भारतीय संस्कृति में अवतारवाद की व्याख्या कई प्रकार से की गई हैं। उनमें पस्पर समानताएँ, विषमताएँ और विरोधाभास भी है। एक मत के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार की कथाएं सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाते हैं। इस मतानुसार जल से ही सभी जीवों की उत्पति हुई।..अन्य मतानुसार दस अवतार मानव जीवन के विभिन्न पड़ावों को दर्शाते हैं। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कूर्म भ्रूण, वराह गर्भ स्थति में बच्चे का वातावरण, तथा नर-सिंह नवजात शिशु है।…
3 जनवरी-कूर्म द्वादशी पर विशेष: भगवान विष्णु के प्रसिद्ध दस अवतारों में दूसरा अवतार और चौबीस अवतारों में ग्यारहवां अवतार कूर्म अवतार हैं। विष्णु के कूर्म अवतार को कच्छप अवतार भी कहते हैं। कूर्म अवतार की पौराणिक कथा के अनुसार महाप्रलय के कारण पृथ्वी की सम्पदा जलाशाय़ी हो जाने के कारण भगवान विष्णु ने कूर्म अर्थात कछुए का अवतार ग्रहण कर सागर मंथन के समय पृथ्वी की जलाशाय़ी सम्पदा को निकलवाया था। पाश्चात्य वैज्ञानिकों के अनुसार भी हिमयुग अर्थात आईस ऐज के बाद सृष्टि का पुनर्निर्माण हुआ था। पौराणिक सागर मंथन की कथानुसार सुमेरु पर्वत को सागर मंथन के लिये इस्तेमाल किया गया था। माऊंट ऐवरेस्ट का ही भारतीय नाम सुमेरू पर्वत है तथा नेपाल में उसे सागर मत्था कहा जाता है। जलमग्न पृथ्वी से सर्वप्रथम सबसे ऊँची चोटी ही बाहर प्रगट हुई होगी। यह तो वैज्ञानिक तथ्य है कि सभी जीव जन्तु और पदार्थ सागर से ही निकले हैं।
भारतीय संस्कृति में अवतारवाद की व्याख्या कई प्रकार से की गई हैं। उनमें पस्पर समानताएँ, विषमताएँ और विरोधाभास भी है। एक मत के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार की कथाएं सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाते हैं। इस मतानुसार जल से ही सभी जीवों की उत्पति हुई। इसलिए भगवान विष्णु सर्वप्रथम जल के अन्दर मत्स्य रूप में प्रगट हुए। फिर कूर्म बने। तत्पश्चात वराह रूप में जल तथा पृथ्वी दोनों का जीव बने। नरसिंह, आधा पशु- आधा मानव, पशु योनि से मानव योनि में परिवर्तन का जीव है। वामन अवतार बौना शरीर है, तो परशुराम एक बलिष्ठ ब्रह्मचारी का स्वरूप है, जो राम अवतार से गृहस्थ जीवन में स्थानांतरित हो जाता है। कृष्ण अवतार एक वानप्रस्थ योगी, और बुद्ध पर्यावरण के रक्षक हैं। पर्यावरण के मानवी हनन की दशा सृष्टि को विनाश की ओर धकेल देगी। अतः विनाश निवारण के लिए कलंकि अवतार की भविष्यवाणी पौराणिक ग्रन्थों में पूर्व से की गई है। एक अन्य मतानुसार दस अवतार मानव जीवन के विभिन्न पड़ावों को दर्शाते हैं। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कूर्म भ्रूण, वराह गर्भ स्थति में बच्चे का वातावरण, तथा नर-सिंह नवजात शिशु है। आरम्भ में मानव भी पशु जैसा ही होता है। वामन बचपन की अवस्था है, परशुराम ब्रह्मचारी, राम युवा गृहस्थी, कृष्ण वानप्रस्थ योगी तथा बुद्ध वृद्धावस्था का प्रतीक है। कलंकि मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म की अवस्था है।
पौराणिक कथानुसार कूर्म अर्थात कच्छप अवतार में श्रीविष्णु ने क्षीरसागर के समुद्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। भगवान विष्णु, मंदर पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एंव असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नों की प्राप्ति की। इस समय विष्णु ने मोहिनी रूप भी धारण किया था। मान्यता के अनुसार प्रजापति ने सन्तति प्रजनन के अभिप्राय से कूर्म का रूप धारण किया था। पद्म पुराण की कथा के अनुसार इनकी पीठ का घेरा एक लाख योजन का था। कूर्म की पीठ पर मन्दराचल पर्वत स्थापित करने से ही समुद्र मंथन सम्भव हो सका था। कूर्मावतार नृसिंह पुराण के अनुसार द्वितीय तथा भागवत पुराण 1-3-16 के अनुसार ग्यारहवें अवतार माने गए हैं।
