटके मिलें और भाजपा अपने ही बूते पर सरकार बना ले। तीन, नतीजे अधर में लटक जाएं और हमें अल्पमत को हमेशा बहुमत में बदल लेने की भाजपाई-कुविद्या का निरावरण-नृत्य एक बार फिर देखने को मिले।

कर्नाटक की ज़मीन पर जो देखा-समझा है, उस से तो यही लगता है कि इस बार कांग्रेस 125-130, भाजपा 80-90 और जनता दल सेकुलर 12-15 सीटों के हक़दार रहेंगे। इस चुनाव में मतदान पिछली बार की तुलना में चूंकि करीब डेढ़ प्रतिशत ज़्यादा हुआ है, इसलिए बहुत संभावना यह भी है कि कांग्रेस 140 का आंकड़ा पार कर जाए और भाजपा 70 के आसपास लुढ़क जाए। अगर ऐसा हुआ तो मान लीजिएगा कि भाजपा के विधायकों की गाड़ियों में रखी ईवीएम और उन के हाथों बंट रहे नोटों की घटनाओं के वीडियो-दृश्य हम ने भले ही खूब देखे, मगर यह सब भी अंततः बेअसर हो गया। मैं मानूंगा कि ग़रीबों द्वारा लौटाई जा रही साड़ियों और तोहफ़ों के प्रसंगों ने हमारे लोकतंत्र की मूल आत्मा को बचा लिया।

लेकिन अगर ख़ुद या जोड़तोड़ के ज़रिए भाजपा ने कर्नाटक की सरकार बना ली तो ईवीएम के चाल-चलन पर मेरा शक़ और पुख़्ता हो जाएगा। बिना प्रशासनिक सहयोग के चूंकि चुनावी गड़बड़ियां मुमक़िन नहीं हैं, इसलिए मन में सरकारी अमले की निष्पक्षता को ले कर उठने वाले सवालों को दबाना भी मेरे लिए मुश्क़िल होगा। भाजपा ने कम कोशिश नहीं की कि अपने पल्लू से रोज़-ब-रोज़ तेज़ी से खिसक रहे चुनाव को वह कांटे की टक्कर का आभास दे दे। मगर ऐसा नहीं हो पाया, क्योंकि श्वेत-श्याम सरहदों के बीच की दूरी शुरू से ही इतनी ज़्यादा थी कि कोई भी धुंआ उसे धुंधला नहीं कर पा रहा था। मुझे अहसास हुआ कि इस वज़ह से प्रशासनिक अधिकारियों ने भी आगत के आसार समझ कर तटस्थ-सी मुद्रा अपना ली। ज़ाहिर है कि ऐसे में भाजपा के पांसे ठीक से काम नहीं आए होंगे।

कर्नाटक के ये चुनाव अगले साल होने वाले लोकसभा के चुनावों की दिशा तय करेंगे। भाजपा चित हो गई तो 2024 में नरेंद्र भाई की मुसीबतें चौगुनी हो जाएंगी। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मिज़ोरम और तेलंगाना की विधानसभाओं के चुनावों में तब भाजपा कितना ही इत्र मले, मुहब्बत की बू बिखरने वाली नहीं है। लोकसभा के चुनाव अगर वक़्त पर हुए तो आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, उड़ीसा और सिक्किम के विधानसभा चुनाव भी साथ ही होने के पूरे आसार रहेंगे। इन में से किसी भी राज्य में भाजपा कहीं नहीं है। उड़ीसा को छोड़ दें तो बाकी किसी प्रदेश के प्रमुख क्षेत्रीय दल भाजपा का बग़लगीर होने से पहले भी कई बार सोचेंगे। मुझे नहीं लगता कि अगले बरस की गर्मियां आते-आते नरेंद्र भाई में इतनी ताब बची रहेगी कि वे एक केंद्रीय लहर उपजा कर राज्यों के जनादेश को भी उस पर सवार करा सकें। ज़्यादा संभावना तो यह होगी कि प्रादेशिक लहरों का उफ़ान केंद्रीय जनादेश को भी हताहत कर डाले।

