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सरकार भाड़े…. राजनीति भाड़े…. राजनेता जलेबी झाड़े…?

भोपाल । आजकल राजनीति में भी “आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया” का बोलबाला है, केंद्र से लेकर राज्य तक की लगभग सभी सरकारें इसी लीक पर चल रही है, आज यह सभी सरकारें ना राजनीतिक रूप से सुदृढ़ है और ना ही आर्थिक रूप से, हाल ही में सामने आई एक रिपोर्ट से जहां केंद्र सरकार के जीएसटी संग्रह में काफी इजाफा उजागर हुआ है, वही तिमाही में केंद्र की देनदारी में भी वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है, यही स्थिति राज्य सरकारों की भी है, यदि हम हमारे मध्यप्रदेश की ही बात करें, तो हमारे इस चुनावी साल में सरकारी खर्च बढ़ने से काफी विकट स्थिति पैदा होगी और हमारे राज्य के खर्च की बात तो छोड़िए सिर्फ कर्ज चुकाने के लिए भी लेना पड़ेगा, करीब 55000 करोड़ का कर्ज। यही स्थिति करीब-करीब हर राज्य की है देश का कोई ऐसा राज्य नहीं है जो आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ होकर कर्ज मुक्त हो? फिर वह चाहे किसी भी राजनीतिक दल द्वारा संचालित क्यों ना हो?

हमारे मध्य प्रदेश की स्थिति तो यह है कि राज्य के कुल बजट के मुकाबले 21% ज्यादा राज्य सरकार पर कर्ज है और यदि हम हमारे पड़ोसी कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान की बात करें तो वह राज्य अपने शिक्षा के बजट का महज 14 फ़ीसदी खर्च करके 10 राज्यों में पांचवें क्रम पर है और इसी राज्य पर सबसे अधिक उधारी है। मध्यप्रदेश जिसमें कुछ ही महीनों बाद चुनाव होना है इस पर विकास कार्यों का इतना दबाव है कि इसे विगत 3 महीनों में ही 6 बार कर्ज लेना पड़ा है। इसने इस साल के प्रारंभ में जनवरी में दो हजार करोड़, फरवरी के प्रारंभ में 3000 करोड़,, फरवरी के मध्य में फिर 3000 करोड़, फरवरी के तीसरे हफ्ते में फिर 3000 करोड़, फरवरी के आखिरी हफ्ते में फिर 3000 करोड़, इसके बाद मार्च के पहले हफ्ते में फिर 3000 करोड़ का कर्ज लिया। राज्य के नए वित्तीय वर्ष का बजट 3.14 लाख करोड़ रुपए है और 3.23 लाख करोड़ राज्य सरकार की देनदारियों है, जिसका 18445.91 करोड़ रुपए की राशि का भुगतान ब्याज के रूप में हो रहा है, इसके साथ मजे की बात यह है कि राज्य सरकार ने 2021-22 वित्तीय वर्ष में 39000 करोड रुपए खर्च ही नहीं किए और जहां तक केंद्र का सवाल है वह राज्यों को उनके अधिकार की विकास राशि तक का भुगतान नहीं कर पा रहा है, केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए केंद्र ने मध्यप्रदेश को ही करीब 50 फ़ीसदी राशि का भुगतान नहीं किया। मध्य प्रदेश सहित करीब करीब सभी राज्यों की आर्थिक स्थिति ऐसी विकट है कि वह कई बार अपने कर्मचारियों को मासिक वेतन का भुगतान नहीं कर पाते। करीब करीब सभी राज्य भारी आर्थिक संकट और कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं।

यह तो हुई सरकार के भाड़े पर होने की बात अब यदि हम मध्य प्रदेश सहित अन्य राज्यों की राजनीति की बात करें तो वह भी भाड़े पर अर्थात किसी के एहसानों के बोझ तले दबी हुई है, हम दूर कहां जाएं, हमारे मध्य प्रदेश की ही बात करें तो यहां की शिवराज सरकार के बनने की कहानी किससे छुपी हुई है। विगत 4 साल 5 माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला था, कांग्रेस की सरकार कमलनाथ जी के नेतृत्व में बनी थी और कांग्रेसी विग्रह के कारण सरकार शिवराज जी की झोली में आ गई थी, कांग्रेस से नाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने दो दर्जन समर्थक विधायकों से दलबदल करवा कर कमलनाथ को सत्ता से बाहर कर शिवराज की सरकार बनवा दी थी और स्वयं भी केंद्र में मंत्री बन गए थे। अर्थात यहां आर्थिक के साथ राजनीतिक रूप से भी भाड़े की सरकार चल रही है, यही स्थिति अन्य पड़ोसी राज्यों की भी राजनीतिक रूप से है, जहां की सरकारें बहुमत पर नहीं समझोतो पर टिकी हुई है।

अब रही बात राजनेताओं की तो वे भाड़े की सरकार और भाड़े की राजनीति के बल पर सत्ता की जलेबी झाड़ रहे हैं और उन्हें इससे कोई रोकने वाला नहीं है।

इसी तारतम्य में यदि लोकतंत्र का आधार स्तंभ ‘लोक’ अर्थात आम मतदाता की बात की जाए तो अब उसके मत का भी कोई महत्व नहीं रहा, क्योंकि वह मत किसे दे रहा है और सत्तासीन कौन हो रहा है? इस प्रकार इस जगत प्रसिद्ध कहावत “घर भाड़े, दुकान भाड़े, छोरा-छोरी जलेबी झाड़े” के आधुनिक स्वरूप में प्रजातंत्र का भी जमकर मजाक उड़ाया है।

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