भोपाल। मध्यप्रदेश में चार उपचुनाव के हाल ये हैं कि पहले प्रबंधन और फिर मतदान के बाद सब उम्मीदों के आसमान पर हैं। नतीजों से सरकार का बनना बिगड़ना कुछ नही है फिर भी जगह जगह जीत के ख्याली पुलाव पक रहें है तो कहीं उम्मीदें कुलांचे मारती महसूस हो रही हैं। मतदान में सामान्य से सोलह प्रतिशत की भारी गिरावट चौकाने वाली है। परिणाम नेताओं के कद में घटबढ़ अवश्य कर सकते हैं। किसी की लंबी होती पारी षड्यंत्रों का ग्रहण लगते ही लंबी होती परछाईं की तरह दिख सकती है तो किसी के राजनीतिक टेकऑफ के साथ ही इमरजेंसी लेंडिंग के निर्देश की कवायद शुरू हो सकती है। madhya pradesh by election
राजनीति की रेस में स्टंटबाजी और ओवरटेक के अपने खतरे हैं। जिसे खतरों के खिलाड़ी ही खेल पाते हैं। कांग्रेस में कमलनाथ - दिग्विजय सिंह की जोड़ी दमोह उप चुनाव की भांति भाजपा की भितरघात पर जीत के हसीन सपने देख रही है तो भाजपा सीएम शिवराजसिंह चौहान की सादगी और जनसंवाद से सन्तुष्ट है। साथ ही वह अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा की युवा टीम के जोशखरोश को लेकर कामयाबी के तानेबाने बुन है। इस बीच असंतोष की आग पर सीएम चौहान के विकास के आश्वासन और अपनेपन के साथ टीम शर्मा ने समन्वय की बौछारें की हैं। नतीजे बताएंगे कि इसका कितना असर हुआ है।
उपचुनाव के रिजल्ट अड़तालीस घंटे बाद दो नवंबर को आ रहे हैं। अभी एक दिन अटकलों और अनुमान का है सो उसकी रस्म अदायगी के लिए एक चर्चा का ज़िक्र कर रहा हूं। करीब तीन महीन पहले की बात है भाजपा के एक बड़े नेता ने कहा था कि खंडवा लोकसभा से लेकर जोबट, पृथ्वीपुर और रैगांव विधानसभा उपचुनाव में भाजपा की हालात ठीक नही है। जीतने के कम हारने के हालात ज्यादा है। पुराने और पचास-पचपन की उम्र पार कर चुके कार्यकर्ताओं की अनदेखी भी उनके दावे का सबसे खास आधार थी।
इस वजह से इन उपचुनावों का महत्व बढ़ जाता है। इनके नतीजे आने वाले आमचुनाव के सेम्पल सर्वे की तरह होंगे। पार्टी रणनीतिकारों के लिए ये सब जनता और कार्यकर्ताओं का मूड भांपने में मददगार साबित होंगे। अर्थात आने वाले दिन भाजपा में बहुत खास हो सकते हैं।
परिपक्व, निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, संगठन के पदों से विदाई की चर्चा के बीच बड़ी बात यह है कि इस पर दिल्ली से लेकर भोपाल और मंडल तक के नेताओं ने किसी तरह की कोई अधिकृत प्रतिक्रिया नही दी। न तो सफाई दी और न समझाइश। इससे अहम और वहम भी बढ़ते दिख रहे हैं। पीढ़ी परिवर्तन का फार्मूला क्या हो और उस पर कैसे अमल किया जाए ? उपचुनाव के नतीजे यह सब तय करने में सहायक साबित हो सकते हैं।
इन उपचुनावों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बुंदेलखंड से लेकर विंध्य और निमाड़ के साथ मालवा की सरहद को भी छूते हैं। चुनाव में खबरें यह भी है कि कार्यकर्ताओं के साथ एनजीओज को भी जिम्मेदारी सौंपी गईं थी। इस तरह के प्रयोग पहले भी होने की बात आई थी। ये सब वैसा ही है जैसे प्रत्याशी चयन में कार्यकर्ताओं से राय शुमारी के साथ प्राइवेट एजेंसियों को सर्वे का देकर उनकी रिपोर्ट पर उम्मीदवार तय करना। इसका नतीजा यह हुआ कि कार्यकर्ताओं की अनदेखी शुरू हो गई। एजेंसियों को सभाओं में भीड़ जुटाने से लेकर प्रचार करने तक का काम दिया जाना लगा। अब यह प्रयोग बूथ मैनेजमेंट तक जाने की खबरें हैं।
कांग्रेस में सीन इसके विपरीत हैं। वहां बुजुर्ग नेताओं के स्थान पर युवाओं की डिमांड ज्यादा हो रही है। लेकिन दमोह की सफलता के बाद परिवर्तन की उम्मीद खत्म सी है। यदि उपचुनाव में कांग्रेस उसकी दो विधानसभा सीट जोबट और पृथ्वीपुर को बचाने में सफल रहती है तो लाख आलोचना के बाद भी पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ पीसीसी चीफ और नेताप्रतिपक्ष के पद पर अगंद की तरह जमे दिखे तो किसी को हैरत नही होगी। इसके कांग्रेस के युवा से प्रौढ़ और फिर बुढ़ापे की तरफ बढ़ रहे नेताओं के लिए प्रदेश अध्यक्ष व नेताप्रतिपक्ष बनने के दिन महीनों से आगे निकल वर्षों की प्रतीक्षा में बदल जाएंगे। पुत्रों के भविष्य के हिसाब से कमलनाथ और दिग्विजयसिंह को यह सब सुविधापूर्ण भी होगा। दरअसल नकुलनाथ और जयवर्धन सिंह अभी युवावस्था में हैं और जितने दिन भी श्री कमलनाथ दोनों पदों पर बने रहेंगे उन्हें हर दिन राजनीतिक रूप से लाभ ही होगा। पदों के दावेदार प्रौढ़ नेता बुढ़ापे की तरफ अग्रसर होते जाएंगे।
मप्र उप चुनाव: मतदान के बाद सब उम्मीद के आसमान पर
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