nayaindia Lal Bahadur Shastri Death Anniversary लालबहादुर शास्त्री: छोटे कार्यकाल के बड़े,प्रभावी प्रधानमंत्री
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लालबहादुर शास्त्री: छोटे कार्यकाल के बड़े,प्रभावी प्रधानमंत्री

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अपनी उदात्त निष्ठा एवं क्षमता के लिए लोगों के बीच प्रसिद्ध विनम्र, दृढ, सहिष्णु एवं जबर्दस्त आंतरिक शक्ति वाले शास्त्रीजी को मरणोपरान्त वर्ष 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। आज भी भारत में शास्त्रीजी की जन्म तिथि दो अक्टूबर को और उनकी पुण्य तिथि 11 जनवरी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए सम्पूर्ण भारत श्रद्धापूर्वक स्मरण करता है, नमन करता है।

11 जनवरी -लालबहादुर शास्त्री की पुण्यतिथि

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 27 मई 1964 को मृत्यु के बाद साफ -सुथरी छवि के कारण लालबहादुर शास्त्री को कांग्रेस ने 9 जून 1964 को देश का दूसरा प्रधानमंत्री चुना। मगर उनका कार्यकाल कोई पहचान पाता उससे पहले ही 1965 में भारत- पाक युद्ध हुआ। और उसमेंउन्होंने नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को जो नेतृत्व दिया तोजहां पाकिस्तान की हार हुई। जनता का मनोबल बढ़ा। पूरा देश एकजुट हुआ।

शास्त्रीजी वह शख्सियत थी, जिन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में देश को न सिर्फ सैन्य गौरव दिलाया बल्कि हरित क्रांति और औद्योगीकरण की राह भी दिखाई। शास्त्रीजी किसानों को देश का अन्नदाता मानते थे। देश के सीमा प्रहरियों के प्रति उनके मन में अगाध प्रेम था। इसी कारण उन्होंने जय जवान, जय किसान का नारा दिया।1964 में प्रधानमंत्री बनाए जाने के बाद शास्त्रीजी ने पहले संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है। वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उनके क्रियाकलाप सैद्धान्तिक न होकर पूर्णत: व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थे।

प्रधानमंत्री के रूप में शास्त्रीजी का शासनकाल बेहद कठिन, राजनीतिक सरगर्मियों से भरा, और तेज गतिविधियों का काल था। एक तरफ पूँजीपति देश पर हावी होना चाहते थे, और दूसरी तरफ चीन, पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश हम पर आक्रमण करने की फिराक में थे।1965 का यह भारत-पाक युद्ध दोनों देश के बीच मुठभेड़ के रूप में अप्रैल 1965 से सितम्बर 1965 के बीच हुई थी। इसे कश्मीर के दूसरे युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू और कश्मीर राज्य पर अधिकार के लिये बँटवारे के समय से 1947 से ही चल रहे विवाद को हवा देने के लिए इस लड़ाई की शुरूआत पाकिस्तान ने अपने सैनिकों को घुसपैठियों के रूप में भेज कर इस उम्मीद में की थी कि कश्मीर की जनता भारत के खिलाफ विद्रोह कर देगी। इस अभियान का नाम पाकिस्तान ने युद्धभियान जिब्राल्टर रखा था। पांच महीने तक चलने वाले इस युद्ध में दोनों पक्षों के हजारों लोग मारे गए। अभियान के तहत 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर एक सायं 7.30 बजे हवाई हमला कर दिया। परम्परानुसार राष्ट्रपति ने तीनों रक्षा अंगों के प्रमुख व मन्त्रिमण्डल के सदस्यों की एक आपात बैठक बुलाई। संयोग से प्रधानमंत्री उस बैठक में कुछ देर से पहुँचे। उनके आते ही विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ। तीनों प्रमुखों ने उनसे सारी वस्तुस्थिति समझाते हुए आदेश देने की इच्छा व्यक्त की। यह सुन शास्त्रीजी ने एक वाक्य में तत्काल उन्हें उत्तर दिया- आप देश की रक्षा कीजिये और मुझे बताइये कि हमें क्या करना है? बाद में उन्होंने सेना को अपने सैन्य पद्धति के अनुसार देश को विजयी बनाने के लिए कार्य करने की इजाजत दे दी।

