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किसान जीते या मोदी हारे अलबत्ता मीडिया जीता!

Byनवीन जैन,
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किसान जीते या मोदी हारे अलबत्ता मीडिया जीता!
इलेक्ट्रॉनिक के साथ ही प्रिंट मीडिया के बड़े वर्ग ने किसान आंदोलन के बारे में लगातार केन्द्र सरकार के रुख का ही समर्थन किया ,लेकिन यह भी उतना ही सत्य लगता है कि उक्त आंदोलन के समर्थन में मीडिया के छोटे से ही सही वर्ग ने निरंतर आवाज़ बुलंद करने का एक तरह का शौर्य दिखाया ,जिसमें पर्याप्त साहस ,और दायित्व बोध की ज़रूरत थी। Kishan andolan farmer protest कृषि कानूनों को वापस लिए जाने के संदर्भ में स्वेट मॉर्डन की कही बात फ़िर सच साबित हो गई। इस महान विचारक ने कहा था कि जब तक क़यामत नहीं आ जाती ,तब तक दो चीज़ों की अनिवार्यता हरदम बनी रहेगी  । स्वेट मॉर्डन ने इनमें से पहली अनिवार्यता सूर्य के प्रकाश को,और दूसरी स्वतंत्र पत्रकारिता ,प्रेस या मीडिया को बताया था। सही है कि इलेक्ट्रॉनिक के साथ ही प्रिंट मीडिया के बड़े वर्ग ने किसान आंदोलन के बारे में लगातार केन्द्र सरकार के रुख का ही समर्थन किया ,लेकिन यह भी उतना ही सत्य लगता है कि उक्त आंदोलन के समर्थन में मीडिया के छोटे से ही सही वर्ग ने निरंतर आवाज़ बुलंद करने का एक तरह का शौर्य दिखाया ,जिसमें पर्याप्त साहस ,और दायित्व बोध की ज़रूरत थी। अन्य तथ्यों की बात तो आगे चलकर करेंगे ही लेकिन देश दुनिया को यह कैसे पता चलता कि इस आंदोलन में सात सौ से ज़्यादा किसान जान गंवा बैठे,हालांकि उन पर किसी तरह की ज़्यादती या कोविड 19 संक्रमित होने के प्रमाण नहीं मिलते। सही है कि किसानों पर पुलिस ने लाठियां चलाईं,उन्हें रोकने के लिए बेरिकेड्स भी लगाए,रास्ते में कीलें तक ठोक दीं। लगभग एक साल पुराने उक्त किसान आंदोलन के इतिहास में जाएँ ,तो पता चलेगा कि उक्त सभी खबरें कोरोना के वीभत्स दौर में भी मीडिया का एक ब्लॉक ही,तो दे रहा था। आपने भी देखा होगा कि 22 या 23 बरस की युवतियाँ बिना हेलमेट या अन्य सुरक्षा साधनों के ग्राउंड या स्पॉट रिपोर्टिंग कर रही थीं । यदि लोगों को यह जानकारी विभिन्न चैनलों से मिली कि किसानों की महिलाओं ,बच्चों और बुजुर्गों पर भरी ठण्ड या बरसात में पानी पानी की तेज़ बौछारें फेंकने जैसा गलत काम पुलिस ने किया तो मीडिया ने ही तो यह  दिखाया ,और मीडिया ने ही  गत 26 जनवरी को लाल किले से देश को अपमानित करने की घटना ,और नई दिल्ली की सड़कों पर तलवार बाजी के दृश्य भी दिखा दिए ।आज भी सोचकर  रूह कांप जाती है कि पुलिस पर जब कई किसान टूट पड़े थे तब एक भी गर्म खून के पुलिसकर्मी ने अपनी अत्याधुनिक राइफल का ट्रीगर( घोड़ा) दबा दिया होता ,तो क्या कुछ नहीं हो जाता। Read also योगी का कंधा और मोदी का टेकओवर! modi repeal farm law मीडिया का मूल मंत्र यह भी है कि सभी बातें खुलकर नहीं लिख दी जातीं । पाठक या दर्शक इशारों की भाषा ज़्यादा अच्छे से समझ लेते हैं। इसीलिए मीडिया ने अव्वल ही चेता दिया था कि  गत 26 जनवरी को कहीं दूसरा जलियांवाला बाग काण्ड न हो जाए। सरकार ,स्थानीय प्रशासन ,और पूरे मीडिया जगत के संयम ,और शालीनता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता था?