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मराठी के कवि, संत एकनाथ

मराठी भाषा, उर्दू-फारसी से दब गई थी। दूसरी ओर संस्कृत के पंडित देशभाषा मराठी का विरोध करते थे। इन्होंने मराठी के माध्यम से ही जनता को जागृत करने का बीड़ा उठाया। एकनाथ की प्रमुख रचनाएँ चतुश्लोकी भागवत, पौराणिक आख्यान और संतचरित्र, भागवत, रुक्मिणी स्वयंवर, भावार्थ रामायण मानी जाती हैं।

शान्तिब्रह्म, ज्ञानी एकनाथ महाराज (1533- 1590) को पूरे महाराष्ट्र में बतौर संत जाना जाता है। संत भानुदास के कुल में उत्पन्न एकनाथ ने संत ज्ञानेश्वर द्वारा प्रवृत्त साहित्यिक तथा धार्मिक कार्यों का सब प्रकार से उत्कर्ष कर महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि पूरे भारत के एक महान संत के रूप में ख्याति प्राप्त की। ये संत भानुदास के परपौत्र थे। संत एकनाथ के जीवन के बारे में समुचित जानकारी नहीं मिल पाती, क्योंकि उनके बारे में कहीं पर भी कोई लिखित जानकारी उपलब्ध नहीं। लेकिन ऐसी मान्यता है कि शांति उनका जन्म विक्रम संवत 1590 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के पैठन गाँव में देशस्थ ऋग्वेदी परिवार एक कुलीन ब्राह्मण (कुलकर्णी) के घर भारतीय पंचांग (कैलेंडर) के अनुसार चैत्र कृष्ण षष्ठी को हुआ था, जिन्होंने सोलहवीं सदी में अपने जीवन अंतिम काल तक भक्ति आन्दोलन को बढ़ावा दिया।

कतिपय विद्वान उनकी जन्म तिथि 8 नवम्बर 1533 ईस्वी मानते हैं। उनके पिता का नाम सूर्यनारायण तथा माता का नाम रुक्मिणी था। ऐसा विश्वास है कि गोस्वामी तुलसीदास के समान मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण कुछ महीनों के बाद ही इनके माता पिता की मृत्यु हो गई थी। इसलिए बचपन से ही एकनाथ को उनके दादा ने पाला था। चक्रपाणि और सरस्वती उनके दादा और दादी थे। उनके परदादा भानुदास भी वारकरी संप्रदाय से सम्बन्धित संत थे। संत जनार्दन एकनाथ के गुरु थे और वे सूफी संत थे। एकनाथ को बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक ज्ञान और हरिकीर्तन का शौक था। उन्हें अल्पवय में ही कंधे पर वीणा के रूप में तख्ती लिए भगवान के सामने जप में लीन बैठे देखा जाता था। बालक एकनाथ स्वभाव से श्रद्धावान तथा बुद्धिमान थे। बारह वर्ष की आयु में एकनाथ ने देवगढ़ (देवगिरी) के सद्गुरु जनार्दन स्वामी की ब्रह्मनिष्ठा, विद्वत्ता, सदाचार और भक्ति देखकर उनकी ओर आकृष्ट हुए और उन्हें गुरु स्वीकार कर उनके शिष्य हो गए।

चालीस गाँव के मूल निवासी जनार्दन का उपनाम देशपांडे था। वे एक महान भक्त थे। अपने गुरु जनार्दन पंत से एकनाथ ने वेदांत, योग, भक्ति योग सीखा। ज्ञानेश्वरी, अमृतानुभव, श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों का अध्ययन किया और उनका आत्मबोध जागृत हुआ। उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ। ऐसी मान्यता है कि संत एकनाथ ने गुरु की सेवा के लिए अथक परिश्रम किया। वे नाथों के द्वार पर द्वारपाल के रूप में खड़े रहते थे। उन्होंने गुरु कृपा से अपने जीवनकाल में भगवान दत्तात्रेय का दर्शन भी किया था। संत एकनाथ का जीवन आत्म-साक्षात्कार, पूर्णगुरु की कृपा और भगवान दत्तोत्रय के दर्शन से धन्य हो गया। संत एकनाथ ने अपनी एक आरती में इस अद्भुत दर्शन का वर्णन किया है। गुरु के साथ तीर्थ यात्रा करने के बाद संत एकनाथ ने गुरु की आज्ञानुसार गृहस्थाश्रम स्वीकार किया। एकनाथ का विवाह पैठण के निकट वैजापुर की गिरिजाबाई से हुआ। एकनाथ और गिरिजाबाई की दो पुत्री- गोदावरी व गंगा और एक पुत्र हरि पंडित था।

गृहस्थ जीवन में एकनाथ की दिनचर्या एक संत के समान थी। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर पहले प्रात:स्‍मरण और तत्‍पश्‍चात गुरु-चिन्‍तन करना। शौचादि एवं गोदावरी-स्‍नान से निवृत्‍त हो, सूर्योदय से पूर्व संध्‍या-वन्‍दन करना। सूर्योदय के बाद घर लौटकर देवपूजन, ध्‍यान-धारणा आदि करके श्रीमदभगवद्गीता- भागवत पुराणादि ग्रन्‍थों का पाठ अथवा श्रवण करना। मध्‍याह्न में पुन: गोदावरी-घाट पर जाकर संध्‍या-तर्पण, ब्रह्मयज्ञ करना और तदनन्‍तर घर लौटकर बलिवैश्‍वदेव तथा अतिथि-अभ्‍यागतों के पूर्ण सत्‍कार के बाद स्‍वयं भोजन करना। तत्‍पश्‍चात विद्वानों और भक्‍तों के साथ बैठकर आत्‍मचर्चा करना। सायंकाल फिर गोदावरी तट पर जाकर संध्‍या-वन्‍दन करना और वहाँ से लौटकर धूप-दीप के साथ भगवान की आरती और स्‍तोत्रपाठ करना। इसके अनन्‍तर कुछ हल्का-सा आहार करके मध्‍य रात्रि तक भगवत्‍कीर्तन करना अथवा वेदोपनिषद-पुराणादि का अध्‍ययन करना। मध्‍य रात्रि से लेकर चार घंटे तक शयन करना। यही उनकी दिचर्या में शामिल थी।