शतपथ ब्राह्मण 7-5-1-5-10, महाभारत आदि पर्व, 16 तथा पद्मपुराण उत्तराखंड, 259 में उल्लिखित विवरणानुसार संतति प्रजनन हेतु प्रजापति, कच्छप का रूप धारण कर पानी में संचरण करते हैं। लिंग पुराण 94 के अनुसार पृथ्वी रसातल को जा रही थी, तब विष्णु ने कच्छप रूप में अवतार लिया। पद्मपुराण ब्रह्मखड, 8 के अनुसार इंद्र ने दुर्वासा द्वारा प्रदत्त पारिजातक माला का अपमान किया, तो कुपित होकर दुर्वासा ने इंद्र के समस्त वैभव के नष्ट होने का शाप दिया। परिणामस्वरूप लक्ष्मी समुद्र में लुप्त हो गई। तत्पश्चात विष्णु के आदेशानुसार देवताओं तथा दैत्यों ने लक्ष्मी को पुन: प्राप्त करने के लिए मंदराचल की मथानी तथा वासुकि की डोर बनाकर क्षीरसागर का मंथन किया। मंथन करते समय मंदराचल रसातल को जाने लगा, तो विष्णु ने कच्छप के रूप में अपनी पीठ पर धारण किया और देव-दानवों ने समुद्र से अमृत एवं लक्ष्मी सहित चौदह रत्नों की प्राप्ति करके पूर्ववत वैभव संपादित किया। मान्यता है कि इस लोक में एकादशी का उपवास, व्रत कच्छपावतार के बाद ही प्रचलित हुआ। कूर्म पुराण में विष्णु ने अपने कच्छपावतार में ऋषियों से जीवन के चार लक्ष्यों -धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का वर्णन किया था।
दशावतार से सम्बन्धित कूर्म पुराण नामक सत्रह हजार श्लोकों का एक पृथक पुराण भी प्रचलन में है, जिसमें कूर्म और अन्य अवतारों से सम्बन्धित विस्तृत विवरण अंकित हैं। महापुराणों की सूची में पंद्रहवें पुराण के रूप में परिगणित कूर्मपुराण का विष्णु भक्तों में विशेष महत्व है। शैव और वैष्णव भक्तों में समान रूप से विशेष महत्व रखने वाले इस कूर्म पुराण को भगवान कूर्म ने राजा इन्द्रद्युम्न को सुनाया था। पुनः भगवान कूर्म ने उसी कथानक को समुद्र मंथन के समय इन्द्रादि देवताओं तथा नारद आदि ऋषिगणों से कहा। तीसरी बार नैमिषारण्य के द्वादश वर्षीय महासत्र के अवसर पर रोमहर्षण सूत के द्वारा इस पवित्र पुराण को सुनने का सैभाग्य अट्ठासी हजार ऋषियों को प्राप्त हुआ। भगवान कूर्म के द्वारा कहे जाने के कारण ही कूर्म पुराण के नाम से विख्यात इस पुराण में विष्णु और शिव की अभिन्नता कही गयी है। कूर्म पुराण के साथ ही विष्णु के कूर्मावतार से सम्बन्धित विस्तृत विवरणी महाभारत आदि पर्व, भागवत पुराण, विष्णु पुराण, पद्म पुराण, लिंग पुराण आदि में भी प्राप्य हैं। कुछ विद्वान शतपथ ब्राह्मण के श्लोकों से भी कूर्मावतार की कथा को जोड़कर देखते हैं।
पुराणों के अनुसार बैशाखं पूर्णिमा की तिथि को भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुए) का अवतार लिया था तथा समुद्र मंथन में सहायता की थी। इसीलिए वैशाख मास की पूर्णिमा पर कूर्म जयंती का पर्व मनाया जाता है। इसके साथ ही पौष शुक्ल द्वादशी को कूर्म द्वादशी का व्रत मनाया जाता है। कूर्मावतार के सम्बन्ध में प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार अत्यंत प्राचीन काल में एक समय महर्षि दुर्वासा देवराज इंद्र से मिलने के लिए स्वर्ग लोक में गए, तो उन्होंने देखा कि देवताओं से पूजित इंद्र ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो कहीं जाने के लिए तैयार उद्यत खड़े थे। उन्हें देख अत्यंत प्रसन्नचित्त मन और विनीत भाव से महर्षि दुर्वासा ने देवराज को एक पारिजात-पुष्पों की माला भेंट की। इंद्र ने माला ग्रहण कर उसे स्वयं न पहन कर ऐरावत के मस्तक पर डाल दी और स्वयं चलने को उद्यत हुए। मदोन्मत्त हाथी ने सुगन्धित तथा कभी म्लान न होने वाली उस माला को सूंड से मस्तक पर से खींच कर मसलते हुए फेंक कर उसे पैरों से कुचल डाला। यह देखकर अत्यंत क्रोधित ऋषि दुर्वासा ने शाप देते हुए कहा- इंद्र, तुमने मेरी दी हुई माला का तनिक भी आदर नहीं किया। तुम त्रिभुवन की राजलक्ष्मी से संपन्न होने के कारण मेरा अपमान करते हो, इसलिए जाओ आज से तीनों लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो जायेगी और यह तुम्हारा समस्त वैभव भी श्रीहीन हो जाएगा।