भारत पाक युद्ध के दौरान 6 सितम्बर को भारत की पंद्रहवीं पैदल सैन्य इकाई ने द्वितीय विश्वयुद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेत्तृत्व में इच्छोगिल नहर के पश्चिमी किनारे पर पाकिस्तान के बहुत बड़े हमले का डटकर मुकाबला किया। और पाकिस्तान के आक्रमण का सामना करते हुए भारतीय सेना ने लाहौर पर धाबा बोल दिया। इच्छोगिल नहर भारत और पाकिस्तान की वास्तविक सीमा थी। इस हमले में खुद मेजर जनरल प्रसाद के काफिले पर भी भीषण हमला हुआ और उन्हें अपना वाहन छोड़ कर पीछे हटना पड़ा। परन्तु भारतीय थलसेना ने दूनी शक्ति से प्रत्याक्रमण करके बरकी गाँव के समीप नहर को पार करने में सफलता प्राप्त की। इससे भारतीय सेना लाहौर के हवाई अड्डे पर हमला करने की सीमा के भीतर पहुँच गई। इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिए कुछ समय के लिए युद्धविराम की अपील की। और रूस और अमरिका की मिलीभगत से एक सोची- समझी साजिश के तहत प्रधानमंत्री शास्त्रीजी पर जोर डालकर उन्हें रूस आने का निमंत्रण दिया गया, जिसे शास्त्रीजी ने स्वीकार कर लिया। हमेशा उनके साथ यात्रा पर जाने वाली उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को बहला -फुसलाकर इस बात के लिए मनाया गया कि वे शास्त्रीजी के साथ रूस की राजधानी ताशकन्द न जायें।

सीधी- साधी ललिताजी मान भी गई। और वे शास्त्रीजी क साथ नहीं गईं, जिसका उन्हें मृत्युपर्यन्त पछतावा रहा। उधर जब समझौता वार्ता चली तो शास्त्रीजी ने ताशकंद समझौते की हर शर्तों को तो स्वीकार कर लिया, लेकिन पाकिस्तान के द्वारा जीते इलाकों को लौटाना उन्हें हरगिज स्वीकार नहीं था। शास्त्रीजी की एक ही पुरजोर जिद थी कि उन्हें बाकी सब शर्तें मंजूर हैं, परन्तु जीती हुई जमीन पाकिस्तान को लौटाना हरगिज़ मंजूर नहीं। काफी जद्दोजहेद के बाद शास्त्रीजी पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाकर ताशकन्द समझौते के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करा लिये गये, परन्तु लालबहादुर शास्त्री ने खुद अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में इस जमीन को वापस करने से इंकार कर दिया। समझौते पर उन्होंने यह कहते हुए हस्ताक्षर किये थे कि वे हस्ताक्षर जरूर कर रहे हैं पर यह जमीन कोई दूसरा प्रधानमंत्री ही लौटायेगा, वे नहीं। परन्तु पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घण्टे बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। यह आज तक रहस्य बना हुआ है कि क्या सच में शास्त्रीजी की मौत हृदयाघात के कारण हुई थी? आज भी कई लोग उनकी मौत की वजह जहर को ही मानते हैं। फिर भी ताशकन्द समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उसी रात उनकी मृत्यु हो जाने का कारण हार्ट अटैक बताया गया।

शास्त्रीजी की अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ शान्तिवन में नेहरूजी की समाधि के आगे यमुना किनारे की गई, और उस स्थल को विजयघाट का नाम दिया गया। उस समय से लेकर आज तक शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे हैं। उनके परिजनों के साथ ही बहुतेरे लोगों का मानना था और है कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं बल्कि जहर देने से ही हुई। इसकी पहली जांच अर्थात इन्क्वायरी राज नारायण ने करवाई थी, जो बताया जाता है कि बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गई। आश्चर्यजनक तथ्य है कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्टमार्टम भी नहीं हुआ। 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर०एन०चुघ और कुछ रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी, परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली।

2009 में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के तहत जानकारी मांगी, तो प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से यह कहा गया कि शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं, तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता। सबसे पहले सन 1978 में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक ललिता के आँसू में शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री ने उजागर किया था। उस समय 1978 में ललिताजी जीवित थीं। ताशकन्द में शास्त्रीजी के साथ गए एक पत्रकार व एक अन्य अंग्रेजी पुस्तक के लेखक कुलदीप नैयर ने भी इस घटना चक्र पर विस्तार से प्रकाश डाला है।

जुलाई 2012 में शास्त्रीजी के तीसरे पुत्र सुनील शास्त्री ने भी भारत सरकार से इस रहस्य पर से पर्दा हटाने की माँग की थी। मित्रोखोन आर्काइव नामक पुस्तक में भारत से संबन्धित अध्याय को पढ़ने पर ताशकंद समझौते के बारे में एवं उस समय की राजनीतिक गतिविधियों के बारे में विस्तरित जानकारी मिलती है। लेकिन सच में शास्त्रीजी की मृत्यु के रहस्यों पर से पर्दा आज तक नहीं उठ सकी है, और आज भी शास्त्रीजी की मृत्यु के रहस्यात्मक तथ्यों को उजागर करने की मांग उठती ही रहती है। खैर, अपनी उदात्त निष्ठा एवं क्षमता के लिए लोगों के बीच प्रसिद्ध विनम्र, दृढ, सहिष्णु एवं जबर्दस्त आंतरिक शक्ति वाले शास्त्रीजी को मरणोपरान्त वर्ष 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। आज भी भारत में शास्त्रीजी की जन्म तिथि दो अक्टूबर को और उनकी पुण्य तिथि 11 जनवरी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए सम्पूर्ण भारत श्रद्धापूर्वक स्मरण करता है, नमन करता है।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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