एकनाथ के यहाँ सदा बड़ी भीड़-भाड़ रहती थी, फिर भी इनका सारा काम मजे में चलता था। अन्‍न-दान और ज्ञान-दान का प्रवाह इनके यहाँ निरन्‍त बहा ही करता था। क्षमा, शान्ति, समता, भूतदया, निरहंकारता, निस्‍संगता, भक्तिपरायणता आदि समस्‍त दैवी सम्‍पत्तियों के निधान, एकनाथ महाराज के दर्शनमात्र से असंख्‍य स्‍त्री-पुरुषों के पाप-ताप-संताप नित्‍य निवारित होते थे। इनका जीवन बद्धों को मुमुक्षु बनाने, मुमुक्षुओं को मुक्‍त करने और मुक्‍तों को पराभक्ति का परमानन्‍द दिलाने के लिए ही था। इनके परोपकारमय नि:स्‍पृह साधु जीवन की अनेकों घटनाएं हैं, जिनसे इनके विविध दैवीगुण प्रकट होते हैं। उनके जीवन की कुछ घटनाएँ यथा, एक अछूत के खोए हुए बेटे को हरिजनवाड़ा ले जाना, अछूतों को अपने पिता के श्राद्ध में ब्राह्मण के लिए पका हुआ भोजन खिलाना, गधे को गंगोदक खिलाना और पत्थर के नंदी को घास से भरना यह दर्शाने के लिए काफी है कि उन्होंने व्यापक अद्वैत वेदांत का अपना शाब्दिक अर्थ निर्मित किया गया था।

संत एकनाथ ने अपने कर्मों से लोगों को मनुष्य में ईश्वर के दर्शन की शिक्षा दी। रंजल्या गंजली के घर जाकर लोगों की सेवा की। और समाज में भक्ति का मार्ग भी प्रशस्त कर जीवन भर जातिगत भेदभाव को खत्म करने का प्रयास किया। एकनाथ ने कर्मकांड और कर्मठ होते हुए जगदंबा का उपयोग समाज को सुधारने के लिए किया। एकनाथ ने अभंगराचन, भारुड़, जोगवा, गवलनी, गंडाल की सहायता से बाए दर भोक कहकर जनजागृति की। संत एकनाथ संतकवि, पंतकवि और तांतकवि थे। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से जनता का मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन किया। वह स्वयं को एक जनार्दन कहते थे, और एक जनार्दनी उनका आदर्श वाक्य है।

महाराष्ट्र की अत्यंत विषम अवस्था में इन्होने साहित्यसृष्टि की। उस समय मराठी भाषा, उर्दू-फारसी से दब गई थी। दूसरी ओर संस्कृत के पंडित देशभाषा मराठी का विरोध करते थे। इन्होंने मराठी के माध्यम से ही जनता को जागृत करने का बीड़ा उठाया। एकनाथ की प्रमुख रचनाएँ चतुश्लोकी भागवत, पौराणिक आख्यान और संतचरित्र, भागवत, रुक्मिणी स्वयंवर, भावार्थ रामायण मानी जाती हैं। इन्होंने मराठी एवं हिन्दी में कई सौ अभंग, गवलानी  भी लिखे। इन्होंने हस्तामलक, शुकाष्टक, स्वात्मसुख, आनंदलहरी, गीतासार, चिरंजीव पद इत्यादि आध्यात्मिक विवेचन पर कृतियों एवं लोकगीतों (भारुड) का भी लेखन किया। श्रीमद्भागवत पुराण एकादश स्कंध की मराठी टीका- चतुष्लोकी भागवत एकनाथ की सर्वोत्कृष्ट और प्रथम रचना है। यह ग्यारहवें स्कंद पर भाष्य है।

अपने समाधिस्थ होने अर्थात अपनी निर्वाण तिथि का भी उन्हें पूर्व से ही भान था। एकनाथ ने अपने घर में रहने वाले श्रीखंडी से अपने प्रयाण का दिन बताते हुए कहा था –चैत्र कृष्ण षष्ठी (महाराष्ट्र में फाल्गुन वाद्य षष्ठी) मेरे गुरुजी का जन्मदिन और निर्वाण दिवस है। फिर हमारा जन्म दिन भी है, हमारा निर्वाण भी इसी दिन होगा, क्योंकि मेरा कार्य अब समाप्त हो गया है। और वास्तव में परोपकारमय नि:स्‍पृह साधु जीवन से, उपदेश से, दान से सबका उपकार करते हुए गृहस्‍थाश्रम का दिव्‍य आदर्श सबके सामने रखकर अन्‍त में संवत 1656 विक्रमी (1599 ई.) की चैत्र कृष्‍ण षष्‍ठी को एकनाथ ने गोदावरी तीर पर अपना शरीर छोड़ा। तब से इस दिन को एकनाथ षष्ठी के नाम से जाना व मनाया जाता है। इस दिन पैठण में उनका समाधि उत्सव मनाया जाता है।

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