अयोध्या में रामलला के मंदिर निर्माण भूमिपूजन का वक्त आ चुका तो पूरा देश भी राममय हो गया है.. सियासतदारों की जुबां पर राम हैं तो आम जनमानस के मन और हृदय में..बात मंदिर निर्माण भूमिपूजन से शुरू होकर राम पथ गमन यानी अपनी जन्मभूमि से लेकर वनवास और फिर अयोध्या वापसी तक भगवान के चरण जहां जहां पड़े वहां कॉरिडोर बनाने तक की होने लगी तो ऐसे में बुन्देलखण्ड की पावन धरती की बात होना स्वाभाविक है।
क्योंकि चाहे शिवराज के मध्यप्रदेश का बुंदेलखंड हो या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बुंदेलखंड..यहां एमपी के ओरछा से रामलला का गहरा नाता है और भगवान राम यहां राजा के रूप में स्थापित हैं..यह भी मान्यता है कि राम राजा के दो निवास हैं..'खास दिवस ओरछा रहत हैं,रैन अयोध्या वास'
इधर एमपी और यूपी दोनों क्षेत्रों की सीमा पर बसे पावन धाम चित्रकूट उनके वनवास के दौरान कर्मस्थली मानी गई है..अयोध्या के राजा 'राम' एक महारानी की तपस्या से प्रसन्न होकर ओरछा के रामराजा बन जाते हैं..तो वनवास के 12 वर्ष चित्रकूट में माता सीता और भाई लक्ष्मण के साथ विताकर तारणहार....रहीमजी ने लिखा भी है कि..
'चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेश।
जा पर बिपदा परत है, सो आवत यही देश।।'
इसलिए जब बात जनस्थली की हो तो कर्मस्थली का भी अपना महत्व बढ़ जाता है सो राम मंदिर निर्माण भूमिपूजन की तारीख तय होते ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अस्पताल से मन में राम,तन में राम,रोम रोम में राम का संदेश देकर ओरछा के रामराजा का मन्दिर पर फोकस कर मंदिर में भव्य साज सज्जा करा विशेष पूजा अर्चना कराने की बात कही.चित्रकूट में एमपी और यूपी सरकारों ने भूमिपूजन दिवस पर भव्य सजावट कर पूजा पाठ कराए जाने की व्यवस्थायें जमाना शुरू कर दीं..
ओरछा के मंदिर की चौखट पर लिखे शिलालेखों की माने तो करीब साढ़े चार सौ वर्ष से ओरछा में राजा राम ही हैं..देश में रियासत भले ही समाप्त हो गईं हों पर ओरछा के राजा यानी भगवान राम को आज भी गार्ड ऑफ ऑनर दिए जाने की परंपरा है..किसी को भी राजा राम के दर्शन करने कमर कस कर यानी बेल्ट लगाकर जाने की इज़ाज़त नहीं है.इसके पीछे मान्यता यह है कि कमर कस कर कोई राजा की शान में गुस्ताखी न करे.यहां मंदिर में दोनों समय की आरती के बाद प्रसाद के रूप में पान का बीड़ा और इत्र की कली वितरित किए जाने की परंपरा है..राम ने रानी से ओरछा चलने की सहमति जताई पर शर्त ये भी रखी कि वहां उनकी सत्ता ही काबिज़ होना चाहिए,राजा वे ही होंगे और राजशाही का अंत होगा..रानी ने इस पर सहमति दी और तभी से वहां राम को ही राजा माना जाता है..रियासत के आदेशों में भी राजा राम का ही जिक्र होता रहा और ऐसा कहा जता है कि मधुकरशाह बतौर सचिव अपने हस्ताक्षर करते रहे..रानी कुँवरि गणेश द्वारा भगवान राम को दिए गए बचन के अनुसार राजा मधुकरशाह ने अयोध्या में कनक भवन और नेपाल के जनकपुर यानी भगवान की ससुराल में नौलखा मंदिर का निर्माण कराया था..इन मंदिरों की देखभाल और सेवा के लिए कुछ गाँव भी खरीदे थे..अयोध्या के कनक भवन मंदिर ट्रस्ट में अध्यक्ष आज भी टीकमगढ़ के राजा मधुकरशाह ही दर्ज है..
रामहि केवल प्रेम प्यारा.जानि लेहु जो जानहि हारा..
