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24 की जीत का माध्यम “साष्टांग राजनीति”…?

भोपाल। “चौबीस की जंग” के फतेह करने के लिए इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने एक ऐसी नीति तैयार की है, जिसकी इजाद आजादी के बाद से लेकर अब तक किसी भी राजनीतिक दल या उसके नेता ने नहीं की थी, यह नीति है “साष्टांग दंडवत नीति”। मोदी चाहते हैं कि इस नीति से प्रतिपक्ष दल कुछ सीख ग्रहण करें और वह स्वयं मोदी जो आज देवी-देवताओं के या राष्ट्रीय धरोहरों के सामने कर रहे हैं, वही प्रतिपक्षी दल उनके (मोदी) सामने आकर करें और जहां तक प्रतिपक्षी दलों का सवाल है, वह मोदी की इस नीति का पालन ‘एकजुटता’ के लिए एक दूसरे के सामने कर रहे हैं।

वैसे ‘साष्टांग दंडवत’ का सीधी-सादी भाषा में अर्थ ‘आत्मसमर्पण’ है और मोदी जी अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यही नीति अपने आराध्य के सामने अपना कर मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं। अब यह नीति कितनी और कहां तक कारगर सिद्ध होती है? इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में हैं, किंतु यह तय है कि देश के मतदाताओं पर इसका प्रभाव तो पड़ेगा ही।

मोदी जी ने अब तक अपने आराध्यों के सामने तीन बार ‘साष्टांग दंडवत’ किया है, पहली बार आज से 9 साल पहले पहली बार प्रधानमंत्री बनने के पहले 20 मई 2014 को संसद के मुख्य द्वार पर साष्टांग दंडवत किया था, उस नजारे को देखकर कई लोग भावुक हो गए थे, दूसरी बार उन्होंने 5 अगस्त 2020 को उन्होंने अयोध्या के प्रस्तावित राम मंदिर का भूमि पूजन किया था और उससे पहले हनुमान गढ़ी मंदिर में पूजा अर्चना की थी और रामलला के सामने ‘साष्टांग प्रणाम’ किया था, मोदी जी देश के पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने अयोध्या जाकर रामलला के दर्शन किए थे। और तीसरी बार साष्टांग दंडवत मोदी जी ने 2 दिन पूर्व 24 मई को नए संसद भवन में सैंगोल के सामने किया और हाथों में राजदंड थामकर तमिलनाडु से आए तमाम संतों से आशीर्वाद ग्रहण किया। अब तक के 3 प्रषंग है जब मोदी जी ने श्रद्धावनत होकर साष्टांग प्रणाम किया।

अब मोदी जी की यह साष्टांग नीति उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति में कितनी सहायक सिद्ध होती है, यह तो कुछ महीनों बाद चुनाव के परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा, किंतु फिलहाल इस नीति से भाजपा पर पुलिस और उत्साही अवश्य नजर आ रही है, भाजपा को उम्मीद है कि इस नीति का असर कर्नाटक में चाहे नहीं हुआ हो किंतु अगले 4 महीने बाद 3 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव पर अवश्य होगा। वैसे भी अब यह पूरे देश में आमतौर पर महसूस किया जा रहा है कि भारत की पूरी राजनीति और राजनीतिक दल भावी चुनाव पर केंद्रित हो गए हैं, केंद्र सहित पूरे देश की राज्य सरकारों ने जनहित के कार्य बंद कर अपना पूरा ध्यान चुनाव पर केंद्रित कर लिया है, फिर कर्नाटक के चुनाव परिणामों से भाजपा भी पूरी तरह सतर्क हो गई है और स्वयं प्रधानमंत्री की इस दिशा में सक्रियता बढ़ गई है, जिसका ताजा उदाहरण भाजपा मुख्यमंत्रियों के साथ उनकी गुफ्तगू है।

वैसे अभी राजनीतिक दलों की “अग्नि परीक्षा” में फिलहाल कुछ महीनों की अवधि शेष है, इस दौरान कौन सा दल, कौन सी नीति अपनाता है यह भी उजागर होना है और यह भी सबके सामने आना है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी एकजुटता की नीति को कितना आगे बढ़ा पाते हैं और अपने मंसूबों में सफल हो भी पाते हैं या नहीं? इस प्रकार यदि यह कहा जाए कि अगले छह महीनों में देश का “राजनीतिक सर्कस” अपने चरम पर रहेगा और इस सर्कस का जोकर कोन होगा व क्या करेगा? यह सब कुछ कुछ ही दिनों में सामने आना है, किंतु यह तो तय है कि अब जनहित के कार्यों को मूर्त रूप देने का वक्त गया, अब तो नए वादों (संकल्पों) का दौर आने वाला है और उसी की स्पर्धा दर्शनीय होगी।

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