बेबाक विचार

इस्लाम में स्वतंत्र चिंतन की मांग

Byशंकर शरण,
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इस्लाम में स्वतंत्र चिंतन की मांग
हैरिस सुलतान की पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड:  ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’  में वैज्ञानिक तर्कों से इस्लामी विचारों और परंपराओं की समालोचना है। उन की पड़ताल के बिन्दु हैं - 1. क्या अल्लाह के होने का कोई सबूत है?  2. क्या इस्लाम में बताई गई नैतिकता अच्छी है?  3. क्या इस्लाम में दी गई जानकारियाँ सही हैं ? उन्होंने पाया कि अल्लाह की तमाम बातों से तो बच्चे जैसी वह मानसिकता मालूम होती है, जो मामूली बात पर भी रूठने, चिल्लाने, धमकी देने लगता हो: ‘मेरी पूजा करो, वरना मार डालूँगा’! उस में अपना अस्तित्व दिखा सकने की भी क्षमता या बुद्धि नहीं है। अल्लाह छिपा हुआ है, मगर शिकायत करता है कि हम उसे नहीं मानते। फिर इस गॉड, यहोवा या अल्लाह ने अपने संदेशवाहक (प्रॉफेट) को एक नामालूम से अरब क्षेत्र में ही क्यों भेजे? बड़े-बड़े इलाकों अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, चीन, आदि में रहने वाले करोड़ों लोगों को संदेश देना क्यों नहीं सूझा? इन महाद्वीपों ने तो सदियों तक मुहम्मद का नाम भी नहीं सुना। तब उन करोडों निर्दोष लोगों को अल्लाह ने अपने संदेश से वंचित, और इस प्रकार, इस्लाम न मानने से जहन्नुम का भागी क्यों बनाया? अतः या तो इस्लाम न मानने में कोई बुराई नहीं, न कोई जहन्नुम है, या फिर अल्लाह को ही दुनिया का पता नहीं है! फिर, कुरान स्पष्ट नहीं है। सुन्नी और शिया अपना-अपना मतलब निकालते हैं। दोनों सही नहीं हो सकते। यह शुरू से चल रहा है। यानी कुरान आसानी से गलत समझी जा सकती है। यह कोई बढ़िया किताब होने का सबूत नहीं। इसे कमजोर तरीके से लिखा गया, या इस की बातें ही कमजोर हैं। तथ्यगत जानकारियों की दृष्टि से भी कुरान में कोई ऐसा ज्ञान नहीं जिससे वैज्ञानिक, चिंतक, आविष्कारक जैसे लोग बन सकें। एक ओर दावा है कि उस में सारी साइंटिफिक बातें हैं, दूसरी ओर सदियों से दुनिया में कभी कोई मुस्लिम साइंटिस्ट नहीं बना। जो इक्के-दुक्के हुए भी, वे काफिर देशों में, काफिरों की संस्थाओं में पढ़कर, काफिर साइंटिस्टों की सोहबत में ही हुए। यह दिखाता है कि इस्लामी किताबें दुनिया के बारे में भी सही जानकारियों से खाली हैं। यह तथ्य उस दावे को भी काटता है कि सारी दुनिया, धन-संपत्ति, बढ़िया चीजें, अल्लाह ने मुसलमानों के लिए बनाई हैं। वास्तव में यह सब काफिरों को ही सदिय़ों से, इस्लाम से पहले से और आज भी हासिल हैं। अल्लाह के अनुसार चलते हुए मुसलमानों ने अपने बूते कभी कुछ नहीं बनाया, न आज बना पाते हैं। जबकि बिना अल्लाह की परवाह किए, स्वतंत्र चिंतन और वैज्ञानिक शोध से हर तरह के काफिरों ने सैकड़ों आविष्कार किए, नई तकनीकें और बेहतरीन चीजें बनाईं। इस्लाम से पहले भी और आज भी। काफिर सारी दुनिया में हर क्षेत्र में उपलब्धियाँ हासिल करते रहे हैं। मुसलमान ऐसा क्यों नहीं कर सके? उलटे ठीक अरब, जहाँ अल्लाह के संदेश और संदेशवाहक मुहम्मद आए, जहाँ अरब को शत-प्रतिशत इस्लामी बनाकर वहाँ से यहूदियों, क्रिश्चियनों और पगानों (अनेक देवी-देवताओं को मानने वाले) को मार भगाया या खत्म किया गया - वही अरब सब से पिछड़े और कमजोर बने रहे! वह भी सदियों से लगातार। इस का संबंध इस्लामी विचार-व्यवहार से है, वरना दक्षिण कोरिया एक मामूली पिछड़े गाँव जैसी चीज से पचास वर्ष में विश्व का एक तकनीकी सुपरपावर बन गया! अब मुसलमान भी इसे समझने लगे हैं कि इस्लाम वैज्ञानिक, तकनीकी, आर्थिक, और सांस्कृतिक पिछड़ेपन का एक कारक है। सो, कई कारणों से मुसलमानों में मुलहिद बढ़ रही है। एक