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मंगलकारी और सृष्टिरचियता शिव

श्वेताश्वतरोपनिषद के अनुसार सृष्टि के आदिकाल में जब सर्वत्र अंधकार ही अंधकार था। न दिन न रात्रि, न सत् न असत् तब केवल निर्विकार शिव (रुद्र) ही थे। शिव पुराण में  भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि ‘एक एवं तदा रुद्रो न द्वितीयोऽस्नि कश्चन’ अर्थात सृष्टि के आरम्भ में एक ही रुद्र देव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता। वे ही इस जगत की सृष्टि करते हैं, इसकी रक्षा करते हैं और अंत में इसका संहार करते हैं।

पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार आदिदेव महादेव शिव को सभी देवों में सर्वोच्च और समस्त सृष्टि का आदि कारण माना गया है और कहा गया है कि उन्हीं से ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त सृष्टि का उद्भव होता है। ऋग्वेद में रुद्र के रूप में वर्णित देवता ही कालान्तर में महानतमें शिव के रूप में परिणत हो गये। यजुर्वेद 16/41 में शिव की प्रार्थना में शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं-

नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च..

– यजुर्वेद 16/41

अर्थात- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मंगलकारी और अत्यन्त मंगलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं, वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।

यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय के 2, 5,49 आदि मन्त्रों से भी निराकार शिव की पुष्टि होती है। कैवल्योपनिषद 1/8, माण्डूक्योपनिषद 7, श्वेताश्वेतर 4/14, 6/9 में भी शिव को निराकार ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि वह जगत का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला, शांत, आनन्दमय आदि कहा गया है।

निराकार शिव से सम्बन्धित मन्त्र यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय में अंकित हैं, और इस अध्याय के मन्त्रों में उल्लिखित शब्दों से यह स्पष्ट होता है कि योगी शिव के नाम, स्वरूप, आयुध व उनसे सम्बन्धित कई वस्तुओं और उनकी महिमा मंडन का मुख्य स्रोत यही यजुर्वेद का सोलहवाँ अध्याय ही है, और योगी शिव के कल्पना सृजन का मुख्य आधार यही है। इसमें रूद्र और शिव का एक साथ उल्लेख हुआ है-

या ते रुद्र शिवा तनूरघोरापापकाशिनी ।

तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि । । यजुर्वेद 16/2

अर्थात- हे रुद्र और सत्योपदेशों से सुख पहुंचाने वाले परमात्मन् ! जो तेरी शिवा अर्थात कल्याणकारी, अघोरा अर्थात  उपद्रवरहित, अपापकाशिनी अर्थात धर्म का प्रकाश करने वाली काया है, उस शान्तिमय शरीर से आप हमें देखें, अर्थात हमारे लिए कल्याणकारी आदि होइए, और अपने उपदेशों से हमें सुखों की ओर अग्रसर कीजिए।

पुराणादि ग्रन्थों में शिव को महादेव के रूप में स्वीकार किया गया है। श्वेताश्वतरोपनिषद के अनुसार सृष्टि के आदिकाल में जब सर्वत्र अंधकार ही अंधकार था। न दिन न रात्रि, न सत् न असत् तब केवल निर्विकार शिव (रुद्र) ही थे। शिव पुराण में  भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि ‘एक एवं तदा रुद्रो न द्वितीयोऽस्नि कश्चन’ अर्थात सृष्टि के आरम्भ में एक ही रुद्र देव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता। वे ही इस जगत की सृष्टि करते हैं, इसकी रक्षा करते हैं और अंत में इसका संहार करते हैं। रु का अर्थ है-दुःख तथा द्र का अर्थ है-द्रवित करना या हटाना अर्थात दुःख को हरने (हटाने) वाला। शिव की सत्ता सर्वव्यापी है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्मरूप में शिव का निवास है। शिवभक्त कहते हैं-  मैं शिव, तू शिव सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं। सब चाहते हैं अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है आनंद। शिव का अर्थ है-परम मंगल, परम कल्याण। इसी आनंद, परम मंगल, परम कल्याण की आश में शिवभक्त श्रद्धालु प्रत्येक मास के शिवरात्रि, महाशिवरात्रि, श्रावण के मास और शिव से सम्बन्धित अन्य पर्व- त्योहारों के अवसर पर शिवाराधना, शिवोपासना, शिव- पूजन, शिव के जलाभिषेक, दुग्धाभिषेक और प्रार्थना में अपना सर्वस्व लुटाने से गुरेज नहीं करते।

