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थियेटर की महक है “कटहल” में

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भोपाल। थियेटर व फिल्मों का जितना करीबी रिष्ता इन दिनों देखने को मिलता है, वैसा पहले शायद नहीं रहा। थियेटर से फिल्मों व टी.वी. सीरियल में गये कलाकारों ने फिल्मों को एक नया कलेवर व मुहावरा दिया है। अनेक रंगकर्मी फिल्मों में भी बेहतरीन काम कर रहे है और थियेटर में भी अपनी सक्रियता बनाये हुए हैं। शबाना आजमी, स्व. फारूख शेख, नसीरूद्दीन शाह, राजेन्द्र गुप्ता, हिमानी षिवपुरी यषपाल शर्मा जैसे कई प्रसिद्ध रंगकर्मियों ने जहां फिल्मों में अपने को से नये आयाम गढ़े हैं तो उसी के समांनातर थियेटर को भी लगातार समृद्ध करते रहे हैं। ये रंगकर्मी न केवल फिल्मों में अभिनय व निदेषन में अपना कमाल दिखा रहे हैं बल्कि फिल्मी लेखन में भी अपनी विषेषज्ञता की छाप छोड़ रहे हैं। जाहिर है इनमें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रषिक्षित रंगकर्मियांे की अच्छी खासी भागीदारी है।

ऐसे ही एक रंग निदेषक हैं अषोक मिश्र जिनकी लिखी कहानी पर बनी फिल्म ‘कटहल’ इन दिनों खासी लोकप्रिय हो रही है। अषोक मिश्र को पटकथा लेखन के लिये दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार व किषोर कुमार सम्मान मिल चुका है। उन्होंने कई फिल्मों की पटकथा व नाटक भी लिखे हैं तथा श्याम बेनेगल के साथ भी उनके अनेक प्रोडक्षन से जुड़े रहे। कटहल चोरी की एक वास्तविक घटना को आधार बनाकर उन्होंने समसामयिक राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हुए ‘कटहल’ की पटकथा तैयार की जिसे बेहद खूबसूरती से उनके पुत्र फिल्म निदेषक यषोवर्धन मिश्र ने फिल्मी परदे पर उतारा है। निदेषक यषोवर्धन फिल्म की कहानी व पटकथा लेखन में भी बराबर के भागीदार रहे।

फिल्म में एक विधायक के बगीचे में लगे कटहल की चोरी पर पूरा पुलिस महकमा कटहल ढूंढने में लग जाता हैै। पुलिस अधीक्षक अपने अधीनस्थ से कहता है कि जितना फोर्स, जितना गोला बारुद चाहिए लो लेकिन कटहल को ढ़ूंढ़ निकालो, उसके पकने के पहले। पुलिस हो चाहे दूसरे शासकीय करिंदे, वे जिस कदर राजनीतिक दबाव में काम करने को विवष हैं, इस स्थिति को चोरी गये कटहल को ढूंढ़ने के रूप में अषोक मिश्र ने बेहद सहज ढंग से तीखे कटाक्ष के साथ अपनी कहानी में चित्रित किया है। अषोक चाहते तो कटहल चोरी के प्रसंग पर हास्य विनोद वाली दिलचस्प कहानी और पटकथा तैयार कर सकते थे जो दर्षकों को खूब हंसाती लेकिन उन्होंने अपनी कहानी में हास्य का पुट कायम रखते हुए व्यंग्यात्मक शैली में अपनी बात रखी है, जो एक राजनीतिक सामाजिक कटाक्ष के रूप में जमीनी सच्चाई को दिखाती है। फिल्म का एक गीत ”मथुरा में रहना है तो राधे राधे कहना है“ समसामयिक राजनीतिक हालात पर गंभीर व्यंग्य करती है। ’कटहल’ फिल्म को देखते हुए प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिषंकर परसाई की लेखनी उभर आती है जहां राजनीतिक व्यवस्था पर तिलमिला देने वाला व्यंग्य मिलता हैं।

’कटहल’ फिल्म पूरी तरह से पुलिस व्यवस्था पर केन्द्रित है लेकिन वहां घिसे पिटे अंदाज में न तो पुलिस का मजाक बनाया गया है और न उन्हें विलेन बनाकर प्रस्तुत किया गया है। पुलिस का मानवीय चेहरा और व्यवस्था के सामने राजनीतिक इषारों पर काम करने की विवषता को फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। बात यही पूरी नहीं होती लेखकद्दय अषोक मिश्रा व यषोवर्धन मिश्र ने इसी व्यवस्था में न्याय का नया आयाम तलाष है जो व्यवस्था से निराष लोगों में भी उम्मीद जगाता है।
फिल्म के निर्देषक यषोवर्धन की बात करें तो मैंने उनकी निर्देषित लघु फिल्म ’मंडी’ देखी है जो एक किसान के फसल की मिट्टी के मोल विक्री पर केन्द्रित है। फसल बेचते समय उसका 8-10 साल का बेटा उसके साथ था जो आखिर में प्याज फेंककर अपना आक्रोष व्यक्त करता है। मुझे ’मंडी’ देखते हुए श्याम बेनेगल की फिल्म ‘अंकुर’ की याद आ गई।

