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संघ परिवार के साथ मेरे अनुभव – 1

BySita Ram Goel,
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संघ परिवार के साथ मेरे अनुभव – 1
यह अपरिहार्य था कि जैसे-जैसे मैं अधिकाधिक पक्का और सचेत हिन्दू होता गया, मैं आर.एस.एस. और इस के राजनीतिक मंच बी.जे.एस. (भारतीय जनसंघ) की ओर खिंचा। दोनों की छवि ‘हिन्दू सांप्रदायिक संगठन’ होने की थी। मैं मान कर चल रहा था कि नेहरूवादी जिसे ‘हिन्दू सांप्रदायिकता’ कहते हैं, वह भारतीय राष्ट्रवाद होगा। मैं स्वीकार करूँ कि मुझे और भारी निराशा होने वाली थी। जल्द ही मैंने महसूस किया कि गाय का प्रश्न, मुस्लिम हमलावरों का चरित्र, और उन हमलावरों से लड़ने वाले हिन्दू नायकों का मूल्यांकन जैसे कुछ विषयों को छोड़ कर इन संगठनों के विचार सभी महत्वपूर्ण घरेलू और विदेशी विषयों पर नेहरूवादियों के समान थे। उस बड़बोले हवाबाज (‘विंडबैग’) के नेतृत्व में बीजेएस तेजी से पूरी नेहरूवादी बनने की ओर बढ़ रही थी, जिसे यह छिपाने का कोई कारण न दिखता था कि उसे अपने पार्टी सहयोगियों की बजाए कम्युनिस्टों के सान्निध्य में ज्यादा सुख महसूस होता था। जब पहली बार मैंने उस नेता से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो बीजेएस के सचिव ने, पूरी गंभीरता से, बताया कि यदि वे दिल्ली से बाहर न हुए, तो किसी भी दिन दोपहर बाद विंडसर प्लेस स्थित कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में मिल जाएंगे। इस से भी बुरी बात यह थी कि आरएसएस और बीजेएस के बड़े-बड़े नेता अपना लगभग सारा समय और ऊर्जा यह प्रमाणित करने में खर्च करते थे कि वे हिन्दू संप्रदायवादी नहीं, बल्कि सच्चे सेक्यूलर हैं। आरएसएस के साथ मेरा पहला संपर्क तब हुआ था जब मैं कॉलेज में द्वितीय वर्ष का छात्र और पक्का गाँधीवादी था [लगभग 1940 ई.]। एक सुबह मेरे दो सहपाठी छात्रावास में मेरे कमरे में आए। दोनों साइंस छात्र थे, और उन्हें मैं केवल चेहरे से जानता था। उन्होंने कॉलेज पत्रिका में छपी मेरी एक कहानी का उल्लेख किया जिसे पुरस्कार मिला था। उन्होंने मुझे हिन्दू राष्ट्र पर लिखने को प्रेरित करने के लिए काफी भाषण पिलाया। उन्होंने कहा कि वे आरएसएस के सदस्य हैं, और मुझे पत्रिका का अगला संपादक बनने को कहा क्योंकि छात्रों में उन का बहुमत था। तब तक मैंने आरएसएस का नाम भी नहीं सुना था, और हिन्दू राष्ट्र के बारे में कुछ नहीं जानता था। मेरा आदर्श तो रामराज्य था जैसा महात्मा गाँधी बताया करते थे। फिर हम प्रायः मिलने लगे। जब मैंने उन के आंदोलन के बारे में उन से किसी साहित्य की माँग की जो उन्होंने प्रकाशित की हो, तो मुझे शून्य उत्तर मिला। इस के बदले वे मुझे विजयादशमी मेले में ले गए। फिर उन से संपर्क टूट गया जब मैंने पाया कि ये नए मित्र रोज-रोज मुझे महात्मा गाँधी के बारे में विचित्र कहानियाँ सुनाते हैं। वे साबित करने में लगे थे कि महात्मा केवल मुस्लिम लीग का टट्टू और अफगानिस्तान के अमीर का एजेंट है। मैंने वैसी बातें कभी न सुनी, न पढ़ी थीं। मुझे खुशी है कि हाल के वर्षों में आरएसएस ने महात्मा गाँधी की भूमिका और मूल्याकंन पर अपनी राय सुधार ली है। मैं अब यह भी देख सकता हूँ कि वे पुरानी कहानियाँ उस कष्टकर अनुभव से निकली थीं जिस ने वर्षों देखा था कि महात्मा गाँधी और उन