अगर भाजपा कर्नाटक से क्षत-विक्षत हो कर बाहर हुई तो यह नरेंद्र भाई के दक्षिण-अश्वमेध के मंसूबों का उपसंहार साबित होगा। पिछले डेढ़ बरस से वे दक्षिण राज्यों में अपनी पैठ बनाने के लिए तरह-तरह के सांस्कृतिक-जंजाल बुन रहे हैं। तरह-तरह के समागमों के ज़रिए लुभावनी बिसातें बिछा रहे हैं। केंद्र सरकार के अलग-अलग मंत्रालयों और उनसे जुड़े सार्वजनिक उपक्रमों के संसाधन इस अनुष्ठान में झोंके जा रहे हैं। कर्नाटक का आज का रुख तय करेगा कि दक्षिण-विजय के नरेंद्र भाई के सपने का आगे क्या होने वाला है? दक्षिण में कर्नाटक से ज़्यादा उम्मीद भाजपा फ़िलहाल और कहां से लगा सकती है? अगर कर्नाटक ने भाजपा को आज नाउम्मीद कर दिया तो तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना क्यों उसे गले लगाने को हुलसेंगे? तब दक्षिण का रास्ता भाजपा के लिए आज के बाद और लंबा हो जाएगा।

वैसे तो पिछले नौ साल में नरेंद्र भाई ने प्रादेशिक चुनावों के प्रचार में अपनी भागदौड़ की झड़ी लगा रखी है, मगर कर्नाटक में अपने प्रधानमंत्री का भीषण चुनाव-पिपासु रूप देख कर मैं भीतर तक हिल गया हूं। प्रधानमंत्री पहले भी अपने राजनीतिक दल के लिए चुनाव प्रचार में जाते-आते रहे हैं। लेकिन राज्यों के चुनावों में उन की उपस्थिति प्रतीकात्मक हुआ करती थी। उन का राजनीतिक दल सघन चुनाव प्रचार किया करता था, मगर प्रधानमंत्री ख़ुद अपने को उस से इतना संबद्ध नहीं करते थे कि वे पूरे देश के बजाय सिर्फ़ अपने दल के प्रधानमंत्री लगने लगें। आम चुनावों में भी प्रधानमंत्रियों की भूमिका मूलतः बिंबात्मक ही हुआ करती थी। मैं नहीं कहता कि प्रधानमंत्रियों को चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाना चाहिए, लेकिन मुझे यह बात आहत करती है कि नरेंद्र भाई पहले प्रधानमंत्री हैं, जो चुनाव प्रचार में सारे लोकाचार उठा कर आले में रख देते हैं। इतना भी क्या निर्वाचन-तृषित होना नरेंद्र भाई!

कर्नाटक की हवा ने पिछले एकाध हफ़्ते में हमें मीडिया के गिरगिटीकरण की गहराइयों से भी परिचित कराना शुरू कर दिया है। एक दशक के तोतों को तूती में तब्दील होते देखना हैरतअंगेज़ है। भोंपूवीरों के बिगुल सुर बदलते दिखाई दे रहे हैं। अपने रंगबदलू प्रयासों को वे निष्पक्षता का सबूत बता कर पेश करने की निर्लज्जता से बाज़ नहीं आ रहे हैं। अभी तो यह शुरुआत है। रूप बदल कर आगामी सत्ता-दालानों में प्रवेश की तैयारियां जब ज़ोर पकड़ेंगी तो आप और भी कुत्सित मंज़र देखने को तैयार रहिए। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि भारतीय राजनीति के उदारमना पार्टी-संगठन कितने निरपेक्ष भाव से गिरगिटों को अपने कंधों पर सवार होने देते हैं। इस से तय होगा कि अगले एक साल में सकल-विपक्ष की राह 2024 कितनी समतल होती है? गिरगिटों के झांसे में आए नहीं, कि गए नहीं। वैसे आसपास घरेलू गिरगिट ही कौन-से कम बैठे हैं कि आयात और कर लें?

कर्नाटक संगीत में रागों का गायन अधिक तेज़ और कम समयावधि का होता है। लगता है कि इस गायन शैली के बुनियादी सिद्धांतों का सियासी स्वरूप हमारे क्षितिज पर आज दिखाई देगा। तिल्लाना, वर्णम और जावाली की धुनों की गूंज भारत के राजनीतिक आकाश पर चूंकि काफी देर तक छाई रहेगी, इसलिए मेरी यह आरजू स्वाभाविक है कि आज की स्वरलहरियां सकारात्मक संकेत ले कर आएं। ऐसा होगा तो आशीर्वाद-मुद्रा में ऐंठे-ऐंठ घूमने वालों को अहसास होगा कि उन के आशीर्वाद से वंचित रह जाने पर भी कुछ क़ौमें ख़ुद की मशक्कत के भरोसे ज़िंदा रहने का माद्दा रखती हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो फ़रेब और दग़ाबाज़ी के ख़िलाफ़ फिर नए सिरे से कमर कस कर उठ खड़े होने के अलावा आप के पास आख़िर और चारा ही क्या है? आप का राजधर्म तो यही है। बाकी जिस का जो हो, हो।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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