फिल्म निदेषक व पटकथा लेखक यषोवर्धन की यह पहली फीचर फिल्म है जिसे देखते हुए ऐसा लगता है कि वे एक बेहद परिपक्व निदेषक है जो कथानक की धार को पूरी सहजता के साथ अपनी फिल्म में उतारते हैं। ‘कटहल’ एक गंभीर व्यंग्यात्मक फिल्म है जो शुरू से दर्षकों को बांध लेती है और आखिरी तक इसकी गति कहीं मंथर नहीं होती। यह निदेषक की कुषलता का कमाल है जो फिल्म को दर्षक फ्रेंडली बनाता है। उन्होंने अपने कलाकारों से काम लेने में भी कहीं बाजारूपन नहीं आने दिया। इंस्पेक्टर महिमा की भूमिका में उन्होंने कोई मर्दानगी नहीं दिखाई बल्कि कान में बाली पहनी वह निखालिष महिला इंस्पेक्टर ही लगती है। ऐसा ही अन्य पात्रों के साथ भी रहा और वे अपनी भूमिकाओं में बेहद स्वाभविक लगते हैं। फिल्म के आखिर में जो स्टंट दृष्य है वह निदेषक की कल्पनाशीलता का एक नया आयाम दिखाता है। पुलिस और अपराधियों के बीच मारपीट का यह स्टंट गोलीबारी या हथियारों के बजाय एक दूसरे पर सब्जी फेंककर हमला करते हुए होता है और उससे बचाव भी टोकरी, पर्रा आदि से होता है। ऐसा यादगार कामिक स्टंट मैंने पहले किसी फिल्म में नहीं देखा जहां सब्जी को लड़ने का हथियार बनाया गया हो।

फिल्म में कलाकारों ने जो अभिनय किया है वह किसी मंजे हुए कलाकार के लिये भी चुनौती से कम नहीं है। इंस्पेक्टर महिमा की भूमिका में सान्या मेहरोत्रा ने अभिनय के ऐसे ऐसे शेड्स उभारे हैं कि उन्हें लंबे समय तक भूलना संभव नहीं है। जब वह एसपी से अपने अधीनस्थ सिपाही से अपने प्यार की बात कहती है तो उसके एक लाइन में ही प्यार की गहराइयां उतर आती है। माली की लड़की पर कमेंट करने वाले पात्र से कहती है मैं भी छोटी जाति की हूँ लेकिन मैं चोरी चकारी नहीं करती बल्कि चोरों को पकड़ती हूँ। यहां भी एक लाइन में वह तीखे प्रतिरोध को अभिव्यक्ति देती है। एक इनोसेंट लेकिन बेहद सख्त महिला इंस्पेक्टर की भूमिका में अलग-अलग प्रसंग में संवाद अदायगी में उसकी संवदेना, उसकी विवषता और उसका आक्रोष सहज भाव से झलकता है।

सिपाही कुंती की भूमिका में नेहा सराफ ने गृहणी व कामकाजी महिला को एक साथ जीते हुए अद्भुत अभिनय किया है। वह पति के आदेष पर मेहमान के लिये आलूबड़ा भी बनाती है और इंस्पेक्टर के साथ अपराधियों के ठिकानों पर छापा भी मारती है। महिमा के प्रेमी सिपाही की भूमिका में अनंत जोषी भी कम कमाल नहीं करते। राजपाल और रघुवीर यादव मंजे हुए स्थापित कलाकार हैं वे अपनी भूमिकाओं में अलग प्रभाव छोड़ते हैं।

इस फिल्म में राजपाल यादव व रघुवीर यादव के साथ ही थियेटर जगत के गोविंद पांडे, नेहा सराफ, आषुतोष द्विवेदी, सरोज शर्मा, धीरेन्द्र तिवारी, मेघना अग्रवाल, मेघा शुक्ला, लकी खान जैसे कलाकारों का अभिनय फिल्म में थियेटर का फील पैदा करते हैं। फिल्म में स्थानीय बोली का उपयोग किया गया है जो फिल्म को देषजपन और मधुरता प्रदान करती है। फिल्म के गीत और संगीत भी वही लोक और देषजपन लिये हुए हैं। फिल्म की लय इतनी सहज है कि कहीं भी बनावटी पन नजर नहीं आता। यह फिल्म ओटीटी में है, इसलिये कभी भी देखा जा सकता है वर्ना हाल ही में थियेटर में रिलीज होने वाली बेहतरीन फिल्मों का हश्र देखकर रोना आता है।

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