की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने को हिन्दू कहने से इन्कार करती थी, लेकिन हिन्दुओं के नाम पर मुस्लिम लीग से सौदेबाजी करने में कोई संकोच नहीं करती थी। यह महात्मा और कांग्रेस की आदत बन गई कि हिन्दुओं को अपनी जेब में (फॉर-ग्रांटेड) समझें। लेकिन उस समय, राष्ट्रीय राजनीति के बारे में मेरे पूर्ण अज्ञान की अवस्था में, वे कहानियाँ बड़ी घृणित लगती थीं। आरएसएस के साथ मेरा अगला संपर्क कलकत्ते में कम्युनिस्ट-विरोधी कार्यों के दौरान हुआ [लगभग 1952-57 ई.]। हमारा ग्रुप उस कार्य में सहयोग के लिए कांग्रेस और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं से मिल रहा था, जिसे हम गैर-पार्टी राष्ट्रीय मंच समझते थे। उन में से कुछ नेता हमारे विचारों से अप्रसन्न थे, और उस के बदले हमें हिन्दू संप्रदायवाद से लड़ने की सलाह दी। दूसरों ने अच्छा व्यवहार किया, हमारी बात सुनी, और हमारे कार्यालय में आकर आगे बातचीत करने का आश्वासन दिया। पर किसी ने अपनी बात न रखी। एक दिन किसी मित्र ने मुझे गलत नेताओं से मिलने के लिए फटकारा, और मुझे हावड़ा में एक आरएसएस शिविर में ले गया। जिस नेता से वहाँ मैं मिला वे बड़े सहानुभूतिपूर्ण लगे, और शिविर समाप्त होने पर मुझ से मेरे कार्यालय में मिलने का वचन दिया। उन्होंने अपनी बात रखी, यद्यपि इस बीच हमारा कार्यालय दूसरी जगह आ गया था। वे पुराने कार्यालय गए, और हमारा नया पता लिया। लगभग इसी समय कलकत्ता के एक साप्ताहिक कैपिटल में नियमित लिखने वाले एक अंग्रेज ने आरएसएस का एक फासिस्ट संगठन के रूप में चित्रण किया। मैं उसे जानता था और हमारे काम के प्रति मित्रवत समझता था। किन्तु मैंने उस साप्ताहिक को एक पत्र लिखा कि ‘‘जो आरएसएस को फासिस्ट कहते हैं वे खुद फासिस्ट हैं।’’ वह पत्र प्रकाशित हुआ। अंग्रेज ने अगले दिन मुझे फोन किया। उस ने कहा कि वह सचमुच आरएसएस के बारे में कुछ नहीं जानता था, और वह केवल एक प्रचलित बात दुहरा रहा था। वह क्षमा-याची मुद्रा में था। इस बीच, मैंने उस पत्र की कटिंग आरएसएस नेता को दी। उस ने वैसी ही छपी और प्रतियों की माँग की, वह भी मैंने पहुँचा दिया। मुझे मालूम हुआ कि उस ने आरएसएस समाज में मुझे अनुचित आलोचनाओं से आरएसएस का बचाव करने वाले के रूप में पेश किया। मैं नहीं जानता था कि तब आरएसएस के बारे में अच्छी राय रखना एक साहस का काम समझा जाता था। वह राय मेरी स्वभाविक रूप से बन गई थी जैसे ही मैंने राष्ट्रवादी रुख अपनाना आरंभ किया। आरएसएस नेता ने हमारे कम्युनिस्ट-विरोधी काम में जो मदद की वह प्रशंसनीय थी। दुर्गापूजा के समय तथा अन्य प्रदर्शनियों में आरएसएस के कुछ युवाओं ने हमारे बुक स्टॉल का प्रबंध संभाला, जब कम्युनिस्ट धमका रहे थे कि वे ‘कलकत्ता के हृदय में ऐसा पाप’ नहीं होने देंगे। हमें उस में बड़ी सफलता मिली और हमारे प्रकाशन अच्छी संख्या में बिके। इस बीच, अनेक आरएसएस और बीजेएस नेता, जो किसी काम से कलकत्ता आते थे, वे हमारे ऑफिस आए और हमारे कार्य की सराहना की। उन में से कुछ को मैं अच्छी तरह जानने लगा। लेकिन हमें सब से अधिक संतोष इस बात का था कि हमारे ग्रुप में कांग्रेस और समाजवादी सदस्य भी ‘हिन्दू संप्रदायवादियों’ से समान लड़ाई में सहयोगी के रूप में मिले, और अपने सेक्यूलर श्रेष्ठ-अहंकार को कुछ छोड़ा।  (जारी)
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