भारतीय मत में ब्रहमा को सृष्टि का रचयिता, विष्णु को पालक और शिव को संहारक माना गया है, परन्तु शक्ति तो मूल रूप में एक ही है, जो तीन पृथक- पृथक रूपों में कार्य करती है। वह मूल शक्ति शिव ही हैं। स्कंद पुराण के अनुसार त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु, शंकर (त्रिमूर्ति) की उत्पत्ति माहेश्वर अंश से ही होती है। मूल रूप में शिव ही कर्त्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं। सृष्टि का आदि कारण शिव है। शिव ही ब्रह्म हैं। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार ये भूत जिससे पैदा होते हैं, जन्म पाकर जिसके कारण जीवित रहते हैं और नाश होते हुए जिसमें प्रविष्ट हो जाते हैं, वही ब्रह्म है। वही शिव हैं। उल्लेखनीय है कि शिव के पर्यायवाची रूप में प्रचलित शब्द शंकर ब्रह्मा और विष्णु की भांति एक देवयोनि है। ये देवयोनि के शंकर शिव के ही अंश हैं। पार्वती, गणेश, कार्तिकेय आदि के परिवार वाले देवता का नाम शंकर है। शिव आदि तत्त्व है, वह ब्रह्म है, वह अखण्ड, अभेद्य, अच्छेद्य, निराकार, निर्गुण तत्त्व है। वह अपरिभाषेय है, वह नेति-नेति है। शिव की स्वतंत्र निजी शक्ति के दो शाश्वत रूप विद्या तथा अविद्या हैं। इस प्रापंचिक ब्रहमाण्ड व्यवस्था में परमात्मा के पारमार्थिक आनंदमय स्वरूप को प्रकट करने वाली शक्ति विद्या कहलाती है तथा परमात्मा की प्रापंचिक विभिन्नताओं के आवरण से अवगुंठित शक्ति अविद्या कहलाती है। परमात्मा की अभिन्न शक्ति के ही दोनों रूप हैं। नाना आकारों में उसकी ही अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति उसकी शक्ति का विलास है, लीला है। यह ब्रह्माण्ड परमात्मा की निजी शक्ति का व्यावहारिक पक्ष है। पारमार्थिक पक्ष में परमात्मा पूर्णतया एक है-एकं द्वितीयो नास्ति। उसके चरम सत और चित में कोई भेद नहीं, उसके स्वभाव में कोई द्वैत एवं सापेक्षता नहीं।

यहां वह चरम अनुभव की अवस्था में है, जिसमें स्वनिर्मित ज्ञाता-ज्ञेय का कोई भेद नहीं है। परमात्मा का यह स्वरूप प्रकाश स्वरूप है। लेकिन उसी परमात्मा की शक्ति का विमर्श पक्ष उसे व्यावहारिक स्तर पर आत्म चेतन बना देता है। इसिलए विमर्श-शक्ति शिव की आत्म चेतनता पर आत्मोद्घाटन की शक्ति मानी जाती है। यहां परमात्मा ज्ञाता- ज्ञेय के रूप में अपने- आपको विभाजित कर लेता है। परमात्मा की यह वस्तुगत आत्मचेतना विभिन्न स्तरों के भोक्ता या भोग्य पदार्थों के रूप में दृष्टिगोचर होती है। काल, दिक, कारणत्व एवं सापेक्षकता चारों परमात्मा के वस्तुगत रूप हैं। परमात्मा की विमर्श शक्ति को माया शक्ति भी कहा जाता है। शिव शक्ति में निहित हैं। चन्द्र और चन्द्रिका के समान दोनों अभिन्न हैं। पौराणिक ग्रन्थों में शिव को शक्ति की आत्मा कहा गया है और शक्ति को शिव का शरीर।

शिव को शक्ति का पारमार्थिक रूप कहा गया है और शक्ति को शिव का प्रापंचिक रूप। शिव से भिन्न और स्वतंत्र शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है और शक्ति की अवहेलना करने पर शिव का आत्म प्रकाशन संभव नहीं है। शक्ति के कारण ही शिव स्वयं सर्व शक्ति मान, सर्वज्ञानी, सर्वानंद, सगुण परमेंश्वर, जगत का सर्जक, पालक और भोक्ता बन जाता है। निज शक्ति से रहित शिव कोई भी कार्य नहीं कर सकते, किन्तु निज शक्ति सहित वे समस्त स्तरों के अस्तित्वों के सर्जक एवं प्रकाशक बन जाते हैं। शिव एक साथ स्रष्टा एवं सृष्टि आधार और आधेय आत्मा और शरीर हैं। शक्ति एक को अनेक करती है और पुनः अनेक को एक में मिला देती है। शिव का विस्तार सृष्टि है, शिव का संकुचन प्रलय है। अतः शिव के निर्गुण एवं सगुण दोनों ही स्वरूप स्वीकार्य हैं। कहा गया है-

यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।

अर्थात -जो सृष्टि में है वही पिण्ड में है।

मान्यता है कि समस्त शरीरों का अन्तिम आधार परम आध्यात्मिक शक्ति अपने मूल रूप में अद्वैत परमात्मा शिव से अभिन्न एवं तद्रूप है। समस्त शरीर एक स्वतः विकासमान दिव्य शक्ति की आत्माभिव्यक्ति है। वह शक्ति अद्वैत शिव से अभिन्न है। वही आत्म चैतन्य आत्मानंद, अद्वैत परमात्मा अपने आत्म रूप में स्थित होने पर शिव कहलाती है। और सक्रिय होकर अपने को ब्रहमाण्ड रूप में परिणत कर लेने पर दिक, काल सीमित असंख्य पिण्डों की रचना, विकास तथा संहार में प्रवृत्त- प्रवृद्ध होती है, तथा अपने को अनेक रूपों में व्यक्त करती है, तब शक्ति कहलाती है। यह शक्ति पिण्ड में कुण्डलिनी के रूप में स्थित है। यही शक्ति महाकुण्डलिनी के रूप में ब्रह्माण्ड में स्थित है। इस प्रकार परमात्मा, स्वयं को व्यष्टि-शरीरों में विश्व रूप से प्रगट करने, प्रत्येक सीमित व्यष्टि शरीर में या घट-घट में चित स्वरूप में विराजने वाला परमेश्वर का अंश आकार की सीमाओं के कारण ही आत्मा, जीवात्मा का रूप धारण कर दुःख- सुख और संताप भोगती है।

 

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