याद करें, आंदोलन के दौरान एक दिन भावुक होकर किसान यूनियन के नेता राकेश सिंह टिकैत मंच से रोने लगे थे। झूठ बोले कौव्वा काटे। एक अग्रणी चैनल की महिला स्टुडियो पत्रकार ने इस बात को ही लेकर उक्त  बुजुर्ग नेता की हँसी तक उड़ा दी ,लेकिन अपने गुस्से के लिए जाने जाने वाले हरियाणवी या सिक्ख किसानों ने भी ऐसे नाजुक वक़्त पर भी पूरी समझदारी ,और जिम्मेदारी का परिचय दिया। एक महिला केन्द्रीय मंत्री ने  तो किसानों को मवाली तक कह दिया लेकिन फिर राकेश सिंह टिकैत ने पर्याप्त बड़प्पन से काम लेते हुए उक्त महिला मंत्री को अपने शब्द वापस लेने पर मजबूर कर दिया। हाँ ,इस तरह के प्रकरणों से उक्त आंदोलन को और गति मिली। उससे अन्य किसान भी जुड़े लेकिन न तो कांग्रेस, न वामपंथी, न अन्य नियमित आंदोलन जीवी इससे कोई फायदा उठा पाए। जीत हो या हार ,श्रेय सिर्फ़ और सिर्फ़ किसानों को ही दिया जाना चाहिए।पश्चिम उत्तर प्रदेश के कई गांवों में भाजपा के किसी भी नेता को घुसने तक नहीं दिया गया । यह स्पॉट रिपोर्ट भी एक दिग्गज टीवी पत्रकार ने ही कवर  की थी न? और,  उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव और हाल में हुए विधानसभा उप चुनावो में कुल मिलाकर भाजपा की हुई करारी हार  के कारणों का विश्लेषण भी कथित रूप से मोदी या गोदी मीडिया ने ही किया । जो लोग अपने को बाज़ार बनाकर बेचने का नैसर्गिक हुनर जानते हैं उनकी वजह से पूरे मीडिया को बदनाम करने के सन्दर्भ में एक गंदी मछली वाली कहावत याद आती है। मैगसेसे पुरस्कार विजेता पत्रकारों ने वाकई देश का नाम रोशन किया लेकिन ये भी प्रत्येक मुद्दे पर मोदी  को ही क्यों दोषी ठहराते हैं ? ये कौन होते हैं लोगों को यह समझाइश देने वाले कि आप लोग अपने टीवी सेट ही उठाकर घर के बाहर फेंक दें । मज़ा यह है कि टीवी पत्रकारिता की वजह से ही इन्हें इतनी ख्याति मिली।  गरीबी,भुखमरी ,अशिक्षा ,प्रदूषण ,स्वास्थ्य ,तो छोड़ ही दीजिए ,देश में आज भी महिलाओं के साथ  ऐसे हौलनाक अत्याचार किए जाते हैं कि एक सामान्य आदमी के  होश फाख्ता हो जाएंगे। मीडिया के छोटे से वर्ग ने पश्चिम महाराष्ट्र की यह खबर दी जिसे संसद में सरकार ने मंजूर किया। प्रिंट मीडिया ने ही यह तथ्यात्मक खबर दी थी न कि  कोविड 19 से मृतकों  को नदियों में किसने  बहा दिया था। यह बात हिंदी बेल्ट की नहीं बल्कि गुजरात से लेकर सुदूर दक्षिण भारत की है।तमाम गैर हिंदी भाषाई अखबारों ,और पत्रिकाओं  के प्रसार में कोरोना में ब्रेक लगने के बावजूद फ़िर उछाल आया है। जो लोग प्रिंट मीडिया को बिकाऊ कहते नहीं अघाते उन्हें एक बार फिर इस मीडिया की  एक नैसर्गिक कमज़ोरी की तरफ ध्यान देना चाहिए । और वो यह कि कितने लोग हैं जो जेब से पैसा खर्च करके अखबार पढ़ते। या तो इन्हें पड़ोस के अखबार के खाली होने का इंतज़ार होता है या ये चौराहे पर चाय के अड्डे पर ही अखबार पढ़ लेते हैं। एक और बात। एक सम्पूर्ण दैनिक तीन या चार रुपए में मिल जाता है लेकिन पाठक के घर आने तक वह लगभग आठ रुपए कीमत का हो जाता है। यह वित्तीय फ़र्क न्यूज पेपर प्रबंधन को सरकारी और गैर-सरकारी विज्ञापनों से ही पाटना पड़ता है। विदेशी मीडिया की जहाँ तक बात है तो वहाँ सच जानने की अकुलाहट लोगों की हड्डियों में समाई हुई है। उन्हें किसी विज्ञापन की ज़रुरत नहीं पड़ती। इमरजेंसी तो लगभग 21 महीने चली थी । तब तो मीडिया की आवाज़ घोषित रूप से बंद कर दी गई थी लेकिन उस अंधकार युग में भी तमाम अत्याचारों को मीडिया ही बाहर लाया था और लौह महिला मानी जाने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी तक आपातकाल को हटाने, प्रेस की आजादीलौटने और लोकसभा चुनाव करवाने को विवश हो गई  थीं ,जिसमें उनके साथ कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा।
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