भगवान को चाहे छप्पन भोग लगाएं,चाहे इत्र और सुगंधित चंदन लगायें या फिर बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण पर भगवान तो प्रेम से ही प्राप्त होते हैं और इसी प्रेम, उपासना, भक्ति की शक्ति ही थी कि भगवान राम को अपनी भक्त की बात मानकर ओरछा आना पड़ा और आज राम ओरछा के राजा हैं तो उन्हें ओरछा तक लाने वाली महारानी कुंवरि गणेश को जनता माता कौशल्या और राजा मधुकरशाह को दशरथ का अवतार मानकर उनका स्मरण करती है..बात बहुत पुरानी है जब करीब 1600 संवत में टीकमगढ़ रियासत बुंदेला राजवंश के अधीन थी और राजा थे मधुकरशाह जो कृष्ण भक्त थे वहीं उनकी पत्नी महारानी कुंअरी गणेश की राम में बेहद आस्था थी.बताया जाता है कि एक बार जब राजा ने रानी से कृष्ण उपासना के लिए वृंदावन चलने का आग्रह किया पर रानी राम की भक्ति में इतनी तल्लीन थी कि उन्होंने राजा की बात को जैसे नज़रंदाज़ कर दिया. बातों बातों में बात इतनी बढ़ गई कि राजा मधुकरशाह ने रानी से बोला कि यदि आप राम की इतनी ही भक्त हो तो ले आओ राम को..बस फिर क्या था रानी अपने आराध्य राम मो लेने निकल पड़ीं अयोध्या और सरयू नदी के तट पर अपनी कुटिया बनाकर अपने आराध्य भगवान की उपासना में लीन हो गईं इधर राजा मधुकरशाह भी वृंदावन पहुंचे और कृष्ण उपासना में तल्लीन हो गए।
इस दौरान रानी कुंवरी गणेश का संपर्क सरयू के तट पर रह रहे महर्षि तुलसीदास जी से हुआ तो उन्होंने भी महारानी को आशीर्वाद प्रदान किया..उपासना और तपस्या से जब रानी को भगवान के दर्शन नहीं हुए तब महारानी ने निश्चय किया कि जब भगवान ही नहीं मिले तो वापस ओरछा जाने का प्रश्न कहाँ सो उन्होंने सरयू नदी में ही छलांग लगा दी..इतिहास के पन्ने पलटे जायें तो यही कथा सामने आती है..रानी ने सरयू में छलांग तो लगाई पर वो एक दो बार जल में न प्रवेश कर अपने को किनारे पर खड़ा पाया..रानी भी राम की लीला समझ न पाई और जब तीसरी बार अपनी देह त्याग करने नदी में छलांग लगाई तो बालरूप में भगवान राम साक्षात प्रकट हुए और उन्होंने सशर्त रानी के आग्रह को स्वीकार किया..भगवान ने शर्त रखी कि वो पुख नक्षत्र में ही चलेंगे और जहां उन्हें एक बार बिराजमान करा दिया जाएगा वहीं रहेंगे..इधर रानी को उनके आराध्य मिलने की सूचना राजा मधुकरशाह को मिली वैसे ही उन्हें भी भगवान कृष्ण ने स्वप्न दिया कि राम और कृष्ण एक ही रूप हैं..बस फिर क्या राजा ने रानी को ससम्मान ओरछा लाने की व्यवस्था कराई...वर्तमान में ओरछा निवाड़ी जिले की सीमा क्षेत्र में है..
विदेशी आक्रांताओं ने जब ध्वस्त कर दिए मंदिर..
भगवान राम के ओरछा आने की पौराणिक मान्यताओं में जो बात सामने आती ही उसमें एक मान्यता ये भी है कि जब भारत में विदेशी आक्रांताओं ने मंदिर नष्ट किए और धर्म ग्रंथ मिटाना शुरू किए तब अयोध्या के साधु संतों ने रामलला के विग्रह को सरयू नदी में जलसमाधि में छुपा दिया था जिसे रानी कुंवरि गणेश तपस्या के बाद अयोध्या लाई थीं..और सुरक्षा की दृष्टि से भगवान को रसोई में स्थापित किया गया था क्योंकि वह स्थान ज्यादा सुरक्षित माना जाता था..उस समय साधु महात्माओं को प्रखर हिंदूवादी राजा मधुकरशाह से ही उम्मीदें थीं जो पूरी हुई..अयोध्या के बाद देश में मध्यप्रदेश के ओरछा में ही एकलौता ऐसा मंदिर है जहां भगवान राम की राजा के रूप में पूजा होती है..
अयोध्या के राजा ‘राम’ तो ओरछा के ‘राम’ राजा
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