यह शाप दे दुर्वासा ऋषि शीघ्र ही वहाँ से चल दिए। श्राप के प्रभाव से इन्द्रादि सभी देवगण एवं तीनों लोक श्रीहीन हो गए। यह दशा देखकर इन्द्रादि देवता अत्यंत दु:खी हो गए। महर्षि का शाप अमोघ था, उन्हें प्रसन्न करने की सभी प्राथनाएं भी विफल हो जाने पर असहाय, निरुपाय तथा दु:खी देवगण, ऋषि-मुनि आदि सभी प्रजापति ब्रह्मा के पास गए। इस समस्या के निराकरण का अन्य कोई उपाय न देख ब्रह्मा उन्हें अपने साथ ले वैकुण्ठ में श्रीविष्णु के पास पहुंचे और विष्णु की स्तुति कर उन्हें बताया कि पूर्व से ही दैत्यों के कुकृत्यों से हम अत्यंत कष्ट में हैं, और इधर महर्षि दुर्वासा के शाप से श्रीहीन भी हो अत्यंत दारूण स्थिति में पहुँच गए हैं, इसलिए शरणागतों के रक्षक आप इस महान कष्ट से हमारी रक्षा करें। स्तुति से प्रसन्न होकर विष्णु ने उन्हें समुद्र का मंथन करने का निर्देश देते हुए कहा कि इससे लक्ष्मी तथा अमृत की प्राप्ति होगी, जिसे पीकर आप अमर हो जायेंगे। जिससे दैत्य आपका कुछ भी अनिष्ट न कर सकेंगे। लेकिन इस अत्यंत दुष्कर कार्य को अकेले देवों के भरोसे सम्पन्न करने का स्वप्न देखना व्यर्थ है, इसलिए इसके सम्पन्नार्थ असुरों को अमृत का प्रलोभन देकर उनके साथ संधि कर दोनों पक्ष मिलकर समुद्र मंथन कीजिए।
निर्देशानुसार इन्द्रादि देवों ने असुरराज बलि तथा उनके प्रधान नायकों को अमृत का प्रलोभन देकर सहमत कर लिया, और ब्रह्मादि सहित सभी देव मिल पृथ्वी की समस्त औषधियों तथा वनस्पतियों को समुद्र में डाल मथानी के रूप में मंदराचल का प्रयोग करते हुए वासुकिनाग की रस्सी बनाकर पूंछ की ओर पकड़कर खींचते हुए समुद्र का मंथन प्रारम्भ कर दिया, दूसरी सिर की ओर दैत्यों ने अपनी पकड़ मजबूत कर मंथन कार्य में तेजी ला दी। किन्तु इस मंथन के परिणामस्वरूप उसमें से एक घातक विष निकलने लगी। विष के प्रभाव से प्राणियों को घुटन होने से समस्त संसार पर एक प्रकार से खतरा उत्पन्न होने लगा। ऐसी स्थिति में बचाव हेतु भगवान शंकर सामने आए और उन्होंने उस विष का सेवन तो कर लिया, लेकिन उसे गले से नीचे नहीं जाने देकर अपने कंठ में ही आत्मसात कर लिया। गले में अटकाकर रखने के कारण ही शंकर का गला नीले रंग का हो गया और इस घटना के पश्चात ही उनका नीलकंठ नाम पड़ा।
इस पर भी समुद्र मंथन कार्य जारी रहा, लेकिन अथाह सागर में मंदरगिरी डूबता हुआ रसातल में धसता प्रतीत होने लगा और धीरे -धीरे पर्वत डूबने लगा। यह देखकर अचिन्त्य शक्ति संपन्न भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार अर्थात एक विशाल कछुआ के रूप में अवतीर्ण होकर अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत को धारण कर लिया। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार जब मंदराचल पर्वत हिलता तो भगवान कूर्म की एक लाख योजन के विशाल पीठ पर ऐसा लगता मानो कुजली चल रही हो। ब्रह्मा स्वयं भी देवता और असुरों के साथ रस्सी बने वासुकि नाग को पकड़ कर मथने लगे। भगवान के इस लीलामय रूप और देवगणों के पुष्पवृष्टि और स्तुति के मध्य समुद्र मंथन से कामधेनु, अपने हाथों में कलश लिए धन्वतरि, लक्ष्मी आदि प्रकट हुए।