आकलन से पाकिस्तान में 40 लाख, तुर्की में 48 लाख, मलेशिया में 18 लाख, और सऊदी अरब में 16 लाख लोग नास्तिक हैं। वे स्वतंत्र चिंतन की आजादी की माँग कर रहे हैं। यह सरासर अनुचित है कि कोई इस्लाम न माने, तो उसे मार डालें। यह इस्लाम की कुंठा, टैबू भी दिखाता है। वह सवालों को प्रतिबंधित रखना चाहता है। खुला विचार-विमर्श ही इस अटपटेपन का इलाज है। हैरिस एक महत्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान दिलाते हैं। कई बर्बर प्रथाओं का मजाक उड़ाते रहने से ही अंततः उसे छोड़ा गया। सऊदी अरब में स्त्रियों को जो अधिकार मिल रहे हैं, वह दुनिया हँसी उड़ने से ही संभव हुआ कि स्त्री कार क्यों नहीं चला सकती? दफ्तरों में काम क्यों नहीं कर सकती? अकेले बाजार क्यों नहीं जा सकती? इसलिए व्यर्थ इस्लामी विचारों की आलोचना करना, उन का मजाक बनाना अच्छा है। इस से मुस्लिम शासकों पर मानवीयता का दबाव पड़ता है। इस्लाम के ‘सम्मान’ के नाम पर चुप्पी, या आलोचकों को दंडित करना, मुसलमानों की हानि ही करना है जो अनुचित बंधनों में जकड़े रखे गए हैं।  अपनी पुस्तक के औचित्य में हैरिस पूछते हैं कि मुसलमानों को क्या अधिकार है कि वे तो दूसरों को उपदेश देंगे, पर दूसरे उन्हें उपदेश नहीं दे सकते? यदि मुसलमान समझते हैं कि वे सही हैं, और दूसरे गलत, तो इस की जाँच-पड़ताल चलनी चाहिए। तब हो सकता है कि उलटा ही निष्कर्ष मिले। हैरिस की पुस्तक का बड़ा हिस्सा कुरान में तथ्य जैसी बातों का वैज्ञानिक विश्लेषण है। अन्य हिस्से में सामाजिक, बौद्धिक दावों और इतिहास की समीक्षा है। जैसे, इस्लामी विद्वानों का यह कहना गलत है कि इस्लामी विचार बदले नहीं जा सकते क्योंकि वे ‘अल्लाह के शब्द’ हैं। लेकिन वही विद्वान इस्लामी किताबों में दी गई गुलामी, सेक्स-गुलामी, पत्नी को मारने-पीटने वाले निर्देश, आदि की आज भिन्न व्याख्या करने की कोशिश करते हैं। यह 150 साल पहले नहीं होता था। उन बातों को जस का तस रखा, बताया, समझाया जाता था। लेकिन अब उस से इंकार करते हुए घुमावदार बातें होती हैं। यहाँ तक कहा जाता जाता है कि प्रोफेट मुहम्मद ने ही गुलामी खत्म की! यह न केवल गलत है, बल्कि सौ साल पहले तक किसी इस्लामी व्य़ाख्या में नहीं कहा जाता था। यह एक उदाहरण भर है। वस्तुतः कुरान और सुन्ना के अनेक कायदे कई मुस्लिम देशों में छोड़े जा चुके। पाकिस्तान या तुर्की के जीवन में संगीत और कला की आम स्वीकृति इस्लाम-विरुद्ध है। पर बदस्तूर चल रही है। यह साबित करता है कि इस्लामी विचार बदले जा रहे हैं, चाहे वे अल्लाह के निर्देश हों या न हों। इस्लाम में एक मात्र ईनाम या उपलब्धि है – मरने पर जन्नत जाना। अल्लाह या प्रोफेट ने यही कहा है। इस के अलावा इस दुनिया में काफिरों को हराकर उन का माल, और उन की स्त्रियों, बच्चों को गुलाम बना कर बेचने से मिला गनीमा। बस। लेकिन उस जन्नत के अस्तित्व का, या वह केवल मुसलमानों के लिए रिजर्व होने का सबूत क्या है? शून्य। तब इस्लाम के लिए सारी लड़ाई, छल-प्रपंच, आदि करते रहना कौन सी बुद्धिमानी है! हैरिस मुसलमानों को कहते हैं कि उस काल्पनिक जन्नत के लिए इस्लाम द्वारा हराम ठहराई गई सभी चीजों: संगीत, कला, किसी से दोस्ती चाहे वह कोई भी धर्म माने या नास्तिक हो, मिल-जुल कर रहने, आदि से वंचित रहना बेतुकी बात है! अपने पिता और भाई को भी ठुकराएं, यदि वह इस्लाम न मानें (कुरान, 9-23)। इस तरह, आप दुनिया की आधी आबादी को सताने की ठाने रहें, ताकि आप को जन्नत मिले, बड़ी बेढ़ब सीख है। महान लेखक अनातोले फ्रांस को उद्धृत करते हैरिस कहते हैं, ‘‘यदि 5 करोड़ लोग भी कोई मूर्खतापूर्ण बात कह रहे हों, तब भी वह बात मूर्खतापूर्ण ही रहेगी।’’
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